
विपत्ति धर्म
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कुरु देश में उस वर्ष बड़ी भयंकर उपल वृष्टि हुई थी। ओलों ने सारी फसल को नष्ट कर दिया था। सारी खेती चौपट हो गई, किसानों के घर में अन्न का दाना न रहा। लोगों का धैर्य टूट गया। भयंकर दुर्भिक्ष के मारे असंख्य पशु मर चुके थे। मनुष्य अपने प्राण बचाने के लिए दूर देशों को भागने लगे।
धर्माचार्य चक्र के पुत्र उपस्ति के सामने भी यही समस्या उपस्थित थी। जब उन्हें अन्न प्राप्त होने का कोई उपाय न मिल सका तो अन्य सहस्रों नर-नारियों की भाँति वह भी देश छोड़कर धर्मपत्नी आटिकी के साथ चल दिये। इधर-उधर भटकते-भटकते एक अन्तजों के ग्राम में जा पहुँचे। उस समय भूख के मारे उनके प्राण निकले जा रहे थे, क्षुधा की ज्वाला से समस्त शरीर जला जा रहा था।
ऐसे समय में उन्होंने ग्राम में भीतर प्रवेश किया तो देखा कि एक अंत्यज उबले हुये उर्द चबा रहा है। उन्हें देखकर उपस्ति के मुँह में पानी भर आया और वे अन्त्यज से उर्द माँगने लगे।
अन्त्यज ने कहा - जिन्हें मैं खा रहा हूँ उन झूठे उर्दों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। तब में आपको कहाँ से दूँ? उपस्ति ने उत्तर दिया - मुझे इनमें से ही थोड़े से दे दो। उसने ऋषि की इच्छानुसार झूठे उरदों में से कुछ दे दिये उन्हें खाकर उन्होंने अपनी क्षुधा बुझाई।
जब वे भोजन कर चुके और शरीर सुस्थिर हुआ तो अन्त्यज ने जल भरा पात्र भी उनके सामने उपस्थित किया और नम्रता पूर्वक प्रार्थना की भगवन्! लीजिये यह जल भी ग्रहण कीजिये। किन्तु ऋषि ने उसकी इस प्रार्थना को स्वीकार न किया और जल पीने से इनकार कर दिया।
अन्त्यज को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा “जब आप मेरे झूठे उरद खा चुके हैं तो जल पीने में क्यों आपत्ति करते हैं?”
ऋषि ने कहा-वह विपत्ति धर्म था। विपत्ति धर्म विपत्ति के समय के लिए होता है सदा के लिये मर्यादित धर्म का पालन करना होता है। जब आपत्ति थी तब झूठा अन्न खाया गया किन्तु अब जल तो अपनी इच्छानुसार अन्यत्र भी प्राप्त कर सकता हूँ , इसलिये विपत्ति धर्म पालन करने की आवश्यकता नहीं।”
आज प्रश्न उपस्थित होता है कि जब हिन्दू जाति पर चारों ओर से संकट की घटायें आ रही है और जाति तथा धर्म का नाम ही मिटना चाहता है तब क्या किसी विपत्ति धर्म का आविर्भाव नहीं किया जा सकता ? जब सारे राष्ट्र का ही सर्वनाश उपस्थित हो रहा है तब भी क्या कुछ मजहबी परंपराओं को ढीला न करने की जिद पर हमें अड़ा रहना चाहिये?
इतिहास महर्षि उपस्ति के शब्दों में कहता है कि ‘नहीं’। -उपनिषद् के आधार पर