
हम आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म कर्तव्य मानेंगे।
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युग निर्माण सत्-संकल्प के पहले वाक्य में आस्तिकता एवं कर्तव्य परायणता को अंगीकार करने की बात कही गयी है। उसे मानव जीवन के ‘धर्म कर्तव्य’ के रूप में स्वीकार करने एवं अपनाने की घोषणा की गयी है। धर्म-कर्तव्य यहां किन्हीं सम्प्रदायगत सीमित अर्थों में प्रयुक्त नहीं किया गया है। भारतीय संस्कृति में धर्म बड़ा व्यापक अर्थ रखता है। वह नियम जिन्हें धारण करने से व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण हित साधन होता है, उसे धर्म कहा गया है। ‘धारणात् धर्म इत्याहु’ आदि से यही भाव निकलता है। अन्य परिभाषा में धर्म को लौकिक अभ्युदय एवं आत्मिक उत्कर्ष का आधार कहा गया है। ‘‘यतोभ्युदयः निश्रेयः सिद्धिः सः धर्म’’ वाक्य का यही निष्कर्ष है।
अस्तु धर्म कर्तव्य सामान्य कर्तव्यों से ऊपर वह कर्तव्य है जिनको जीवन में अपनाकर व्यक्ति से लेकर समाज तक और लौकिक से लेकर आत्मिक उत्कर्ष के मार्ग प्रशस्त होते हैं। इसीलिए धर्म कर्तव्यों को कष्ट सहकर भी, विपरीत परिस्थितियों में भी अपनाए रखने का आग्रह शास्त्रों एवं विचारकों द्वारा किया जाता रहा है। नव युग के अवतरण के लिए आस्तिकता एवं कर्तव्य परायणता को पूरी निष्ठा एवं दृढ़ता पूर्वक अपनाये रखने का मर्म यहां उभारा गया है। क्योंकि उसके अभाव में कोई उपयुक्त एवं स्थायी समाधान निकालना सम्भव नहीं है। ईश्वर में आस्था रखे बिना हमारी दुष्प्रवृत्तियां बिना नकेल के ऊंट की तरह, बिना लगाम के घोड़े की तरह, बिना नाथ के बैल की तरह, बिना अंकुश के हाथी की तरह, उच्छृंखलता अनीति और उद्दण्डता की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगती हैं। पानी को ऊंचा चढ़ाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं पर नीचे की ओर तो वह बिना किसी प्रयास के ही बहने लगता है। मन की गति भी पानी के समान है, उसे सत्मार्ग पर चलाना हो तो अत्यधिक श्रमसाध्य साधन प्रयत्न करने पड़ते हैं, पर कुमार्ग की ओर तो वह सहज ही सरपट दौड़ने लगता है। आस्तिकता मन को कुमार्ग पर दौड़ने से रोकने के लिए सबसे बड़ा अंकुश सिद्ध होता है।
पाप को छिपा लेने और राजदण्ड से बचे रहने की अगणित तरकीबें मनुष्य ने ढूंढ़ निकाली हैं। यों अदालत पुलिस, जेल, कचहरी सब कुछ व्यवस्था अपराधों के लिए मौजूद है, पर उनसे बचे रहकर अनीति बरतते रहने की जितनी कुशलता मनुष्य को प्राप्त है उसकी तुलना में राजदण्ड के सारे साधन तुच्छ मालूम पड़ते हैं। रिश्वत को ही लीजिए वह एक बड़ा अपराध माना गया है और उसके लेने एवं देने वाले के लिए कई वर्ष की जेल का विधान है। इतने पर भी अदालतों तक में, पुलिस तक में, जेल तक में रिश्वत कितने प्रचण्ड रूप में मौजूद हैं उसे हर कोई जानता है। अपराधों को रोकने वाले जब अपराध करने से नहीं रुकते तो जन साधारण से तो आशा ही क्या की जाय? डर दिखाते रहने के लिए मर्यादा माध्यम के रूप में यह सब मौजूद है, उसे मौजूद रहना भी चाहिए, पर समस्या का हल इनके द्वारा होने वाला नहीं।
जब तक मनुष्य अपने कर्तव्य धर्म को कठोरता पूर्वक पालन करने के लिए स्वयं ही श्रद्धा और विश्वास पूर्वक कटिबद्ध न होगा तब तक उसे बलात् सन्मार्गगामी बनाया जा सकना कठिन है। अधिनायकवाद के नृशंस आतंक द्वारा कुछ हद तक पापों की रोक-थाम संभव है। चोर के हाथ काट देने और व्यभिचारी का शिर उड़ा देने जैसे आतंकपूर्ण दण्ड लोगों को डरा तो देते हैं, पर जिनके हाथ में ऐसी दण्ड व्यवस्था रहती है वे ही आतंकित जनता से प्रतिरोध के बारे में निश्चिंत होकर स्वयं ही अनीति करने लगते हैं। डिक्टेटरशाही का इतिहास यही बताता है। फिर आतंकित जनता भीरु और कायर बनती है, उसकी आत्मिक स्थिति बहुत दुर्बल होती जाती है जिससे उसके स्वभाव में छोटे-बड़े अनेकों दोष दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व दिन-दिन दीन-हीन बनता चला जाता है। आतंकित लोगों में से महापुरुषों एवं नररत्नों का उत्पन्न होना भी सम्भव नहीं रहता। फिर यह आतंकपूर्ण स्थिति समाप्त होते ही वह दबी हुई अपराधी मनोवृत्ति जब अनेकों गुने भयंकर वेग से विकसित होती है तब उसका रोका जा सकना अतीव कठिन हो जाता है।
सदाचार के ऊपर हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-शान्ति निर्भर रहती है। यह सदाचार तभी निभता है जब उसका उद्गम भीतर से प्रस्फुटित होता हो। बाहरी दबाव कोई क्षणिक परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं पर स्थायी हल तो अन्तःकरण पर ही निर्भर रहेगा। कर्तव्य पालन को मानव जीवन का आदर्श लक्ष्य एवं धर्म मानकर श्रेष्ठ आचरण करने की प्रवृत्ति तभी विकसित हो सकती है, जब मन की कुबुद्धि पर आत्मा के विवेक का नियन्त्रण बना रहे। इस नियंत्रण के वैज्ञानिक स्वरूप को ही आस्तिकता कहते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। हर वस्तु का कोई निर्माता होता है तो इतने विशाल, इतने व्यवस्थित विश्व का कोई निर्माता न हो ऐसा नहीं हो सकता। वह निर्माता धर्म, विवेक और आदर्श से रहित नहीं है। वह हमें जहां अगणित प्रकार की सुख सुविधाएं देता है वहां हमारे कर्मों के भले बुरे परिणामों की भी व्यवस्था करता है। घट-घट वासी सर्वान्तर्यामी भगवान अपने असंख्य नेत्रों से हमारे गुप्त प्रकट कार्यों और विचारों को भली प्रकार जानते हैं। उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों पर निर्भर रहती है। दुख और सुख मिलने का आधार भी यही है। कोई कुकर्मी पाप दण्ड से बच नहीं सकता, कोई सुकर्मी सुख-शान्ति का अधिकारी न बने ऐसा भी नहीं हो सकता। निष्पक्ष न्यायाधीश की भांति परमात्मा हमारे हर भले बुरे कर्मों का प्रतिफल उत्पन्न करता है, जिसे यह विश्वास होगा, उसकी असुरता घटेगी और देवत्व विकसित होगा। कर्मों का फल मिलने में देर तो होती है पर अन्धेर की कोई गुंजाइश नहीं। जिसे यह विश्वास होगा वह दुष्ट दुर्जन नहीं बन सकता। उसके लिए सज्जनता और कर्तव्यशीलता का ही एक मात्र मार्ग अपनाने के लिए रह जाता है।
सच्ची आस्तिकता के प्रभाव से जीवन में सहृदयता, करुणा, स्नेह, ममत्व, नम्रता, निर्भयता, दृढ़ता, सत्साहस जैसे उन गुणों का भी विकास होता है, जिनके आधार पर मनुष्य नर श्रेष्ठ बन सकता है। सन्मार्ग पर बढ़ते हुए भी कई बार मार्ग की कठिनाइयों, प्रतिरोधों को देखकर सामान्य व्यक्ति का मनोबल टूटने लगता है, पैर लड़खड़ाने लगते हैं। आस्तिक व्यक्ति को यह भरोसा रहता है कि सत्कर्म में सहायता करने वाली एक सर्व समर्थ सत्ता हमारे समर्थन में है। इसी आधार पर नगण्य सी शक्ति सामर्थ्य वाले व्यक्तियों द्वारा ऐतिहासिक महत्व के महान कार्य सम्पादित किये जा सके हैं।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आस्तिकता की आवश्यकता को युग निर्माण संकल्प में पहला स्थान दिया गया है। उपासना से हमारा आत्मबल बढ़ता है और कर्तव्य पालन की वह प्रेरणा अनायास ही उत्पन्न होती है। जिसके आधार पर जीवन लक्ष्य की पूर्ति और विश्व-शान्ति के दोनों उद्देश्य पूर्ण होते हैं।
आस्तिकता का महत्व भर स्वीकार कर लेना पर्याप्त नहीं है, वह वृत्ति अपने अन्दर अधिकाधिक पुष्ट और प्रखर बने तभी उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। ईश्वर चिन्तन, पूजा, उपासना आदि का क्रम विवेकपूर्वक बनाने से आस्तिकता की अभिवृद्धि होती रह सकती है। व्यक्तिगत सुख-शान्ति से लेकर सामाजिक प्रगति की ओर अधिक सफलता पूर्वक बढ़ा जा सकता है। व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में संक्षिप्त ही सही किन्तु नियमित एवं सुव्यवस्थित उपासना, ईश्वर चिन्तन को प्रोत्साहन देना, उस क्रम को तत्परता एवं मनोयोग पूर्वक चलाते रहना इसी दृष्टि से बहुत लाभप्रद हो सकता है।
आस्तिकता का प्रतिफल निश्चित रूप से कर्तव्य पालन है। जो आस्तिक कर्तव्य पालन की उपेक्षा करता है और कुछ पूजा पत्री करके मुफ्त में ही ईश्वर से धन वैभव प्राप्त कर लेने या दुष्कर्मों के फल से छुटकारा पाने की बात सोचता है, उसे भोला बहका हुआ, नासमझ या जरूरत से ज्यादा चालाक कह सकते हैं। आस्तिकता की सबसे पहली प्रतिक्रिया अपने कर्तव्य को ईश्वर का आदेश मानकर उस पर चट्टान की तरह अटल बने रहने की प्रेरणा के रूप में परिलक्षित होती है। मनुष्य की कर्तव्य परायणता का स्तर देखकर उसकी आस्तिकता के स्तर का भी अनुमान निश्चित रूप से लगाया जा सकता है।
संसार में कहीं भी असफलता एवं दुर्गति के कारणों की खोज करने पर एक तथ्य सुनिश्चित रूप से मिलेगा—वह यह कि कहीं न कहीं, किसी न किसी के द्वारा निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण ही ऐसा हुआ है। इसी प्रकार कर्तव्यों के ठीक-ठीक निर्धारण एवं पालन से ही प्रगति की संभावनाएं साकार हो सकेंगी। व्यक्तिगत रूप से कर्तव्य पालन की प्रवृत्ति जिसमें जितनी अधिक बढ़ेगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक लोकप्रिय एवं सफल बनता चला जायेगा। ऐसे व्यक्तियों को हर जगह स्नेह, सम्मान एवं सहयोग प्राप्त होता रहता है। फलस्वरूप सीमित साधनों तथा स्वल्प सामर्थ्य से भी वे आश्चर्यजनक प्रगति करते देखे जाते हैं।
आत्मिक स्तर पर तो कर्तव्य परायणता का लाभ अनुपम है। यह उक्ति सौ फीसदी सही है कि ‘‘ईश्वर का प्यार सदाचारी और कर्तव्यपरायण के लिए सुरक्षित रहता है।’’ कर्तव्य परायण व्यक्तियों को जो उच्चस्तरीय आत्म संतोष प्राप्त होता है उसकी समता अन्यत्र कठिन है। अपने ईमान और भगवान के सामने कर्तव्य परायण व्यक्ति की प्रतिष्ठा अद्वितीय होती है। फलतः उसके अन्दर से दिव्य संतोष का ऐसा स्रोत झरता रहता है जिसके आगे सारी उपलब्धियां धूमिल पड़ जाती हैं।
कर्तव्य परायणता का क्षेत्र भी बहुत व्यापक है। मनुष्य जीवन के साथ विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों की लम्बी श्रृंखला जुड़ी है। शरीर के प्रति, मन के प्रति, आत्मा के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति अनेकानेक कर्तव्यों के पालन का उत्तरदायित्व मनुष्य पर आता रहता है। उन सब को समझना अपनाना तथा उनका निर्वाह करना—कर्तव्यपरायणता के अन्तर्गत आता है।
कर्तव्य परायणता की वृत्ति भी सतत साधना से परिष्कृत और विकसित की जा सकती है। अर्थ परायण व्यक्ति धन के लिए और स्वार्थ परायण व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि के लिए जीवन में बड़ी से बड़ी बाजी लगा देता है। कर्तव्य परायणता के साधक को कर्तव्य सिद्धि के लिए कम से कम इस स्तर का साहस पैदा करना चाहिए। इस साधना में जो कर्तव्य हमें सौंपा जाय, जिसे हम स्वीकार कर लें, उसे अपनी आत्मिक प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चलना होता है। सफलता-असफलता, हानि-लाभ, प्रशंसा आलोचना आदि का लेखा-जोखा करने से पूर्व यह देखना होता है कि निर्धारित कर्तव्य पालन में अपनी ओर से कितनी तत्परता बरती जा सकी कितना मनोयोग जुटाया जा सका।
मनुष्य जागने के समय से लेकर सोने के समय तक कर्तव्य साधना में लगा रहता है। अस्तु कर्तव्य परायणता का लेखा-जोखा नित्य लिया जाना चाहिए। प्रातः नींद खुलते ही यह विचार करना चाहिए कि एक परिपूर्ण जीवन है। हमें इस अवधि में सुनिश्चित कर्तव्य पूरे करने हैं। सारे दिन के कर्तव्यों का निर्धारण प्रातःकाल ही करके उठना चाहिए। इससे काम का समय संकल्प-विकल्प में निरर्थक नष्ट नहीं होता। भले ही थोड़े से कर्तव्यों का निर्धारण किया जाय, किन्तु उनको पूरा करने में प्राणपण से जुट जाया जाय। रात्रि में शयन से पूर्व स्वयं से जवाब तलब किया जाय कि जो कर्तव्य प्रातः निर्धारित किये गये थे उन्हें कितने अंशों में पूरा किया जा सका? जहां भूल हुई हो, स्तर घटा हो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित की भी व्यवस्था बनायी जाय। जो कर्तव्य पूरे किए जा सके उनके लिए प्रसन्नता अनुभव करें। कर्तव्य पालन की शक्ति देने के लिए भगवान को हार्दिक धन्यवाद दिया जाय तथा अगले दिन जीवन के अगले चरण में मिलने वाले कर्तव्यों को अधिक तत्परता—अधिक प्रामाणिकता से पूरा कर सकने की क्षमता के लिए प्रार्थना करते हुए शयन किया जाय। यह क्रम आस्तिक बुद्धि एवं कर्तव्य परायणता दोनों के विकास के लिए बड़ा हितकारी सिद्ध होता है।
आत्म गौरव की अनुभूति कर्तव्य परायणता के आधार पर ही की जानी चाहिए। आत्म गौरव का बोध जब कर्तव्य परायणता से जुड़ जाता है तो उसका बढ़ना और स्थायित्व दोनों ही सुनिश्चित हो जाते हैं। इसी प्रकार व्यवहार क्षेत्र में भी कर्तव्य परायणता के आधार पर ही लोगों को सम्मान समर्थन एवं सहयोग दिया जाने लगे तो समाज में उसकी वृद्धि सुनिश्चित है। व्यक्तिगत जीवन में एवं सामाजिक स्तर पर भी कर्तव्य परायणता के विकास के ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए।
अस्तु धर्म कर्तव्य सामान्य कर्तव्यों से ऊपर वह कर्तव्य है जिनको जीवन में अपनाकर व्यक्ति से लेकर समाज तक और लौकिक से लेकर आत्मिक उत्कर्ष के मार्ग प्रशस्त होते हैं। इसीलिए धर्म कर्तव्यों को कष्ट सहकर भी, विपरीत परिस्थितियों में भी अपनाए रखने का आग्रह शास्त्रों एवं विचारकों द्वारा किया जाता रहा है। नव युग के अवतरण के लिए आस्तिकता एवं कर्तव्य परायणता को पूरी निष्ठा एवं दृढ़ता पूर्वक अपनाये रखने का मर्म यहां उभारा गया है। क्योंकि उसके अभाव में कोई उपयुक्त एवं स्थायी समाधान निकालना सम्भव नहीं है। ईश्वर में आस्था रखे बिना हमारी दुष्प्रवृत्तियां बिना नकेल के ऊंट की तरह, बिना लगाम के घोड़े की तरह, बिना नाथ के बैल की तरह, बिना अंकुश के हाथी की तरह, उच्छृंखलता अनीति और उद्दण्डता की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगती हैं। पानी को ऊंचा चढ़ाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं पर नीचे की ओर तो वह बिना किसी प्रयास के ही बहने लगता है। मन की गति भी पानी के समान है, उसे सत्मार्ग पर चलाना हो तो अत्यधिक श्रमसाध्य साधन प्रयत्न करने पड़ते हैं, पर कुमार्ग की ओर तो वह सहज ही सरपट दौड़ने लगता है। आस्तिकता मन को कुमार्ग पर दौड़ने से रोकने के लिए सबसे बड़ा अंकुश सिद्ध होता है।
पाप को छिपा लेने और राजदण्ड से बचे रहने की अगणित तरकीबें मनुष्य ने ढूंढ़ निकाली हैं। यों अदालत पुलिस, जेल, कचहरी सब कुछ व्यवस्था अपराधों के लिए मौजूद है, पर उनसे बचे रहकर अनीति बरतते रहने की जितनी कुशलता मनुष्य को प्राप्त है उसकी तुलना में राजदण्ड के सारे साधन तुच्छ मालूम पड़ते हैं। रिश्वत को ही लीजिए वह एक बड़ा अपराध माना गया है और उसके लेने एवं देने वाले के लिए कई वर्ष की जेल का विधान है। इतने पर भी अदालतों तक में, पुलिस तक में, जेल तक में रिश्वत कितने प्रचण्ड रूप में मौजूद हैं उसे हर कोई जानता है। अपराधों को रोकने वाले जब अपराध करने से नहीं रुकते तो जन साधारण से तो आशा ही क्या की जाय? डर दिखाते रहने के लिए मर्यादा माध्यम के रूप में यह सब मौजूद है, उसे मौजूद रहना भी चाहिए, पर समस्या का हल इनके द्वारा होने वाला नहीं।
जब तक मनुष्य अपने कर्तव्य धर्म को कठोरता पूर्वक पालन करने के लिए स्वयं ही श्रद्धा और विश्वास पूर्वक कटिबद्ध न होगा तब तक उसे बलात् सन्मार्गगामी बनाया जा सकना कठिन है। अधिनायकवाद के नृशंस आतंक द्वारा कुछ हद तक पापों की रोक-थाम संभव है। चोर के हाथ काट देने और व्यभिचारी का शिर उड़ा देने जैसे आतंकपूर्ण दण्ड लोगों को डरा तो देते हैं, पर जिनके हाथ में ऐसी दण्ड व्यवस्था रहती है वे ही आतंकित जनता से प्रतिरोध के बारे में निश्चिंत होकर स्वयं ही अनीति करने लगते हैं। डिक्टेटरशाही का इतिहास यही बताता है। फिर आतंकित जनता भीरु और कायर बनती है, उसकी आत्मिक स्थिति बहुत दुर्बल होती जाती है जिससे उसके स्वभाव में छोटे-बड़े अनेकों दोष दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व दिन-दिन दीन-हीन बनता चला जाता है। आतंकित लोगों में से महापुरुषों एवं नररत्नों का उत्पन्न होना भी सम्भव नहीं रहता। फिर यह आतंकपूर्ण स्थिति समाप्त होते ही वह दबी हुई अपराधी मनोवृत्ति जब अनेकों गुने भयंकर वेग से विकसित होती है तब उसका रोका जा सकना अतीव कठिन हो जाता है।
सदाचार के ऊपर हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-शान्ति निर्भर रहती है। यह सदाचार तभी निभता है जब उसका उद्गम भीतर से प्रस्फुटित होता हो। बाहरी दबाव कोई क्षणिक परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं पर स्थायी हल तो अन्तःकरण पर ही निर्भर रहेगा। कर्तव्य पालन को मानव जीवन का आदर्श लक्ष्य एवं धर्म मानकर श्रेष्ठ आचरण करने की प्रवृत्ति तभी विकसित हो सकती है, जब मन की कुबुद्धि पर आत्मा के विवेक का नियन्त्रण बना रहे। इस नियंत्रण के वैज्ञानिक स्वरूप को ही आस्तिकता कहते हैं।
ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। हर वस्तु का कोई निर्माता होता है तो इतने विशाल, इतने व्यवस्थित विश्व का कोई निर्माता न हो ऐसा नहीं हो सकता। वह निर्माता धर्म, विवेक और आदर्श से रहित नहीं है। वह हमें जहां अगणित प्रकार की सुख सुविधाएं देता है वहां हमारे कर्मों के भले बुरे परिणामों की भी व्यवस्था करता है। घट-घट वासी सर्वान्तर्यामी भगवान अपने असंख्य नेत्रों से हमारे गुप्त प्रकट कार्यों और विचारों को भली प्रकार जानते हैं। उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों पर निर्भर रहती है। दुख और सुख मिलने का आधार भी यही है। कोई कुकर्मी पाप दण्ड से बच नहीं सकता, कोई सुकर्मी सुख-शान्ति का अधिकारी न बने ऐसा भी नहीं हो सकता। निष्पक्ष न्यायाधीश की भांति परमात्मा हमारे हर भले बुरे कर्मों का प्रतिफल उत्पन्न करता है, जिसे यह विश्वास होगा, उसकी असुरता घटेगी और देवत्व विकसित होगा। कर्मों का फल मिलने में देर तो होती है पर अन्धेर की कोई गुंजाइश नहीं। जिसे यह विश्वास होगा वह दुष्ट दुर्जन नहीं बन सकता। उसके लिए सज्जनता और कर्तव्यशीलता का ही एक मात्र मार्ग अपनाने के लिए रह जाता है।
सच्ची आस्तिकता के प्रभाव से जीवन में सहृदयता, करुणा, स्नेह, ममत्व, नम्रता, निर्भयता, दृढ़ता, सत्साहस जैसे उन गुणों का भी विकास होता है, जिनके आधार पर मनुष्य नर श्रेष्ठ बन सकता है। सन्मार्ग पर बढ़ते हुए भी कई बार मार्ग की कठिनाइयों, प्रतिरोधों को देखकर सामान्य व्यक्ति का मनोबल टूटने लगता है, पैर लड़खड़ाने लगते हैं। आस्तिक व्यक्ति को यह भरोसा रहता है कि सत्कर्म में सहायता करने वाली एक सर्व समर्थ सत्ता हमारे समर्थन में है। इसी आधार पर नगण्य सी शक्ति सामर्थ्य वाले व्यक्तियों द्वारा ऐतिहासिक महत्व के महान कार्य सम्पादित किये जा सके हैं।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आस्तिकता की आवश्यकता को युग निर्माण संकल्प में पहला स्थान दिया गया है। उपासना से हमारा आत्मबल बढ़ता है और कर्तव्य पालन की वह प्रेरणा अनायास ही उत्पन्न होती है। जिसके आधार पर जीवन लक्ष्य की पूर्ति और विश्व-शान्ति के दोनों उद्देश्य पूर्ण होते हैं।
आस्तिकता का महत्व भर स्वीकार कर लेना पर्याप्त नहीं है, वह वृत्ति अपने अन्दर अधिकाधिक पुष्ट और प्रखर बने तभी उसका समुचित लाभ उठाया जा सकता है। ईश्वर चिन्तन, पूजा, उपासना आदि का क्रम विवेकपूर्वक बनाने से आस्तिकता की अभिवृद्धि होती रह सकती है। व्यक्तिगत सुख-शान्ति से लेकर सामाजिक प्रगति की ओर अधिक सफलता पूर्वक बढ़ा जा सकता है। व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में संक्षिप्त ही सही किन्तु नियमित एवं सुव्यवस्थित उपासना, ईश्वर चिन्तन को प्रोत्साहन देना, उस क्रम को तत्परता एवं मनोयोग पूर्वक चलाते रहना इसी दृष्टि से बहुत लाभप्रद हो सकता है।
आस्तिकता का प्रतिफल निश्चित रूप से कर्तव्य पालन है। जो आस्तिक कर्तव्य पालन की उपेक्षा करता है और कुछ पूजा पत्री करके मुफ्त में ही ईश्वर से धन वैभव प्राप्त कर लेने या दुष्कर्मों के फल से छुटकारा पाने की बात सोचता है, उसे भोला बहका हुआ, नासमझ या जरूरत से ज्यादा चालाक कह सकते हैं। आस्तिकता की सबसे पहली प्रतिक्रिया अपने कर्तव्य को ईश्वर का आदेश मानकर उस पर चट्टान की तरह अटल बने रहने की प्रेरणा के रूप में परिलक्षित होती है। मनुष्य की कर्तव्य परायणता का स्तर देखकर उसकी आस्तिकता के स्तर का भी अनुमान निश्चित रूप से लगाया जा सकता है।
संसार में कहीं भी असफलता एवं दुर्गति के कारणों की खोज करने पर एक तथ्य सुनिश्चित रूप से मिलेगा—वह यह कि कहीं न कहीं, किसी न किसी के द्वारा निर्धारित कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण ही ऐसा हुआ है। इसी प्रकार कर्तव्यों के ठीक-ठीक निर्धारण एवं पालन से ही प्रगति की संभावनाएं साकार हो सकेंगी। व्यक्तिगत रूप से कर्तव्य पालन की प्रवृत्ति जिसमें जितनी अधिक बढ़ेगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक लोकप्रिय एवं सफल बनता चला जायेगा। ऐसे व्यक्तियों को हर जगह स्नेह, सम्मान एवं सहयोग प्राप्त होता रहता है। फलस्वरूप सीमित साधनों तथा स्वल्प सामर्थ्य से भी वे आश्चर्यजनक प्रगति करते देखे जाते हैं।
आत्मिक स्तर पर तो कर्तव्य परायणता का लाभ अनुपम है। यह उक्ति सौ फीसदी सही है कि ‘‘ईश्वर का प्यार सदाचारी और कर्तव्यपरायण के लिए सुरक्षित रहता है।’’ कर्तव्य परायण व्यक्तियों को जो उच्चस्तरीय आत्म संतोष प्राप्त होता है उसकी समता अन्यत्र कठिन है। अपने ईमान और भगवान के सामने कर्तव्य परायण व्यक्ति की प्रतिष्ठा अद्वितीय होती है। फलतः उसके अन्दर से दिव्य संतोष का ऐसा स्रोत झरता रहता है जिसके आगे सारी उपलब्धियां धूमिल पड़ जाती हैं।
कर्तव्य परायणता का क्षेत्र भी बहुत व्यापक है। मनुष्य जीवन के साथ विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों की लम्बी श्रृंखला जुड़ी है। शरीर के प्रति, मन के प्रति, आत्मा के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति अनेकानेक कर्तव्यों के पालन का उत्तरदायित्व मनुष्य पर आता रहता है। उन सब को समझना अपनाना तथा उनका निर्वाह करना—कर्तव्यपरायणता के अन्तर्गत आता है।
कर्तव्य परायणता की वृत्ति भी सतत साधना से परिष्कृत और विकसित की जा सकती है। अर्थ परायण व्यक्ति धन के लिए और स्वार्थ परायण व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि के लिए जीवन में बड़ी से बड़ी बाजी लगा देता है। कर्तव्य परायणता के साधक को कर्तव्य सिद्धि के लिए कम से कम इस स्तर का साहस पैदा करना चाहिए। इस साधना में जो कर्तव्य हमें सौंपा जाय, जिसे हम स्वीकार कर लें, उसे अपनी आत्मिक प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चलना होता है। सफलता-असफलता, हानि-लाभ, प्रशंसा आलोचना आदि का लेखा-जोखा करने से पूर्व यह देखना होता है कि निर्धारित कर्तव्य पालन में अपनी ओर से कितनी तत्परता बरती जा सकी कितना मनोयोग जुटाया जा सका।
मनुष्य जागने के समय से लेकर सोने के समय तक कर्तव्य साधना में लगा रहता है। अस्तु कर्तव्य परायणता का लेखा-जोखा नित्य लिया जाना चाहिए। प्रातः नींद खुलते ही यह विचार करना चाहिए कि एक परिपूर्ण जीवन है। हमें इस अवधि में सुनिश्चित कर्तव्य पूरे करने हैं। सारे दिन के कर्तव्यों का निर्धारण प्रातःकाल ही करके उठना चाहिए। इससे काम का समय संकल्प-विकल्प में निरर्थक नष्ट नहीं होता। भले ही थोड़े से कर्तव्यों का निर्धारण किया जाय, किन्तु उनको पूरा करने में प्राणपण से जुट जाया जाय। रात्रि में शयन से पूर्व स्वयं से जवाब तलब किया जाय कि जो कर्तव्य प्रातः निर्धारित किये गये थे उन्हें कितने अंशों में पूरा किया जा सका? जहां भूल हुई हो, स्तर घटा हो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित की भी व्यवस्था बनायी जाय। जो कर्तव्य पूरे किए जा सके उनके लिए प्रसन्नता अनुभव करें। कर्तव्य पालन की शक्ति देने के लिए भगवान को हार्दिक धन्यवाद दिया जाय तथा अगले दिन जीवन के अगले चरण में मिलने वाले कर्तव्यों को अधिक तत्परता—अधिक प्रामाणिकता से पूरा कर सकने की क्षमता के लिए प्रार्थना करते हुए शयन किया जाय। यह क्रम आस्तिक बुद्धि एवं कर्तव्य परायणता दोनों के विकास के लिए बड़ा हितकारी सिद्ध होता है।
आत्म गौरव की अनुभूति कर्तव्य परायणता के आधार पर ही की जानी चाहिए। आत्म गौरव का बोध जब कर्तव्य परायणता से जुड़ जाता है तो उसका बढ़ना और स्थायित्व दोनों ही सुनिश्चित हो जाते हैं। इसी प्रकार व्यवहार क्षेत्र में भी कर्तव्य परायणता के आधार पर ही लोगों को सम्मान समर्थन एवं सहयोग दिया जाने लगे तो समाज में उसकी वृद्धि सुनिश्चित है। व्यक्तिगत जीवन में एवं सामाजिक स्तर पर भी कर्तव्य परायणता के विकास के ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए।