
नास्तिक मत कैसे चला?
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(ले॰ श्री हरप्रसाद कपूर)
एक बार देवतागण असुरों के अत्याचार से बड़े दुखी हुए। बल से जब उन्हें परास्त न कर सके तो कोई चाल ढूँढ़ने लगे। अपनी चिन्ता को लेकर वे गुरु बृहस्पति के पास पहुँचे और अपनी सारी दुख कथा कह सुनाई और प्रार्थना की कि कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे असुर अपने आप नष्ट हो जाएं। लड़ कर तो वह हमसे जीते नहीं जाते।
देवाचार्य गुरु को राजनीति से काम लेना पड़ा। उन्होंने कहा- मैं असुरों में उलटा ज्ञान फैलाऊंगा जिससे वे पथ-भ्रष्ट होकर अपने आप दुर्गति को प्राप्त होंगे। देवताओं के मुख पर प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई।
गुरु बृहस्पति ने अपना रूप बदला और अपना चार्वाक नाम रखकर अनीश्वरवाद का प्रचार करने लगे। उन्होंने इस मिथ्या सिद्धाँत के समर्थन में बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना कर डाली। देवता लोग छल वेष धारण कर असुरों में नास्तिक मत का प्रचार करने लगे। उन्होंने सिद्ध किया कि- ‘यह शरीर ही ब्रह्म। अन्न रूपी ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण देह ही आत्मा है। इसलिये सब प्रकार से देह को सुख देना चाहिये। खाना, पीना और मौज उड़ाना ही असली धर्म है। शरीर ही आत्मा और ब्रह्म है’।
देवताओं से टक्कर लेने वाले असुर भी बिलकुल मूर्ख न थे। उनकी समझ में यह सिद्धाँत नहीं आया। एक असुर ने मरा हुआ कुत्ता लाकर चार्वाक के ऊपर ला पटका और कहा ‘क्या यही तुम्हारा ब्रह्म है?’
चार्वाक मुनि को इस पर बड़ा क्रोध आया। सड़ा हुआ कुत्ता ऊपर गिरने से उनका तमाम शरीर अपवित्र हो गया, पर कहते क्या? उनके पास कोई उत्तर न था।
दुबारा उन्होंने सिद्धाँत स्थिर किया कि ‘मृत देह ब्रह्म नहीं है। जीवित शरीर ब्रह्म है।’ इस पर भी असुरों को संतोष नहीं हुआ। उनमें एक जीवित कुत्ते का बच्चा ले आया और चार्वाक के मुँह से उसका मुँह सटा दिया। वे फिर क्रोधित हुए पर कहते क्या ? देह धारी ब्रह्म के मुँह चाट लेने पर क्या अनर्थ बताते?
तीसरी बार उन्होंने कहा ‘शरीर में प्राण वायु है जिनमें प्राणमय कोश है, यही ब्रह्म है। ‘तब एक असुर ने चार्वाक के मुँह के पास अपना मुँह ले जाकर बड़े जोर से फूँक मारी। इससे भी वे क्रुद्ध हुये पर अपने ही मत का खंडन कैसे करते?
चौथी बार उन्होंने बताया कि शरीर में मन है। जिसे मनोमय कोष कहते हैं। वही ब्रह्म है। ‘उस समय तो किसने कुछ नहीं कहा पर जब रात्रि के समय चार्वाक सोने चला गया तो असुरों ने बहुत सी लकड़ियाँ जलानी शुरू कर दी। इस पर चार्वाक को कुछ आशंका हुई। उन्होंने कहा- यह क्या करते हो? असुरों ने कहा भगवन्। सुप्तावस्था में मन के लय हो जाता है इसलिए जब आप सो जावेंगे तब आपके अग्नि से जला दिया जायगा। इतना सुनना था कि गुरु पोथी- पत्रा लेकर उलटे पैर भाग आये।
अब की बार उन्होंने अपने सिद्धांतों को खूब परिशोधित किया और उसमें जहाँ कहीं शंका-सन्देह थे उनका बड़ा बुद्धिपूर्वक समाधान तैयार किया। अब की बार उन्होंने यह सिद्धाँत तय किया कि ‘शरीर का आनन्दमय क्रोध ब्रह्म और शरीर आत्मा है। इसलिये इन्हीं की पूजा में दत्त-चित्त रहना धर्म है।’
इतने अपमानों के बाद घोर पराक्रम के साथ देवाचार्य ने जो कूटनीति के साथ मत निर्धारित किया था, वह अब की बार व्यर्थ न गया, बहुत असुर उस भ्रम में पड़ गये और नास्तिक मत के अनुयायी हो गये। चारों ओर चलने वाली हवा में जिस प्रकार बादल इधर-उधर उड़ता हुआ नष्ट हो जाता है, वही बात ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व न मानने पर होती है, इसे देवाचार्य भली भाँति जानते थे।
हुआ भी ऐसा ही। नास्तिकों को एक मात्र उद्देश्य शरीर का पोषण और इन्द्रियों को तृप्ति करना बन गया प्रज्ज्वलित भोगाकाँक्षा में जल-जलकर असुर कुछ ही दिन में अपने आप विनष्ट हो गए।
आज भी उस चार्वाक मत को प्रकट या गुप्त रूप से अनेक मनुष्य मानते हैं और अनेक प्रचारक उसका प्रचार करते हैं। मालूम नहीं भ्रम के कारण यह सब हो रहा है परमात्मा को उस पूर्व कथा की पुनरावृत्ति करानी मंजूर है।