
नरतन का सदुपयोग
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(तुलसी-कृत रामायण से)
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन गावा॥
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा॥
दोहा- सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि-धुनि पछिताइ।
कालहि, कर्महि, ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ॥
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्ग स्वल्प अन्त दुखदाई॥
नर तन पाय विषय मन देही।
पलटि सुधा ते शठ विष लेही॥
ताहि कबहूँ भल कहहि न कोई।
गुँजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी।
योनि भ्रमत यह जिव अविनाशी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा ।
काल, कर्म, सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देहि।
देत ईश बिनु हेतु सनेही॥
करन धार सद्गुरु दृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुभग तनु पावा॥
दोहा- जो न तरइ भवसागर, नर-समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति, आतम हन गति जाइ॥
जो परलोक इहौ सुख चहहू।
सुनि मम वचन हृदय द्दढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई।
भगति मोर पुरान श्रुति गाई॥
भगति सुतन्त्र सकल सुख खानी।
बिनु सत्संग न पावइ प्रानी॥
पुण्य पुँज बिनु, मिलइ न सन्ता।
सत संगति संसृति कर अन्ता॥