
छिद्रान्वेषण की दुष्प्रवृत्ति
छिद्रान्वेषण की वृत्ति अपने अन्दर हो तो संसार के सभी मनुष्य दुष्ट दुराचारी दिखाई देंगे। ढूँढ़ने पर दोष तो भगवान में भी मिल सकते है, न हों तो थोपे जा सकते हैं। कोई हानि होने या आपत्ति आने पर लोग करने भी हैं। कई तो अपने ऊपर आई हुई आपत्ति का कारण तक पूजा को मान लेते हैं और उसी पर सारा दोष थोपकर छोड़कर अलग हो जाते हैं। मनुष्यों में दोष ढूँढ़ते रहने पर तो उनमें असंख्य दोष निकाले या सोचे जा सकते हैं। ऐसी छिद्रान्वेषी प्रकृति के लोगों को सारी दुनियाँ बुराइयों से भरी हुई दुष्ट दुराचारी और अपने प्रति शत्रुता रखने वाली दिखाई देती हैं। उन्हें अपने चारों ओर नारकीय वातावरण दृष्टिगोचर होता है। निन्दा और आलोचना के अतिरिक्त कभी किसी के प्रति अच्छे भाव वे प्रकट ही नहीं कर पाते किसी की प्रशंसा उनके मुख से निकलती ही नहीं। ऐसे लोग अपनी इस क्षुद्रता के कारण ही सब के बुरे बने रहते हैं।
पीठ पीछे की हुई निन्दा नमक-मिर्च मिलकर उस आदमी के पास जा पहुँचती है जिसके बारे में बुरा अभिमत प्रकट किया गया था। आमतौर पर सुनने वाले लोग अपनी विशेषता प्रकट करने के लिए उस सुनी हुई बुराई को उस तक पहुँचा देते हैं जिसके संबंध में कटु अभिमत प्रकट किया गया था ऐसी दशा में वह भी प्रतिरोध की भावना में शत्रुता का ही रुख धारण करता है और धीरे−धीरे उसके विरोधी एवं शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है। रूठे बैठे रहने वाले, मुँह फुलाकर बात करने वाले, भौहें बढ़ाये रहने वाले और कर्कश स्वर में बोलने वाले व्यक्ति किसी के मन में अपने लिए आदर भाव प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें बदले में द्वेष, घृणा, विरोध ही उपलब्ध होते हैं। अपना मन हर घड़ी खिन्न, संतप्त और क्षुभित रहता है उसकी जलन से होने वाले शारीरिक एवं मानसिक दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जून 1962