
शरीर को भगवान का मन्दिर समझ कर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
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आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सद् वृत्ति का प्रभाव पहले अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए। हमारा सबसे निकटवर्ती सम्बन्धी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना आवश्यक है। शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही सजाने संवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों की ढंग अकल्याणकारी हैं। हमें सन्तुलन का मार्ग अपनाना चाहिए।
शरीर को ईश्वर के पवित्र निवास के रूप में मान्यता देना उचित है। यह तथ्य ध्यान में बना रहे तो शरीर के प्रति निरर्थक मोह ग्रस्तता से बचकर, उसके प्रति कर्तव्यों का संतुलित निर्वाह सम्भव है। मन्दिर में सजने संवारने में भगवान को भुला देना निरी मूर्खता है। किन्तु देवालय को गन्दा, तिरस्कृत, भ्रष्ट, जीर्ण−शीर्ण रखना भी पाप माना जाता है। शरीर रूपी मन्दिर को मनमानी बुरी आदतों के कारण रुग्ण बनाना प्रकृति की दृष्टि से बड़ा अपराध है। उसके फलस्वरूप पीड़ा, बेचैनी, अशक्ति, अल्पायु, आर्थिक हानि, तिरस्कार जैसे दण्ड भोगने पड़ते हैं।
रुग्णता— बीमारी कहीं बाहर से नहीं आती। विकार तो बाहर से भी प्रविष्ट हो सकते हैं तथा शरीर के अन्दर भी पैदा होते हैं। किन्तु शरीर संस्थान में उन्हें बाहर निकाल फेंकने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। मनुष्य अपने इन्द्रिय असंयम द्वारा जीवनी शक्ति को बुरी तरह नष्ट कर देता है। आहार-विहार के असंयम से शरीर के पाचन तंत्र, रक्त संचार, मस्तिष्क स्नायु संस्थान आदि पर भारी आघात पड़ता है। बार-बार के आघात से वे दुर्बल एवं रोग ग्रस्त होने लग जाते हैं। निर्बल संस्थान अन्दर के विकारों को स्वाभाविक ढंग से बाहर नहीं निकाल पाते, फल स्वरूप वे शरीर में एकत्रित होने लगते हैं तथा अस्वाभाविक ढंग से बाहर निकलने लगते हैं। यही स्थिति बीमारी कहलाती है।
शरीर को निरोगी बनाकर रखना कठिन नहीं है। आहार, श्रम एवं विश्राम का सन्तुलन बिठाकर हर व्यक्ति आरोग्य एवं दीर्घजीवन पा सकता है। दूसरे नियम भी ऐसे नहीं जिसकी जानकारी जन साधारण को न हो सके। उन्हें थोड़े से प्रयास से जाना जा सकता है। आलस्य रहित, श्रमयुक्त व्यवस्थित दिनचर्या का निर्धारण कठिन नहीं है। स्वाद को नहीं— स्वास्थ्य को लक्ष्य करके भोजन की व्यवस्था हर स्थिति में बनायी जानी संभव है। सुपाच्य आहार समुचित मात्रा में ही लेना जरा भी कठिन नहीं है। शरीर को उचित विश्राम देकर हर बार तरोताजा बना लेने के लिए कहीं से कुछ लेने नहीं जाना पड़ता। यह सब हमारी असंयम एवं असन्तुलन की वृत्ति के कारण ही नहीं सध पाता—और हम इस सुर दुर्लभ देह को पाकर भी नर्क जैसी हीन और यातना ग्रस्त स्थिति में पड़े रहते हैं।
शारीरिक आरोग्य के मुख्य आधार आत्म संयम एवं नियमितता ही हैं, इनकी उपेक्षा करके मात्र औषधियों के सहारे आरोग्य लाभ का प्रयास मृगमरीचिका के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर औषधियों का सहारा लाठी की तरह लिया तो जा सकता है, किन्तु चलना तो पैरों से ही पड़ता है। शारीरिक आरोग्य एवं सशक्तता जिस जीवनी शक्ति के ऊपर आधारित है उसे बनाये रखना इन्हीं माध्यमों से सम्भव है।
शरीर को प्रभु मन्दिर की तरह महत्व दें। बचकाने—छिछोरे बनाव शृंगार से उसे दूर रखें। उसे स्वच्छ, स्वस्थ एवं सक्षम बनाना अपना पुण्य कर्तव्य मानें। उपवास द्वारा स्वाद एवं अति आहार की दुष्प्रवृत्तियों पर अधिकार पाने का प्रयास करें। मौन एवं ब्रह्मचर्य साधना द्वारा जीवनी शक्ति क्षीण न होने दें, उसे अन्तर्मुखी बनाने का अभ्यास करें। श्रमशीलता को दिनचर्या में स्थान मिले। जीवन के महत्वपूर्ण क्रमों को नियमितता के शिकंजे में ऐसा कस दिया जाय कि कहीं विश्रृंखलता न आने पाये। थोड़ी-सी तत्परता बरत कर यह सब साधा जाना सम्भव है। ऐसा करके इस शरीर से वे लाभ पाये जा सकते हैं जिनकी संभावना शास्त्रकारों से लेकर वैज्ञानिकों तक ने स्वीकार की है।
शरीर को ईश्वर के पवित्र निवास के रूप में मान्यता देना उचित है। यह तथ्य ध्यान में बना रहे तो शरीर के प्रति निरर्थक मोह ग्रस्तता से बचकर, उसके प्रति कर्तव्यों का संतुलित निर्वाह सम्भव है। मन्दिर में सजने संवारने में भगवान को भुला देना निरी मूर्खता है। किन्तु देवालय को गन्दा, तिरस्कृत, भ्रष्ट, जीर्ण−शीर्ण रखना भी पाप माना जाता है। शरीर रूपी मन्दिर को मनमानी बुरी आदतों के कारण रुग्ण बनाना प्रकृति की दृष्टि से बड़ा अपराध है। उसके फलस्वरूप पीड़ा, बेचैनी, अशक्ति, अल्पायु, आर्थिक हानि, तिरस्कार जैसे दण्ड भोगने पड़ते हैं।
रुग्णता— बीमारी कहीं बाहर से नहीं आती। विकार तो बाहर से भी प्रविष्ट हो सकते हैं तथा शरीर के अन्दर भी पैदा होते हैं। किन्तु शरीर संस्थान में उन्हें बाहर निकाल फेंकने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। मनुष्य अपने इन्द्रिय असंयम द्वारा जीवनी शक्ति को बुरी तरह नष्ट कर देता है। आहार-विहार के असंयम से शरीर के पाचन तंत्र, रक्त संचार, मस्तिष्क स्नायु संस्थान आदि पर भारी आघात पड़ता है। बार-बार के आघात से वे दुर्बल एवं रोग ग्रस्त होने लग जाते हैं। निर्बल संस्थान अन्दर के विकारों को स्वाभाविक ढंग से बाहर नहीं निकाल पाते, फल स्वरूप वे शरीर में एकत्रित होने लगते हैं तथा अस्वाभाविक ढंग से बाहर निकलने लगते हैं। यही स्थिति बीमारी कहलाती है।
शरीर को निरोगी बनाकर रखना कठिन नहीं है। आहार, श्रम एवं विश्राम का सन्तुलन बिठाकर हर व्यक्ति आरोग्य एवं दीर्घजीवन पा सकता है। दूसरे नियम भी ऐसे नहीं जिसकी जानकारी जन साधारण को न हो सके। उन्हें थोड़े से प्रयास से जाना जा सकता है। आलस्य रहित, श्रमयुक्त व्यवस्थित दिनचर्या का निर्धारण कठिन नहीं है। स्वाद को नहीं— स्वास्थ्य को लक्ष्य करके भोजन की व्यवस्था हर स्थिति में बनायी जानी संभव है। सुपाच्य आहार समुचित मात्रा में ही लेना जरा भी कठिन नहीं है। शरीर को उचित विश्राम देकर हर बार तरोताजा बना लेने के लिए कहीं से कुछ लेने नहीं जाना पड़ता। यह सब हमारी असंयम एवं असन्तुलन की वृत्ति के कारण ही नहीं सध पाता—और हम इस सुर दुर्लभ देह को पाकर भी नर्क जैसी हीन और यातना ग्रस्त स्थिति में पड़े रहते हैं।
शारीरिक आरोग्य के मुख्य आधार आत्म संयम एवं नियमितता ही हैं, इनकी उपेक्षा करके मात्र औषधियों के सहारे आरोग्य लाभ का प्रयास मृगमरीचिका के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर औषधियों का सहारा लाठी की तरह लिया तो जा सकता है, किन्तु चलना तो पैरों से ही पड़ता है। शारीरिक आरोग्य एवं सशक्तता जिस जीवनी शक्ति के ऊपर आधारित है उसे बनाये रखना इन्हीं माध्यमों से सम्भव है।
शरीर को प्रभु मन्दिर की तरह महत्व दें। बचकाने—छिछोरे बनाव शृंगार से उसे दूर रखें। उसे स्वच्छ, स्वस्थ एवं सक्षम बनाना अपना पुण्य कर्तव्य मानें। उपवास द्वारा स्वाद एवं अति आहार की दुष्प्रवृत्तियों पर अधिकार पाने का प्रयास करें। मौन एवं ब्रह्मचर्य साधना द्वारा जीवनी शक्ति क्षीण न होने दें, उसे अन्तर्मुखी बनाने का अभ्यास करें। श्रमशीलता को दिनचर्या में स्थान मिले। जीवन के महत्वपूर्ण क्रमों को नियमितता के शिकंजे में ऐसा कस दिया जाय कि कहीं विश्रृंखलता न आने पाये। थोड़ी-सी तत्परता बरत कर यह सब साधा जाना सम्भव है। ऐसा करके इस शरीर से वे लाभ पाये जा सकते हैं जिनकी संभावना शास्त्रकारों से लेकर वैज्ञानिकों तक ने स्वीकार की है।