
सर्वधर्म समभाव
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(महात्मा गान्धी)
अपने व्रतों में जिस व्रत को हम लोग सहिष्णुता के नाम से जानते हैं, उसे यह नया नाम दिया है। सहिष्णुता अंग्रेजी शब्द ‘टालरेशन’ का अनुवाद है। यह मुझे पसन्द न आया था। या दूसरा शब्द सूझता न था, काका साहब को भी उन्होंने ‘सर्वधर्म आदर’ शब्द सुझाया। मुझे वह भी अच्छा न लगा। दूसरे धर्मों को सहन करने में उनमें न्यूनता मान ली जाती है। आदर में कृपा का भाव आता है। अहिंसा हमें दूसरे धर्मों के प्रति समभाव सिखाती है। आदर और सहिष्णुता अहिंसा की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं। दूसरे धर्मों के प्रति समभाव रखने के मूल में अपने धर्म की अपूर्णता का स्वीकार भी आ ही जाता है। और सत्य की आराधना, अहिंसा की कसौटी यही सिखाती है। सम्पूर्ण सत्य यदि हमने देखा होता तो फिर सत्य का आग्रह कैसा? तब तो हम परमेश्वर हो गये, क्योंकि यह हमारी भावना है कि सत्य ही परमेश्वर है हम पूर्ण सत्य को नहीं पहचानते, इसी लिए उसका आग्रह करते हैं इसी से पुरुषार्थ की गुँजाइश है। इसमें अपनी अपूर्णता को मान लेना आ गया। हम अपूर्ण तो हमारे द्वारा कल्पित धर्म भी अपूर्ण, स्वतन्त्र धर्म सम्पूर्ण है। उसे हमने नहीं देखा जिस तरह ईश्वर को हमने नहीं देखा। हमारा माना हुआ धर्म अपूर्ण है और उसमें सदा परिवर्तन हुआ करता है, होता रहेगा। ऐसा होने से ही हम उत्तरोत्तर ऊपर उठ सकते हैं, सत्य की ओर ईश्वर की ओर दिन प्रतिदिन आगे बढ़ सकते हैं। और यदि मनुष्य कल्पित सभी धर्मों को अपूर्ण मान ले तो फिर किसी को ऊंच-नीच मानने की बात नहीं रह जाती। सभी सच्चे हैं, पर सभी अपूर्ण हैं, इसलिए दोष के पात्र हैं। समभाव होने पर भी हम उसमें दोष देख सकते हैं। हमें अपने में भी दोष देखने चाहिये। उस दोष के कारण उसका त्याग न करें, पर दोष दूर न करें। यों समभाव रखें तो दूसरे धर्मों में जो कुछ ग्राह्य जान पड़े उसे अपने धर्मों में स्थान देते संकोच न हो, इतना ही नहीं, वैसा करना धर्म हो जाय।
सभी धर्म ईश्वरदत्त हैं, परन्तु वे मनुष्य कल्पित होने के कारण, मनुष्य द्वारा उनका प्रचार होने के कारण वे अपूर्ण हैं। ईश्वरदत्त धर्म अगम्य है। मनुष्य उसे भाषा में प्रकट करता है। उसका अर्थ भी मनुष्य लगता है। किसका अर्थ सच्चा माना जाय? सब अपनी-अपनी दृष्टि से जबतक वह दृष्टि बनी रहे, तब तक सच्चे हैं। परन्तु सभी का झूठा होना भी असम्भव नहीं है। इसीलिए हमें सब धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिये। इससे अपने धर्म के प्रति उदासीनता नहीं उत्पन्न होती, परन्तु स्वधर्म विषयक प्रेम, अन्ध प्रेम न रहकर ज्ञानमय हो जाता है। इससे अधिक सात्विक तथा निर्मल बनता है। सब धर्मों के प्रति समभाव आने पर ही हमारे दिव्य चक्षु खुल सकते हैं। धर्मान्धता और दिव्य दर्शन में उत्तर दक्षिण जितना अन्तर है। धर्मज्ञान होने पर अन्तराय मिट जाते हैं और समभाव उत्पन्न होता है। इस समभाव का विकास करके हम अपने धर्म को अधिक पहचान सकते हैं।
यहाँ धर्म अधर्म का भेद नहीं मिटता। यहाँ तो उन धर्मों की बात है, जिन्हें हम निर्धारित धर्म के रूप में जानते हैं। इन सभी धर्मों के मूल सिद्धान्त एक ही हैं। सभी में सन्त, स्त्री, पुरुष हो गये हैं, आज भी मौजूद हैं। इसलिए। धर्मों के प्रति समभाव में और धर्मियों मनुष्यों मनुष्य के प्रति वाले समभाव की आवश्यकता है, परन्तु अधर्म के प्रति कदापि नहीं।
तब प्रश्न यह होता है कि बहुत से धर्मों की क्या आवश्यकता है? यह हम जानते हैं कि धर्म अनेक हैं। आत्मा एक है, पर मनुष्य अगणित हैं। देह की असंख्यता दूर करने से दूर नहीं हो सकती। फिर भी आत्मा की एकता को हम जान सकते हैं। धर्म का मूल एक है जैसे वृक्ष का, परन्तु उसमें पत्ते अगणित हैं।