
अहंभाव का प्रसार करो
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(पं॰ शिवनारायण शर्मा, है॰ मा॰, माईथान, आगरा)
संन्यासाश्रम
(11)
आज वह प्राचीन समय कहाँ? वन सब राज्य की तरफ से रक्षित रहते हैं, कन्द, मूल, फल तो क्या लकड़ी भी बिना मंजूरी के और जगात दिये बिना नहीं मिल सकती। अतएव आधुनिक ब्रह्मर्षि व आचार्यों ने गृहस्थाश्रम में रह कर ही वनस्थ का साधन करने का गुप्त रहस्य प्रचलित किया है। उसका नाम है ‘आध्यात्मिक सत्संग’। यह पहले अरण्य में ही उपदिष्ट-साधित किया जाता था। समय का सदा परिवर्तन हुआ करता है उसी तरह यह भी क्रम बदलना पड़ा। इसमें शरीर को विशेष कष्ट न देकर मन द्वारा मानसिक साधन कराया जाता है। इसमें कुछ अंग राजयोग के और तंत्र के शामिल हैं। पहले अन्तःकरण की शुद्धि के लिये मन्त्र-जाप आदि करना पड़ता है, तब ईश्वर का स्थान और उनका परिचय करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। अधिकारी हो जाने पर किसी न किसी प्रकार सद्गुरु के दर्शन होकर इस मार्ग का उपदेश प्राप्त हो जाता है। परन्तु यह विद्या अब तक सीने दर सीने ही चली आती है तो वाणी द्वारा कहने में आती है और न लिखी जा सकती है। ऐसे सद्गुरु किसी प्रकार की खास पोशाक या चिन्ह नहीं रखते, प्रायः गृहस्थ ही होते हैं वे किसी को घर छोड़ने या भिक्षा करने को बाध्य नहीं करते, बल्कि अपना जो व्यवसाय जिज्ञासु करता हो, जो इष्टदेव मानता हो, बराबर अपना वही व्यवसाय, नौकरी आदि करते रहो और आध्यात्मिक साधन भी करते रहो। आध्यात्मिक वन भी शरीर में ही तो है, यथा-कम, मोह, मद, अभिमान आदि। बड़े बड़े उन पर्वतों में असम्भावना और विपरीत भावना आदि प्रतिगह्वा गुफायें हैं,। उन्हीं पर्वतों के आश्रम, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पाँच बड़ी गहरी और वेगवान नदियाँ और उनके अनेक भेद नाले रूप हैं। इनमें पड़ कर जीव काल रूप समुद्र की ओर बहे चले जाते हैं। ये नदियाँ बड़ी भयानक हैं। इनसे पार होना बड़ा ही दुस्तर है। इस वन में असत्य रूप भालू, चार्वाकादि नास्तिकों के मत रूप भेड़िये दिन रात हाँऊं हाँऊं किया करते हैं। और मृत्यु रूप सिंह सदा गरजता रहता है। बुढ़ापा रूपी हाथी अपने आधि (मन के रोग) व्याधि (शरीर के रोग) रूप दोनों दांतों से सबको मर्दन करते रहते हैं। इनके शब्द सुनने से बड़े बड़े धीर पुरुषों के धीरज भाग जाते हैं।
नर अहार रजनीचर करहीं।
कपट वेष विधि कोटिन धरहीं॥
लागे अति पहाड़ कर पानी ।
विपिन विपति नहीं जात बखानी॥
व्याल कराल विहंग बन घोरा।
निश्चिर निकर नारि नर चोरा ॥
इस वन में अविद्या रूप रात्रि में विचरने वाले अविवेक आदि निशाचर मनुष्यादियों का आहार करते है और तूलाऽहंकारादि निश्चिर कहीं साधु का, कहीं पंडित का, कहीं राजा का, कहीं ज्ञानी का, कही भेद वादी का अनेक वेष धारण कर मनुष्यों को मोह उत्पन्न करते हैं। और कामादि पहाड़ों के तृष्णादि पानी जिनको लगते हैं उनका प्राणान्त ही करके छोड़ते हैं। लोभादि बड़े बड़े सर्प, दम्भादि बड़े विकराल पक्षी, अहंकार मोहादि बड़े दुष्ट रजनीचर शान्ति, दया, मुदिता, धीरज विवेकादि स्त्री- पुरुषों को हरने वाले अनेक फिरते हैं। ऐसे भयंकर वन की स्मृति मात्र आने से बड़े विवेकी और धीर पुरुष भी भयभीत होता है। इस जीवन में क्या कभी आप का इन जन्तुओं से साक्षात् हुआ है? क्या ये बातें सच्चे अनुभव में आई हैं? यदि ऐसा है तो ज्ञान रूप रामजी शरण होने से इनसे मुक्ति पा सकोगे अन्यथा नहीं।
भगवान् मनु संन्यास आश्रम के सम्बन्ध में कुछ नियम निर्धारित करते हैं-
वानप्रस्थ आश्रम में एक स्थान पर रहने से जो कुछ ममता रह जाती है उसे भी परित्याग करने के लिये वे इस चतुर्थ आश्रम में किसी एक निर्दिष्ट स्थान में वास न करें। एवं ऐहिक चिन्ता बिल्कुल परित्याग कर केवल परब्रह्म की चिन्ता में मगन रहें । मोक्ष प्राप्ति के लिये वह संगविवर्जित हो भ्रमण करें, जो साधक त्याग करने और त्यक्त होने के कारण दुःख अनुभव नहीं करते, वे ही मोक्ष को प्राप्त होते है। अग्नि और गृह विवर्जित होकर वे आहार के लिये ग्राम में जा सकते हैं, वे सब विषयों से उदासीन हों, स्थिर मति रहें, एवं ब्रह्म में चित्त समाहित कर मुनि भाव अवलम्बन करें। वे दिन में एक बार भिक्षा करें, अधिक भिक्षा प्राप्ति के लिये व्यग्र न हों क्योंकि जो अति-भिक्षा में आसक्त होगा वह विषय में भी आसक्त होगा । वे मरण की भी कामना न करें और जीने की भी कामना न करें। मृत्यु जैसे निर्दिष्ट वेतन की प्रतीक्षा करता रहता है वे भी उसी प्रकार की प्रतीक्षा करें। भिक्षु, जीव, हिंसा, त्याग के लिये धरती पर दृष्टि करते हुए पैर रक्खें, वस्त्र से छान कर जल पीवें, सत्य से पवित्र वाक्य बोलें और मन विशुद्ध रखकर समस्त आचरण करें। यदि कोई कटु वचन भी कहे और उसे शाप भी दे तो वे उसे आशीर्वाद ही देवें । चक्षु आदि 5 बाह्य ज्ञानेंद्रियों एवं मन और बुद्धि इन सात इंद्रिय ग्राह्य वस्तु विषयक कोई वृथा वाक्य न कहें। केवल ब्रह्म विषयक वाक्य ही बोलें। प्र॰ 6 श्लो. 41 से 48 तक
जिन्होंने इस प्रकार शनैः शनैः सब वासनायें त्याग दी हैं एवं सुख, दुःख, शीत, ग्रीष्म इत्यादि परस्पर विरुद्ध धर्म वाले पदार्थों की अनुभूति छोड़ दी है। अर्थात् सुख, दुःखादि में ज्ञान वर्जित हुए हैं, वे ही परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
हे मानव ! तुम यदि अहंभाव का प्रसार चाहो तो ब्रह्मचर्य पालन कर कठोर संयम साधना-तपस्या द्वारा देह, इन्द्रिय, मन शुद्ध करके गृहस्थाश्रम में अनेक प्रकार के कर्तव्य का पालन करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करो। तो तुम माया के बन्धन काट कर सब भूतों में आत्म दर्शन करके, अहंभाव का प्रसार करके साधन पूर्वक परब्रह्म में लीन होकर, चिर अद्वैतानन्द सम्भोग कर सकोगे।