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Books - शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


न शरीर थकता है न मस्तिष्क

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सन् 1967 में चिकित्सा शास्त्र का नोबुल पुरस्कार दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों श्री डा. हाजकिन और डा. हक्सले को दिया गया था। तीसरे वैज्ञानिक आस्ट्रेलिया के डा. एक्सल्स थे जिन्होंने शरीर में विचार प्रक्रिया की महत्वपूर्ण जानकारी दी है।अमरीकी वैज्ञानिकों ने 50 वर्ष की आयु से अधिक कई व्यक्तियों पर परीक्षण किये और यह पाया कि जब मनुष्य का सारा शरीर थक जाता है तब भी मस्तिष्क नहीं थकता। दूषित जीवन पद्धति के कारण किसी की ज्ञान शक्ति विक्षिप्त हो गई हो, वैसे थोड़े ही लोग पाये गये। अधिकांश परीक्षणों से मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आयु बढ़ने के साथ मानसिक शक्ति में किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता, यदि होता है तो वह कम मानसिक कार्य करने से ही होता है। मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील रखने वालों की बौद्धिक शक्ति में अन्तर नहीं आता शरीर भले ही थक जाता हो।
भारतीय धर्म-ग्रन्थों में ‘जीवेम् शरदः शतम्’ ‘हम सौ वर्ष के आयुष्य का उपभोग करें’ की कामना की गई है, वह उस समय की संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या को देखते हुए अत्युक्ति नहीं थी। न आज ही वह अस्वाभाविक है। सूत्रस्थान अध्याय 27 में आचार्य चरक ने मनुष्य की आयु में 36000 रात्रियां होने का उल्लेख किया है, यदि मनुष्य हंसी-खुशी, परिश्रम और सादगी का आचरण करे तो इतनी आयु का होना कोई कठिन बात नहीं है।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। 1750 में हंगरी का बोविन 172 वर्ष की आयु में मरा तब उसकी विधवा पत्नी 164 वर्ष की थी और सबसे बड़े बेटे की उम्र 115 वर्ष थी। वियेना के सोलियन साबा 132 वर्ष की आयु के होकर मरे थे, उन्होंने 98 वर्ष की आयु में 7 वहीं शादी की। विवाह समारोह के बीच किसी ने चुटकी लेते हुए कहा—‘‘आप अपनी नव-विवाहिता को कब निराश्रित कर देंगे’’ तो उन्होंने अपनी मांसल भुजाओं की ओर देखकर कहा 40 साल से पहले नहीं। अपने शरीर और स्वास्थ्य पर इतना गहन नियन्त्रण रखने वाले साबा की मृत्यु 40 तो नहीं इस विवाह से 34 वर्ष बाद हुई इस पत्नी से भी तीन पुत्र हुए, जबकि इससे पूर्व वह 69 पुत्र-पुत्रियों के पिता होकर ‘बहु पुत्र लाभम्’ का आशीर्वाद सार्थक कर चुके थे।
रोम की दो नर्तकियों की आयु 104 और 112 वर्ष का उल्लेख करते हुए वहां के एक पत्र ने लिखा था कि नृत्य उनके लिए व्यवसाय नहीं, साधना थी। उन्होंने नृत्य को परमात्मा का वरदान मानकर शिरोधार्य किया था, सदैव हंसती-खेलती रहने के कारण उनके स्वास्थ्य में कभी कोई गड़बड़ी नहीं आई। 1867 में फ्रांस में एक ऐसी अभिनेत्री का निधन हुआ, जिसने 111 वर्ष की आयु पार कर ली थी। इस अभिनेत्री का जीवन सामान्य अभिनेत्रियों से भिन्न था, साधन और सम्पत्ति की प्रचुरता होने पर भी उसने प्राकृतिक जीवन के आनन्द को नहीं छोड़ा, वह अधिकांश नदियों या झरनों में स्नान करती, जंगलों में घूमने जाती, बाहर के कार्यक्रम न रहने पर भी घर में नृत्य का इतना अभ्यास करती, जिससे शरीर का सारा मैल, पसीने के रूप में निकल जाता। डेमोक्रिट्स 109 वर्ष का नीरोग जीवन जीकर मरे, उन्होंने अपने जीवन में शराब, मिर्च-मसाले और मांस का कभी उपयोग नहीं किया। वे अधिकांश उबली हुई सब्जियां, नीबू, शहद और ककड़ी आदि हरे शाक और फल खाते थे। डबल रोटी एक बार न भी ली हो पर शाकाहार उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।
वेलोर-मकरेन आयु 190 वर्ष जोसेफ रूरिकटन 160 वर्ष और नार्वे के ड्रेमन वर्ग ने 146 वर्ष की आयु का आनन्द लिया। रूस के ईवान कुस्मन नामक किसान ने 130 वर्ष की आयु तक आनन्द का जीवन बिताकर यह सिद्ध कर दिया कि जीवन को बढ़ाना मनुष्य के वश की बात है। (1) सादा और शाकाहारी भोजन, (2) भरपूर परिश्रम, (3) प्रकृति की घनिष्ठता, इन तीन छोटी-छोटी बातों में ही दीर्घजीवन का रहस्य छुपा हुआ है। इन नियमों का उल्लंघन करने वाला चाहे कोई साधारण व्यक्ति हो, चाहे सम्राट अपनी मृत्यु शीघ्र ही बुलायेगा।
व्यायाम का थोड़ा-सा भी नियम रखकर हम अपने आयुष्य को बढ़ा सकते हैं, यह स्वीडन के मिलिटरी ऑफिसर रेवरेंड का कथन है, जिसने 70 वर्ष तक फौजी सेवा की। 17 युद्धों में भाग लेने वाले इस ऑफिसर का नियम था प्रतिदिन कम से कम 5 मील चलना। जिस दिन मृत्यु हुई, उस दिन भी वह दो मील चलकर आया था। ब्रिटेन के ईफिगम से पूछा गया, आपकी महत्त्वाकांक्षा क्या दैत्या आप बड़े आदमी नहीं बनना चाहते? तो उसने हंसकर कहा—‘‘परिश्रम के जीवन से मुझे इतना मोह हो गया है कि अब कोई महत्त्वाकांक्षा रही ही नहीं। आप देखते नहीं मैं कितना स्वस्थ हूं, कितना प्रसन्न हूं, मेरे भीतर से हर घड़ी आनन्द का फौवारा छूटता रहता है।’’
सचमुच इस तरह परिश्रम में आनन्द विभोर जीवन जीने वाले ईफिगम 144 वर्ष तक जिये इस बीच वह एक दिन भी बीमार नहीं पड़े। जब कभी बरसात होती थी वे बच्चों की तरह किलकारी मरते हुए जांघिया पहन कर निकल आया करते थे और घण्टों वर्षा की फुहार का आनन्द लिया करते थे।
प्रकृति माता है उसकी गोद में रहकर मनुष्य को रुपया पैसा भले ही न मिले, पर जीवन के लिए अभीष्ट प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द, सुख और सन्तोष का अभाव नहीं होने पाता रोग, शोक और बीमारियां तो तब होती हैं, जब हम अपने जीवन की गतिविधियों—आहार-विहार से लेकर काम करने तक—को अस्वाभाविक, आलस्य और चिन्तापूर्ण बना लेते हैं। 8000 फुट की ऊंचाई पर रहने वाली हिमालय की हुंजा जाति के लोग अभी भी अपना जीवन निर्वाह अधिकांश शाक और जंगली फल-फूलों पर करते हैं, वस्त्र उन्हें साधारण ही मिल पाते हैं, आमोद-प्रमोद के लिए उनके पास यदि कुछ है तो यही पहाड़ों पर चढ़ना, झरनों में स्नान करना आदि इस पर भी वे संसार के सर्वाधिक दीर्घजीवी माने जाते हैं।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के चिकित्सा विभाग के अध्यक्ष श्री मेजर जनरल राबर्ट मैक्कैरिसन दस हजार हुंजाओं के बीच अकेले डॉक्टर रहे, जबकि शेष भारतवर्ष में प्रति 800 व्यक्ति, एक डॉक्टर नियुक्त है। इस पर भी उन्हें दिन भर कोई काम न रहता इससे ऊबकर उन्होंने अपना समय इस जाति के दीर्घ जीवन के रहस्यों का पता लगाने में उपयोग किया उन्होंने सैकड़ों चूहों को पकड़कर उन्हें अंग्रेज चूहे—हुंजा चूहे दो दलों में बांटकर एक दल को हुंजाओं द्वारा लिए जाने वाला साधारण भोजन कराया दूसरों को अंग्रेजों द्वारा लिया जाने वाला गरिष्ठ मांसाहार। उन्होंने पाया कि हुंजा दल हमेशा स्वस्थ और तन्दुरुस्त रहा, पर अंग्रेज चूहों का दल हमेशा बीमारियों में ग्रस्त रहा। उनमें अधिकांश को गर्भपात हुआ। चूहा मातायें अपने बच्चों को पर्याप्त पोषण भी नहीं दें पाईं। उन्हें ऐसी-ऐसी बीमारियां हुईं, जिनका चिकित्सा शास्त्र में कोई उल्लेख तक नहीं।
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