पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं श्री वल्लभाचार्य- डॉ चिन्मय पण्ड्या
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं श्री वल्लभाचार्य- डॉ चिन्मय पण्ड्या
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं श्री वल्लभाचार्य-डॉ चिन्मय पण्ड्या
महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के कुल में सौ सोमयज्ञ के उपरांत वल्लभाचार्य जी का अवतरण हुआ। उनका जन्म दक्षिण के उत्तरादि (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर में) तैलंग ब्राह्मण परिवार में पिता लक्ष्मण भट्ट और माता श्रीइलम्मा के घर द्वितीय पुत्र के रूप में विक्रम संवत १५३५ में हुआ। भागवत प्रेमियों और सुसंस्कारित परिवार के बीच इनका बचपन बीता। काशी के प्रकाण्ड विद्वान श्री माधवेन्द्र पुरी से वेदशास्त्र आदि अध्ययन मात्र ११ वर्ष की आयु में पूरी कर ली।
वेदांत के सम्प्रदायों में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का सम्प्रदाय अपनी एक अलग विशेषता रखता है। वल्लभाचार्य जी ने एक विशेष सिद्धांतों को नींव पर रखकर वैष्णव सम्प्रदाय का भवन खड़ा किया। उन्होंने वेदांत सूत्रों को लेकर अणुभाष्य किया और श्रीमद्भागवतगीता को लेकर सुबोधिनी तथा अनेक ग्रंथों एवं सूत्रों की रचना कर शुद्धाद्वैत के सिद्धांतों की व्याख्या की। भक्ति सम्प्रदाय में इनको पुष्टिमार्ग के नाम से जानते हैं।
उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि प्रभु की भक्ति तब पूरी होती है, जब साधक का तन, मन, धन और हृदय उनमें समर्पित हों। अर्थात पूर्ण समर्पण के साथ प्रभु की भक्ति करने से ही ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति होती है। उन्होंने वृन्दावन में रहकर भगवान श्रीकृष्ण की बालस्वरूप का प्रेममयी आराधना की। इनकी अष्टयाम सेवा बड़ी ही सुन्दर है, इसमें माधुर्यभाव का विवरण है। कहा जाता है कि उनकी श्रद्धा भक्ति से प्रसन्न हो भगवान ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि जो भी भक्त मेरी भक्ति मेरे अनुशासनों का पालन करते हुए अंतर्मन से करेगा, उसके साथ मैं सदैव रहूंगा। गृहस्थाश्रम में रहते हुए वल्लभाचार्य जी ने भगवान श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप का वात्सल्यभाव से उपासना किया। वल्लभाचार्य जी की भक्ति और व्यक्तित्व का लोगों पर इतना विलक्षण प्रभाव पड़ा कि अनेकानेक लोगों ने भी श्रीकृष्ण के बालस्वरूप के प्रेमी बन गये और प्रभु श्रीकृष्ण के बालस्वरूप का पूजन भावनापूर्वक करते हैं।
भक्तिकाल के कवि सूरदास जी को प्रभु की लीलाओं से परिचित करवाया और उन्हें लीलागान के लिए प्रेरित किया, जिसके कारण आज हम लीलाधर श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित हैं। उन्होंने अनेक भाष्य, ग्रंथ, नामावलियां, स्तोत्र आदि की रचना की है। उनकी प्रमुख सोलह रचनाओं को षोडष ग्रंथ के नाम से जाना जाता है। इनमें हैं- यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धांत मुक्तावली, पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, सिद्धांत रहस्य, नवरत्न स्तोत्र, अंतःकरण प्रबोध, विवेक धैर्याश्रय, श्री कृष्णाश्रय, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पञ्चपद्यानि, संन्यास निर्णय, निरोध लक्षण, सेवाफल आदि।
जब भी भक्ति या अध्यात्म की बात होती है तो याद आती है भारत में भक्ति की अविरल धाराओं की शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, आचार्य निंबार्क और वल्लभाचार्य से लेकर अभी तक नए-पुराने रूपों में बहती चली आ रही हैं। वल्लभाचार्य कृष्ण भक्ति शाखा के वह आधारस्तंभ हैं, इन्होंने साधना के लिए पुष्टिमार्ग से परिचित करवाया, जिन्होंने सूरदास को पुष्टिमार्ग का जहाज बनाया। पुष्टिमार्ग के इस प्रवर्तक ने सम्पूर्ण समाज को भक्ति मार्ग में चलने के लिए प्रेरित किया और मानव जीवन को प्रभु के शरण में तल्लीन करने के लिए मार्गदर्शन किया। वर्तमान समय में जिस तरह मानवों में वैचारिक दुष्प्रवृत्तियां पनपी है, इसका एक मात्र कारण ईश्वर के बनाये आदर्शों से विमुख होना है।
लेखक- देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति व प्राच्य विद्या के विशेषज्ञ हैं।
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