
" स्वास्तिक "
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(लेखक-विद्याभूषण पं॰ मोहन शर्मा, विशारद)
पूर्व सम्पादक मोहिनी।
[गताँक से आगे]
कई एकों को मैंने द्वार पर स्वास्तिक बनाते प्रत्यक्ष आँखों से देखा है । फिर चाहे वर्षों पर्यन्त हिंदुओं के संपर्क में रहने से ही इस भाव का इनमें उदय क्यों न हुआ हो? बौद्ध मतावलम्बी आदि काल से ही स्वस्तिक को मानते बनाते आये हैं। ईसाइयों ने उसके अधोलिखित और बिगड़े हुये स्वरूप क्रास (ष्टह्शह्यह्य द्वड्डह्द्म) को अपनाया है। और मुसलमानों ने हमारे अपने चन्द्रमा के शास्त्रीय स्वरूप को लेकर अर्द्धचन्द्र की प्रतिष्ठा से यथार्थ में स्वस्तिक की ही प्रतिष्ठा की है। जैन जाति की मुख्यतः दो श्रेणियाँ हैं दिगाम्बर और श्वेताम्बर ! तथा इन दो में से भी अन्य शाखायें प्रस्फुटित हुई हैं। इन सबों में ‘स्वास्तिक’ और ‘ॐ’ दोनों का सचराचर व्यवहार होता हुआ हम पाते हैं। इनके 24 तीर्थंकरों में से एक का यह खास चिन्ह भी माना जाता है । दिगम्बर संप्रदाय वाले जैन अपनी नित्य पूजा में केशर , चन्दन द्वारा अथवा अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से ‘स्वास्तिक’ अंकित करते हैं। और उसके चारों कोण तथा मध्य भाग को पाँच बिंदियाँ देकर और भी शोभायुक्त बनाते हैं। स्वास्तिक के ऊपरी भाग में ‘ॐ ही’ लिख दिया जाता है। स्वास्तिक से पंच परमेष्ठी और पाँच बिंदियों से महंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पुरुषों के आवाहन या प्रतिष्ठा का तात्पर्य लिया जाता है।
इसी भाँति श्वेताम्बर समाज वाले नित्य पूजा में चावल रचित स्वास्तिक खींचकर उसके शिरो भाग में अर्द्ध-चन्द्राकार बिंदी बना उसके नीचे तीन बिंदियों अलग से जोड़ते हैं। जिसका भाव यह है कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् दर्शन का लाभ करते हुये हम मोक्ष को प्राप्त हों। समग्र जैन जगत में स्वास्तिक को महात्म्य मानने और स्वास्तिक बनाने की प्रथा चिरकाल से चली आ रही है। इसकी पवित्रता और धार्मिकता का भाव जैन मतावलम्बियों के रोम-रोम में समाया है। समुद्र पार सुदूर देशों में जर्मनी का उदाहरण समाने है। जर्मन लोग अपने को आर्य जाति (Aryan Race) का अभिहित करते हैं। स्वास्तिक को ये लोग राष्ट्रीय पवित्र चिन्ह के रूप में धारण करते और मानते हैं। एडोल्फ हिटलर का बैज, और उसकी सेना वाहिनी के सैनिकों के बैजों में यही विश्व विश्रुत चिन्ह स्वास्तिक रहता है। जर्मनी की राष्ट्रीय ध्वज में भी यही स्वास्तिक है।
स्वास्तिक, शुभ विषय, मंगल द्रव्य, कल्याण आदि के भाव का बोध करता है। हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि जातियों के प्रत्येक शुभ और कल्याणकारी कार्य में स्वास्तिक का चिन्ह सर्व प्रथम प्रतिष्ठित करने का आदिकाल से ही नियम है। उनका यह चिराचरित विधान है । मंगल कार्यों में स्वास्तिक, गृह प्रांगण, द्वार से लेकर मुहूर्त्त पत्रा, जन्मांग आदि तक में सिन्दूर, हल्दी या अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से बनाया जाता है,। इसी को ‘साथिये रखना‘ भी कहते हैं। ‘ॐ’ का यह रूपांतर अथवा ॐ लिखने का यह दूसरा ढंग स्वास्तिक (!) धर्म प्रेमियों को पवित्रता, भलाई और निवृत्ति की ओर खींचता है।
एक इतिहासज्ञ का कथन है कि सातवीं शताब्दी में ‘स्वास्तिक’ का चिन्ह मवेशियों पर दाग दिया जाता था। विक्रम से 200 वर्ष पहिले के बने हुये एक स्वर्ण पात्र के ऊपर भी स्वास्तिक बना हुआ पाया गया है। इस पात्र में इस पात्र में ब्राह्मीभूत भगवान् बुद्धदेव की अस्थि रखी हुई मिली हैं। 2600 वर्ष के प्राचीन यूनानी बर्तनों पर भी ‘स्वास्तिक’ खचित अवस्था में पाया गया है। अत्यंत प्राचीन स्वास्तिक का
चिन्ह एक चर्खे पर बना हुआ मिला है जो ट्रोय के तीसरे नगर से प्राप्त हुआ है और जो प्रायः 3800 वर्ष पुराना बताया जाता है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग की अन्य कई महत्वपूर्ण खोजें भी स्वास्तिक की प्राचीनता और पवित्रता के प्रमाणों पर अच्छा प्रकाश डालती हैं।
कहने का हेतु यह कि ‘स्वास्तिक’ में व्यष्टि और समष्टि के कल्याण का भाव ग्रथित है। स्वास्तिक विश्व के प्राणियों को कल्याण की ओर जाने का अपूर्व और अमर संदेश देता है। स्वास्तिक अनादि है अभेद्य है, अनन्त पृथ्वियाँ, स्वस्तिक में आबद्ध है और स्वस्तिक उनमें अपने जुदे जुदे स्वरूप को लिये हुये अंकित और प्रकाशित है।