
अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
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लोगों की दृष्टि में सफलता का ही मूल्य है। जो सफल हो गया उसी की प्रशंसा की जाती है। दीखने वाले यह नहीं देखते कि सफलता नीति पूर्वक प्राप्त की गई है या अनीति पूर्वक। झूठे, बेईमान, दगाबाज, चोर, लुटेरे भी बहुत धन कमा सकते हैं। किसी चालाकी से कोई बड़ा पद या गौरव भी प्राप्त कर सकते हैं। आप लोग तो केवल उस कमाई और विभूति मात्र को ही देख कर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं और समर्थन भी। पर सोचना चाहिए कि क्या यह तरीका उचित है? सफलता की अपेक्षा नीति श्रेष्ठ है। यदि नीति पर चलते हुए परिस्थितिवश असफलता मिली है तो वह भी कम गौरव की बात नहीं है। नीति का स्थायी महत्व है, सफलता का अस्थाई। सफलता न मिलने से भौतिक जीवन में उत्कर्ष में थोड़ी असुविधा रह सकती है पर नीति त्याग देने पर तो लोक परलोक, आत्म-सन्तोष, चरित्र, धर्म, कर्तव्य और लोकहित सभी कुछ नष्ट हो जाता है। ईसा मसीह ने क्रूस पर चढ़कर पराजय स्वीकार की, पर नीति का परित्याग नहीं किया। शिवाजी, राणा प्रताप, बन्दा वैरागी, गुरु गोविन्द सिंह, लक्ष्मीबाई, सुभाष बोस आदि को पराजय का ही मुंह देखना पड़ा पर उनकी यह पराजय भी विजय से अधिक महत्वपूर्ण थी। धर्म और सदाचार पर दृढ़ रहने वाले सफलता में नहीं कर्तव्य पालन में प्रसन्नता अनुभव करते हैं और इसी दृढ़ता को स्थिर रख सकने को एक बड़ी भारी सफलता मानते हैं। अनीति और सफलता में से यदि एक को चुनना पड़े तो असफलता को ही पसन्द करना चाहिए, अनीति को नहीं। जल्दी सफलता प्राप्त करने के लोभ में अनीति के मार्ग पर चल पड़ना ऐसी बड़ी भूल है जिसके लिए सदा पश्चाताप ही करना पड़ता है।
वास्तव में नीति मार्ग छोड़कर किसी मानवोचित सदुद्देश्य की पूर्ति की नहीं जा सकती। मनुष्यता खोकर पाई सफलता कम से कम मनुष्य कहलाने में गौरव अनुभव करने वाले के लिए तो प्रसन्नता की बात नहीं ही है। यदि कोई व्यक्ति ऊपर से नीचे जल्दी पहुंचने की उतावली में सीधा कूदकर हाथ-पैर तोड़ ले तो उसे कोई ‘जल्दी पहुंचने में सफल हुआ’ नहीं कहना चाहेगा। इससे तो थोड़ी देर में पहुंचना अच्छा। मानवोचित नैतिक स्तर गंवाकर किसी एक विषय में सफलता की लालसा उपरोक्त प्रसंग जैसी विडम्बना ही है। हर विचारशील को इससे सावधान रहकर नीति मार्ग को अपनाये रहकर मनुष्यता के अनुरूप वास्तविक सफलता अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए।
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मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
मनुष्य की श्रेष्ठता की कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके द्वारा मानवीय उच्च मूल्यों का निर्वाह, कितना हो सका, उनको कितना प्रोत्साहन दे सका। योग्यतायें विभूतियां तो साधन मात्र हैं। लाठी एवं चाकू स्वयं न तो प्रशंसनीय है न निन्दनीय। उनका प्रयोग पीड़ा पहुंचाने के लिए हुआ या प्राण रक्षा के लिए? इसी आधार पर उनकी भर्त्सना या प्रशंसा की जा सकती है। मनुष्य की विभूतियां एवं योग्यतायें भी ऐसे ही साधन हैं। उनका उपयोग कहां होता है इसका पता उसके विचारों एवं कार्यों में लगता है। वे यदि सद् हैं तो यह साधन भी सद् हैं, पर यदि वे असद् हैं तो वह साधन भी असद् ही कहे जावेंगे। मनुष्यता का गौरव एवं सम्मान इन जड़ साधनों से नहीं उसके प्राण रूपा सद्विचारों एवं सद्प्रवृत्तियों से जोड़ा जाना चाहिए। उसी आधार पर सम्मान देने, प्राप्त करने की परम्परा बनायी जानी चाहिए।
जिस वस्तु से प्रतिष्ठा बढ़ती है, प्रशंसा होती है, उसी काम को करने के लिए उसी मार्ग पर चलने के लिए लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। हम प्रशंसा और निन्दा करने में, सम्मान और तिरस्कार करने में थोड़ी सावधानी बरतें तो लोगों को कुमार्ग पर न चलने और सत्पथ अपनाने में बहुत हद तक प्रेरणा दे सकते हैं। आमतौर से उनकी प्रशंसा की जाती है जिनने विशेष सफलता, योग्यता, सम्पदा एवं विभूति एकत्रित कर ली है। चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। यह तरीका गलत है। विभूतियों को लोग केवल अपनी सुख सुविधा के लिए ही एकत्रित नहीं करते वरन् प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी उद्देश्य होता है। जब कि धन वैभव वालों को ही समाज में प्रतिष्ठा मिलती है तो मान का भूखा मनुष्य किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो उठता है। अनीति और अपराधों की बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण यह है कि अन्धी जनता हर सफलता की प्रशंसा करती है और हर असफलता को तिरस्कार की दृष्टि से देखती है। धन के प्रति, धनी के प्रति आदर बुद्धि तभी रहनी चाहिए जब वह नीति और सदाचार पूर्वक कमाया गया हो। यदि अधर्म और अनीति से उपार्जित धन द्वारा धनी बने हुए व्यक्ति के प्रति हम आदर बुद्धि रखते हैं तो इससे उस प्रकार के अपराध करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है और इस दृष्टि से अपराध वृद्धि में हम स्वयं भी भागीदार बनते हैं।
दूसरों को सन्मार्ग पर चलाने का, कुमार्ग की ओर प्रोत्साहित करने का एक बहुत बड़ा साधन हमारे पास मौजूद है, वह है आदर और अनादर। जिस प्रकार वोट देना एक छोटी घटना मात्र है पर उसका परिणाम दूरगामी होता है उसी प्रकार आदर के प्रकटीकरण का भी दूरगामी परिणाम संभव है। थोड़े से वोट चुनाव सन्तुलन को इधर से उधर कर सकते हैं। और उस चुने हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व किसी महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंच कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अप्रत्याशित भूमिका सम्पादन कर सकता है। थोड़े से वोट व्यापक क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखाते हैं और अनहोनी सम्भावनायें साकार बना सकते हैं। इसी प्रकार हमारी आदर बुद्धि यदि विवेकपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करे तो कितने ही कुमार्ग पर बढ़ते हुए कदम रुक सकते हैं और कितने ही सन्मार्ग की ओर चलते हुए झिझकने वाले पथिक प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उस दिशा में तत्परतापूर्वक अग्रसर हो सकते हैं।
जिन लोगों ने बाधाओं को सहते हुए भी अपनी जीवन में कुछ आदर्श उपस्थित किये हैं, उनका सार्वजनिक सम्मान होना चाहिए, उनकी प्रशंसा मुक्त कण्ठ से की जानी चाहिए और जो लोग निन्दनीय मार्गों द्वारा उन्नति कर रहे हैं उनकी प्रशंसा एवं सहायता किसी भी रूप में नहीं करनी चाहिए। अवांछनीय कार्यों में सम्मिलित होना भी एक प्रकार से उन्हें प्रोत्साहन देना ही है क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों की उपस्थिति मात्र से लोग कार्य में उसका समर्थन मान लेते हैं और फिर स्वयं भी उसका सहयोग करने लगते हैं। इस प्रकार अनुचित कार्यों में हमारा प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन अन्ततः उन्हें बढ़ाने वाला ही सिद्ध होता है।
हमें मनुष्य का मूल्यांकन उसकी सफलताओं एवं विभूतियों से नहीं वरन् उस नीति और गतिविधि के आधार पर करना चाहिए जिसके आधार पर वह सफलता प्राप्त की गई। बेईमानी से करोड़पति बना व्यक्ति भी हमारी दृष्टि में तिरस्कृत होना चाहिए और वह असफल और गरीब व्यक्ति जिसने विपन्न परिस्थितियों में भी जीवन उच्च आदर्शों की रक्षा की उसे प्रशंसा, प्रतिष्ठा, श्रद्धा सम्मान और सहयोग सभी कुछ प्रदान किया जाना चाहिए। यह याद रखने की बात है कि जब तक जनता का, निन्दा प्रशंसा का, आदर तिरस्कार का मापदण्ड न बदलेगा तब तक गुण्डे मूंछों पर ताव देकर अपनी सफलता पर गर्व करते हुए दिन-दिन अधिक उच्छृंखल होते चलेंगे और सदाचार के कारण सीमित सफलता या असफलता प्राप्त करने वाले खिन्न और निराश रह कर सत्यपथ से विचलित होने लगेंगे। युग-निर्माण संकल्प में यह प्रबल प्रेरणा प्रस्तुत की गई है कि हम मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं एवं विभूतियों को नहीं सज्जनता और आदर्शवादिता को ही रखें।
वास्तव में नीति मार्ग छोड़कर किसी मानवोचित सदुद्देश्य की पूर्ति की नहीं जा सकती। मनुष्यता खोकर पाई सफलता कम से कम मनुष्य कहलाने में गौरव अनुभव करने वाले के लिए तो प्रसन्नता की बात नहीं ही है। यदि कोई व्यक्ति ऊपर से नीचे जल्दी पहुंचने की उतावली में सीधा कूदकर हाथ-पैर तोड़ ले तो उसे कोई ‘जल्दी पहुंचने में सफल हुआ’ नहीं कहना चाहेगा। इससे तो थोड़ी देर में पहुंचना अच्छा। मानवोचित नैतिक स्तर गंवाकर किसी एक विषय में सफलता की लालसा उपरोक्त प्रसंग जैसी विडम्बना ही है। हर विचारशील को इससे सावधान रहकर नीति मार्ग को अपनाये रहकर मनुष्यता के अनुरूप वास्तविक सफलता अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए।
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मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
मनुष्य की श्रेष्ठता की कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके द्वारा मानवीय उच्च मूल्यों का निर्वाह, कितना हो सका, उनको कितना प्रोत्साहन दे सका। योग्यतायें विभूतियां तो साधन मात्र हैं। लाठी एवं चाकू स्वयं न तो प्रशंसनीय है न निन्दनीय। उनका प्रयोग पीड़ा पहुंचाने के लिए हुआ या प्राण रक्षा के लिए? इसी आधार पर उनकी भर्त्सना या प्रशंसा की जा सकती है। मनुष्य की विभूतियां एवं योग्यतायें भी ऐसे ही साधन हैं। उनका उपयोग कहां होता है इसका पता उसके विचारों एवं कार्यों में लगता है। वे यदि सद् हैं तो यह साधन भी सद् हैं, पर यदि वे असद् हैं तो वह साधन भी असद् ही कहे जावेंगे। मनुष्यता का गौरव एवं सम्मान इन जड़ साधनों से नहीं उसके प्राण रूपा सद्विचारों एवं सद्प्रवृत्तियों से जोड़ा जाना चाहिए। उसी आधार पर सम्मान देने, प्राप्त करने की परम्परा बनायी जानी चाहिए।
जिस वस्तु से प्रतिष्ठा बढ़ती है, प्रशंसा होती है, उसी काम को करने के लिए उसी मार्ग पर चलने के लिए लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। हम प्रशंसा और निन्दा करने में, सम्मान और तिरस्कार करने में थोड़ी सावधानी बरतें तो लोगों को कुमार्ग पर न चलने और सत्पथ अपनाने में बहुत हद तक प्रेरणा दे सकते हैं। आमतौर से उनकी प्रशंसा की जाती है जिनने विशेष सफलता, योग्यता, सम्पदा एवं विभूति एकत्रित कर ली है। चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। यह तरीका गलत है। विभूतियों को लोग केवल अपनी सुख सुविधा के लिए ही एकत्रित नहीं करते वरन् प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी उद्देश्य होता है। जब कि धन वैभव वालों को ही समाज में प्रतिष्ठा मिलती है तो मान का भूखा मनुष्य किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो उठता है। अनीति और अपराधों की बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण यह है कि अन्धी जनता हर सफलता की प्रशंसा करती है और हर असफलता को तिरस्कार की दृष्टि से देखती है। धन के प्रति, धनी के प्रति आदर बुद्धि तभी रहनी चाहिए जब वह नीति और सदाचार पूर्वक कमाया गया हो। यदि अधर्म और अनीति से उपार्जित धन द्वारा धनी बने हुए व्यक्ति के प्रति हम आदर बुद्धि रखते हैं तो इससे उस प्रकार के अपराध करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है और इस दृष्टि से अपराध वृद्धि में हम स्वयं भी भागीदार बनते हैं।
दूसरों को सन्मार्ग पर चलाने का, कुमार्ग की ओर प्रोत्साहित करने का एक बहुत बड़ा साधन हमारे पास मौजूद है, वह है आदर और अनादर। जिस प्रकार वोट देना एक छोटी घटना मात्र है पर उसका परिणाम दूरगामी होता है उसी प्रकार आदर के प्रकटीकरण का भी दूरगामी परिणाम संभव है। थोड़े से वोट चुनाव सन्तुलन को इधर से उधर कर सकते हैं। और उस चुने हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व किसी महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंच कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अप्रत्याशित भूमिका सम्पादन कर सकता है। थोड़े से वोट व्यापक क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखाते हैं और अनहोनी सम्भावनायें साकार बना सकते हैं। इसी प्रकार हमारी आदर बुद्धि यदि विवेकपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करे तो कितने ही कुमार्ग पर बढ़ते हुए कदम रुक सकते हैं और कितने ही सन्मार्ग की ओर चलते हुए झिझकने वाले पथिक प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उस दिशा में तत्परतापूर्वक अग्रसर हो सकते हैं।
जिन लोगों ने बाधाओं को सहते हुए भी अपनी जीवन में कुछ आदर्श उपस्थित किये हैं, उनका सार्वजनिक सम्मान होना चाहिए, उनकी प्रशंसा मुक्त कण्ठ से की जानी चाहिए और जो लोग निन्दनीय मार्गों द्वारा उन्नति कर रहे हैं उनकी प्रशंसा एवं सहायता किसी भी रूप में नहीं करनी चाहिए। अवांछनीय कार्यों में सम्मिलित होना भी एक प्रकार से उन्हें प्रोत्साहन देना ही है क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों की उपस्थिति मात्र से लोग कार्य में उसका समर्थन मान लेते हैं और फिर स्वयं भी उसका सहयोग करने लगते हैं। इस प्रकार अनुचित कार्यों में हमारा प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन अन्ततः उन्हें बढ़ाने वाला ही सिद्ध होता है।
हमें मनुष्य का मूल्यांकन उसकी सफलताओं एवं विभूतियों से नहीं वरन् उस नीति और गतिविधि के आधार पर करना चाहिए जिसके आधार पर वह सफलता प्राप्त की गई। बेईमानी से करोड़पति बना व्यक्ति भी हमारी दृष्टि में तिरस्कृत होना चाहिए और वह असफल और गरीब व्यक्ति जिसने विपन्न परिस्थितियों में भी जीवन उच्च आदर्शों की रक्षा की उसे प्रशंसा, प्रतिष्ठा, श्रद्धा सम्मान और सहयोग सभी कुछ प्रदान किया जाना चाहिए। यह याद रखने की बात है कि जब तक जनता का, निन्दा प्रशंसा का, आदर तिरस्कार का मापदण्ड न बदलेगा तब तक गुण्डे मूंछों पर ताव देकर अपनी सफलता पर गर्व करते हुए दिन-दिन अधिक उच्छृंखल होते चलेंगे और सदाचार के कारण सीमित सफलता या असफलता प्राप्त करने वाले खिन्न और निराश रह कर सत्यपथ से विचलित होने लगेंगे। युग-निर्माण संकल्प में यह प्रबल प्रेरणा प्रस्तुत की गई है कि हम मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं एवं विभूतियों को नहीं सज्जनता और आदर्शवादिता को ही रखें।