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Magazine - Year 1941 - Version 2

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विचार वल से दीर्घ जीवन

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(ले॰-प्रो॰ के॰ पी॰ टण्डन, फैजाबाद)

दीर्घजीवी बनने के लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि अपने अन्दर इस बात की हार्दिक इच्छा उत्पन्न की जाए कि आयु बढ़े। वैसे तो प्रत्येक स्त्री व पुरुष की अभिलाषा अधिक से अधिक समय तक जीवित रहने की हुआ करती है किन्तु जिस अभिलाषा को मैं उत्पन्न कराना चाहता हूँ वह विचार बल तथा मनोबल से मिश्रित इच्छा-शक्ति से तात्पर्य रखती है। इसकी सरल युक्ति यह है कि जब जब अवकाश मिले अपने अन्तःकरण से इस बात की दृढ़ धारणा करो कि तुम चिरकाल तक युवा बने रहोगे और तुम्हारा स्वास्थ्य कभी भी ढीला नहीं पड़ सकता । ऐसी चिन्ता करने से तुम्हारे अन्दर उत्साह और शक्ति का प्रकाश होगा और उसे तुम स्वयं अनुभव कर सकोगे। इसके अतिरिक्त प्रकृति के नियमों का भी पालन करो। बुरी संगत से बचे रहो। गन्दे उपन्यास, सफरी सरकस व रंगीले चित्रों से भी घृणा करो। यह भी मालूम रहना चाहिये कि स्वास्थ्य में बाधा डालने वाले शत्रु यह हैं काम,क्रोध,द्वेष,दोष ढूँढ़ना, भ्रम, लापरवाही, किसी बात का सख्त विरोध करना, दूसरों को बुरी बात कहना । क्योंकि इससे दूसरे की आत्मा को दुख पहुँचता है और आत्मा का दुखाना पाप है।

किसी क्षण भी ऐसा कोई कार्य न किया जाये जिससे दूसरे की बुराई हो। जितने भी द्वेष या भ्रम के भाव हों वे पास न फटकने चाहिये। दूसरे से बदला लेने का विचार हृदय में बिलकुल नहीं आने देना चाहिये। क्योंकि ऐसा विचार होने से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है और गर्मी शरीर को किसी कदर क्षीण बनाती है। इस बात पर पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि विचार ही आत्मा की शक्ति है। और विचार बल से ही एक मरता हुआ आदमी भी जिन्दा रह सकता है।

प्राचीनकाल में एक कहावत थी कि ‘बुरे भाव जिसके हों उसका जीवन आधा होता है’ यह बात बिल्कुल ठीक ही है। कामी पुरुष जिन्होंने भोग का खूब आनन्द लिया करोड़ों की संख्या में बहुत शीघ्र मृत्यु की गोद में जा बैठे हैं। आनन्द की और मृत्यु की तो सदा बाजी रही और रहेगी और इस बाजी का दूसरा नाम ही मौत है। बड़े-बड़े पुरुषोक्त पुरुषों के भी शत्रु रहे और तुम्हारे भी होंगे किन्तु तुम्हें चाहिये कि महान पुरुषों की भाँति तुम उन्हें क्षमादान दो। इससे तुम्हारी आत्मा को अत्यन्त शांति मिलेगी । और जब तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिलेगी तो उसके फल स्वरूप आयु की वृद्धि होगी । तुम हमेशा अपने दिल में ऐसे भाव उत्पन्न करो कि संसार में मैं किसी का भी शत्रु नहीं हूँ और मेरा जीवन शान्ति से भरपूर है। मेरे हृदय के अन्दर किसी के प्रति घृणा व द्वेष के भाव नहीं उत्पन्न हो सकते । मैं सब से प्रेम करता हूँ और सब का मैं मित्र हूँ। प्रत्येक मनुष्य भला है । इन्हीं विचारों का अनुभव करो तब तुम्हें शान्ति की ज्वाला के दर्शन होंगे और अमरत्व प्राप्त होगा।

प्रयत्न करो कि तुम स्वास्थ्य पुरुषकर को प्राप्त कर सको। प्रकृति के नियमों को पहचानो और उन्हीं के अनुसार आचरण रक्खो। रोज कुछ देर तक शान्त चित्त हो कर यह सोचो कि तुम सर्वदा स्वस्थ रहोगे। रोग तुम्हारे पास तक न आ सकेगा। अपनी आत्मा का शरीर के साथ घना सम्बन्ध समझो। याद रक्खो कि स्वास्थ्य ही जीवन का मुख्य आधार है। इच्छा-शक्ति बढ़ाओ। आशा रूपी लता को फैलाओ और पूर्ण विश्वासी बनो।

प्रत्येक के प्रति दान व दया के भाव रक्खो अपनी इन्द्रियों को वश में रक्खो। पेट की ज्वाला को भी शान्त रक्खो और हल्का भोजन करो। अपने अन्दर शान्ति की उत्पत्ति करो और आत्मिक बल बढ़ाओं। स्वास्थ्य से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थ जैसे भोजन, हवा पानी, वस्त्र आदि स्वच्छ हों। निद्रा काफी हो। इत्यादि । इन पर ध्यान देते हुए अपने स्वास्थ्य और जीवन की यात्रा को दूर तक तय करने की कोशिश करो। रोज ईश्वर से अपने स्वास्थ्य और जीवन के लिये प्रार्थना करो और अपने अपराधों की क्षमा माँगते रहो। इस प्रकार तुम्हारा जीवन शान्तिमय होने से अवश्य दीर्घजीवी बन जाएगा और एक शताब्दी तक जीवित रह सकेगा ।

तीन तपसी

(महात्मा टॉलस्टाय की एक रूसी कहनी का अनुवाद)

समुद्र के बीचों बीच एक छोटा सा द्वीप था उस पर तीन साधु तपस्या किया करते थे। जो जहाज उधर से निकलते इन महात्माओं की कुछ चर्चा सुन जाते और अपने देश में जा कहते ।

एक बार एक धर्माचार्य जहाज द्वारा उधर से यात्रा करते हुये निकले। लोगों ने उन तपसियों के बारे में जब चर्चा की तो आचार्य उन से मिलने के लिये उत्सुक हो उठे। उन्होंने मल्लाहों को जहाज रोकने का आदेश किया । जहाज रोक दिया गया और वे एक छोटी डोंगी की सहायता से टापू तक पहुँचे।

आचार्य तपसियों की कुटी पर पहुँचे। उन तीनों वृद्धों ने झुक-झुक कर आगन्तुक का अभिवादन किया। आचार्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा ‘मैंने माना था कि आप लोग अपनी आत्मा के उद्धार के लिये यहाँ रहते और पूजा उपासना करते हैं। मैं धर्माचार्य हूँ और संसार के प्राणियों को धर्म के मार्ग पर लाने का कार्य करता हूं। मैंने सोचा कि आप प्रभु के भक्त हैं इसलिये आपके पास जा कर जो बन सके सहायता करूं और जो जानता हूँ समझाऊं।’ तीनों वृद्ध पुरुषों ने उनका आभार माना और उपकार के लिये कृतज्ञता प्रकट की।

आचार्य ने पूछा - बतलाइये आप आत्मोद्धार के लिये यहाँ क्या करते है? और पूजा अर्चना का अनुष्ठान किस प्रकार करते हैं?

तपस्वियों में से सब से वृद्ध पुरुष ने नम्रता पूर्वक कहा- हे ईश्वर के दूत ! ईश्वर की पूजा की विधि हमें बिलकुल भी मालूम नहीं है। हम तो अपना पालन कर लेते हैं और अपनी ही कुछ सेवा कर लेते हैं।

आचार्य ने फिर पूछा-आप परमात्मा की प्रार्थना कैसे करते हैं?

वृद्ध ने कहा -हम तो इस प्रकार किया करते है “तीन तुम, तीन हम, हम पर दया रखना स्वामी, इतना कहने पर तीनों ने आकाश की ओर सिर उठाया और एक स्वर से फिर दुहराया-तीन तुम, तीन हम हम पर दया रखना स्वामी।”

आचार्य हँसे और उनसे कहा -आप लोगों की प्रार्थना ठीक नहीं हैं। धर्मशास्त्र में विधिपूर्वक प्रार्थना करने का जो नियम है मैं आप लोगों को उसे ही सिखाना चाहता हूँ। प्रार्थना की शास्त्रोक्त विधि सुनिये और उसे मेरे साथ-साथ दुहराते चलिये।

“हे परम पिता”

उन तीनों ने दुहराया “हे परमपिता”

“जिनका कि आकाश में निवास है।” पहले तपसी ने दुहराया-’जिनका कि आकाश में निवास है लेकिन दूसरा कहते-कहते भूल गया। और तीसरा तो उन शब्दों का ठीक-ठीक उच्चारण भी न कर सका।

आचार्य ने प्रार्थना को दुहराया और तपसियों ने उसे तिहराया। धर्माचार्य एक शिला पर विराज गये और तीनों बड़े तपसी हाथ बाँध कर उनके सामने खड़े रहे और उनके सिखाये हुए मन्त्र को याद करने की कोशिश करते रहे। एक शब्द को उन्होंने सौ सौ बार हजार-हजार बार दुहराया। जहाँ भूल होती आचार्य बता देते, इस प्रकार सारे दिन प्रयत्न करने के उपरान्त जब वे प्रार्थना को बिना भूले दुहराने लगे तो आचार्य को शान्ति आई और वे प्रसन्नतापूर्वक वापिस जाने लगे।

जब वे चलने लगे तो तीनों वृद्धों ने भूमि पर लेट कर उन्हें साष्टांग दण्डवत किया । आचार्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अपनी सिखाई हुई प्रार्थना को ही करते रहने का आदेश देकर चल दिये।

डोंगी द्वारा आचार्य जहाज पर पहुँचे। तब जहान आगे बढ़ा दिया गया । सुनसान रात्रि में सब यात्री सो रहे थे पर आचार्य को नींद नहीं आ रही थी। वह प्रसन्नता से फूल रहे थे, उन्हें अपने कार्य पर गर्व हो रहा था। उन्हें तपसियों का भोला-भाला चेहरा याद आ रहा था। “कैसे भले आदमी थे। प्रार्थना को सीख कर कैसे कृतज्ञ हो रहे थे।”

समालोचना

सत्येन्द्र सन्देश

लेखिका श्री कुँवर रानी साहिबा चन्द्र कुमारी देव। सम्पादक पं॰ केदारनाथ शर्मा ‘परलोक’। प्रकाशक धर्म प्रेस, मेरठ मूल्य 1) छपाई सफाई उत्तम, इस पुस्तक में रानी साहिबा के प्रिय भाई कुँवर सत्येन्द्र कुमार सिंह जी की स्वर्गीय आत्मा द्वारा आये हुए सन्देशों का संग्रह है। लेखक ने अपने भाई के बिछोह में बड़ी मार्मिक पीड़ा का अनुभव करके बताने का मार्मिक प्रयत्न किया है और बहुत अंशों तक अपनी तपस्या में सफल हुई हैं। स्वर्गीय कुँवर साहब ने स्वयं लेखन प्रणाली तथा अन्य प्रकारों से अपने अस्तित्व का जो परिचय दिया है उसे देखते हुए प्रेत- आत्माओं के सम्बन्ध में बहुत सी जानकारी प्राप्त होती है। उदार लेखिका ने इस बहुमूल्य पुस्तक को अपने खर्च से छपा कर ‘परलोक’ मासिक पत्र को पुस्तक उपयोगी और संग्रहणीय है।

विभूतिपती ब्रजभाषा-

लेखक - कवि सम्राट पं॰ अयोध्यासिंह उपाध्याय । प्रकाशक- ब्रजसाहित्य- ग्रन्थमाला , वृन्दावन। मूल्य 1:1) छपाई आदि उत्तम।

इस पुस्तक में विद्वान एवं अधिकारी लेखक ने ब्रज भाषा में ही मार्मिक निवेदन किया है। ब्रज भाषा की प्रष्टस्तता एवं प्राचीनता को सुन्दरता से सिद्ध करते हुए लेखक ने इस भाषा के माधुर्य का आलोचनात्मक वर्णन किया है। ब्रजभाषा प्रेमियों के बड़े काम की है। हम प्रत्येक साहित्य-प्रेमी से अनुरोध करेंगे कि इसकी एक प्रति अवश्य मंगावें।

भ्रमर गीत

ले॰-व्रजभाषा के सुविख्यात महाकवि श्री नन्ददास जी। प्रकाशक - उपरोक्त मूल्य :) छपाई आदि उत्तम।

यह पुस्तक अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कई परीक्षाओं में पाठ्य-ग्रन्थ भी है। भगवान् श्री कृष्ण के प्रेम में मतवाली व्रज गोपिकाओं का एवं भगवत्सखा श्री उद्धव जी का बड़ा मार्मिक संवाद है। पुस्तक संग्रहणीय है।

राष्ट्र लक्ष्मी-

(पाक्षिक पत्र) सम्पादक पं॰ दाऊदत्त उपाध्याय प्रकाशक-साहित्य तीर्थ, अ॰ भा॰ गोपाल संघ,

(शाखा) कंसखार मथुरा।

बा॰ मूल्य 1) एक का)11

प्रस्तुत पत्र-गो धर्म तथा संस्कृत का पोषक है। इसमें राष्ट्र तथा जाति की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक समस्याओं का सुलझा हुआ विवेचन रहता है। भगवान् कृष्ण की जन्मभूमि ब्रजमण्डल से गो वध का समूलोच्छेदन करना ही इसका अभीष्ट मिशन है। इसने इस निर्धन कृषक देश की गौ-धन की समस्या को एक नया ही आर्थिक रूप दिया है। वर्ष में अनेक विशेषाँक देता है, अब तक के विजयाँक इत्यादि दर्शनीय हैं। संक्षेप में भाव भरी कविताएं, गम्भीर लेख, मार्मिक कहानियाँ, मनोरंजक इतने सस्ते और सुन्दर है कि प्रशंसा किये बिना रहा नहीं जाता।

- नमूना मुफ्त

भजन तान गीता-

रचयिता योगीराज मुनीश्वर शिवकुमार शास्त्री।

प्रकाशक ज्ञानशक्ति प्रेस, गोरखपुर,

इस पुस्तक में आशीर्वाद, बन्धन, सच्ची बात, भक्तों की भूल, अन्धविश्वास, आत्म पूजा, सच्चा प्रेमी और सच्चा प्रिय, शिवोऽहम्, योग साधन, आत्मगौरव, सफलता का रहस्य, आत्मज्ञान, सृष्टिकर्ता, योग कठिन नहीं है, शुभ कामना, साधना, सच्चा स्वरूप, भूला शेर, जीव की महिमा, कर्म महिमा, सर्व शक्तिमान जीव, जीव और संसार, योगाभ्यास, आत्याय मान, सच्चा योग, अपनी भूल, योग व्यायाम, योग साधन, हम कौन हैं, मन की महिमा, मतलबी दुनिया शीर्षक बड़े ही सुन्दर पद्य हैं। जिनके द्वारा गायन तथा आत्मज्ञान दोनों का आनन्द प्राप्त होता है। तत्वज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये बड़े काम की चीज है।

-विशालाक्ष

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