
व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व देंगे।
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सबके हित में अपना हित सन्निहित होने की बात जब कही जाती है तो लोग यह भी तर्क देते हैं कि अपने व्यक्तित्व हित में भी सबका हित साधना चाहिए। यदि यह सच है तो हम अपने हित की बात ही क्यों न सोचें?
यहां हमें सुख और हित का अन्तर समझना होगा। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यास के अनुसार अनुभव होता है, जबकि हित शाश्वत सिद्धान्तों से जुड़ा होता है। हम देर तक सोते रहने में—कुछ भी खाते रहने में सुख का अनुभव तो कर सकते हैं, किन्तु हित तो जल्दी उठने, परिश्रमी एवं संयमी बनने से ही सधेगा। अस्तु व्यक्तिगत सुख को गौण तथा सार्वजनिक हित को प्रधानता मानने का निर्देश सत्-संकल्प में रखा गया है।
व्यक्तिगत स्वार्थ को सार्वजनिक स्वार्थ का अंग कह कर उससे चिपके रहने वालों के लिए भी दिशाबोध है। यदि हम सबके स्वार्थ के एक अंश को दृष्टि से अपने स्वार्थ को साधना चाहते हैं तो उसे एक सीमा तक ही रहना होगा। अपने स्वार्थ की पूर्ति की बात भी उसी सीमा तक सोची जा सकती है जहां तक सार्वजनिक स्वार्थों को उससे चोट न पहुंचे।
व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिए उत्सर्ग कर देने का नाम ही पुण्य, परमार्थ है, इसी को देशभक्ति, त्याग बलिदान, महानता आदि नामों से पुकारते हैं। इसी नीति को अपनाकर मनुष्य महापुरुष बनता है, लोकहित की भूमिका सम्पादन करता है; अपने आदर्श से अनेकों को प्रेरणा देता है और अपने देश समाज का मुख उज्ज्वल करता है। मुक्ति और स्वर्ग का रास्ता भी यही है। भगवान को प्राप्त करने की मंजिल भी यही है। आत्मा की शान्ति और सद्गति भी उसी पर निर्भर है। इसके विपरीत दूसरा रास्ता वह है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सारे समाज का अहित करने के लिए मनुष्य कटिबद्ध हो जाता है, दूसरे चाहे जितनी आपत्ति में फंस जायं, चाहे जितनी हानि और पीड़ा उठावें पर अपने के लिए किसी की कुछ परवा न की जाय। अपराधी मनोवृत्ति इसी को कहते हैं। नरक का रास्ता यही है। देश द्रोह, समाज द्रोह, धर्म द्रोह इसी को कहते हैं। आत्म हनन का, आत्म-पतन का मार्ग यही है। इसी पर चलते हुए व्यक्ति नारकीय यंत्रणा से भरे हुए और सर्वनाश के गर्त में गिरता है।
इसलिए अपनी सद्गति एवं समाज की प्रगति का मार्ग समझकर— व्यक्तिगत सुख स्वार्थ की अन्धी दौड़ बन्द करे व्यापक हितों की साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। अपनी श्रेयानुभूति को क्रमशः सुखों, स्वार्थों से हटा कर हितों की ओर मोड़ना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
यहां हमें सुख और हित का अन्तर समझना होगा। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यास के अनुसार अनुभव होता है, जबकि हित शाश्वत सिद्धान्तों से जुड़ा होता है। हम देर तक सोते रहने में—कुछ भी खाते रहने में सुख का अनुभव तो कर सकते हैं, किन्तु हित तो जल्दी उठने, परिश्रमी एवं संयमी बनने से ही सधेगा। अस्तु व्यक्तिगत सुख को गौण तथा सार्वजनिक हित को प्रधानता मानने का निर्देश सत्-संकल्प में रखा गया है।
व्यक्तिगत स्वार्थ को सार्वजनिक स्वार्थ का अंग कह कर उससे चिपके रहने वालों के लिए भी दिशाबोध है। यदि हम सबके स्वार्थ के एक अंश को दृष्टि से अपने स्वार्थ को साधना चाहते हैं तो उसे एक सीमा तक ही रहना होगा। अपने स्वार्थ की पूर्ति की बात भी उसी सीमा तक सोची जा सकती है जहां तक सार्वजनिक स्वार्थों को उससे चोट न पहुंचे।
व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिए उत्सर्ग कर देने का नाम ही पुण्य, परमार्थ है, इसी को देशभक्ति, त्याग बलिदान, महानता आदि नामों से पुकारते हैं। इसी नीति को अपनाकर मनुष्य महापुरुष बनता है, लोकहित की भूमिका सम्पादन करता है; अपने आदर्श से अनेकों को प्रेरणा देता है और अपने देश समाज का मुख उज्ज्वल करता है। मुक्ति और स्वर्ग का रास्ता भी यही है। भगवान को प्राप्त करने की मंजिल भी यही है। आत्मा की शान्ति और सद्गति भी उसी पर निर्भर है। इसके विपरीत दूसरा रास्ता वह है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सारे समाज का अहित करने के लिए मनुष्य कटिबद्ध हो जाता है, दूसरे चाहे जितनी आपत्ति में फंस जायं, चाहे जितनी हानि और पीड़ा उठावें पर अपने के लिए किसी की कुछ परवा न की जाय। अपराधी मनोवृत्ति इसी को कहते हैं। नरक का रास्ता यही है। देश द्रोह, समाज द्रोह, धर्म द्रोह इसी को कहते हैं। आत्म हनन का, आत्म-पतन का मार्ग यही है। इसी पर चलते हुए व्यक्ति नारकीय यंत्रणा से भरे हुए और सर्वनाश के गर्त में गिरता है।
इसलिए अपनी सद्गति एवं समाज की प्रगति का मार्ग समझकर— व्यक्तिगत सुख स्वार्थ की अन्धी दौड़ बन्द करे व्यापक हितों की साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। अपनी श्रेयानुभूति को क्रमशः सुखों, स्वार्थों से हटा कर हितों की ओर मोड़ना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।