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Magazine - Year 1942 - Version 2

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प्रसन्नता की साधना

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जिन लोगों को उदासीनता, चिन्ता और निराशा घेरे हुए हैं, किसी काम पर मन नहीं लगता, मन टूटता रहता है, उनके लिए निम्न अभ्यास बहुत उपयोगी होगा।

सूर्य अस्त के पश्चात् या सूर्य उदय के पूर्व किसी स्वच्छ और हवादार कोठरी में अकेले प्रवेश करो और आत्मचिन्तन और ईश्वर उपासना के लिए एक घन्टा उसी में बने रहो। बाहर का एक भी विचार इस समय मन में नहीं आना चाहिए। शरीर को ढीला करके किसी मुलायम बिछौने या आराम कुर्सी पर शान्तिपूर्वक बैठ जाओ। नेत्र बन्द करके अपने अन्तर हृदय का ही ध्यान करो, बाहरी बातों को इस समय बिल्कुल भुला देना चाहिए। शरीर और मन को स्थिर करके मन ही मन परमात्मा से प्रार्थना करो कि ‘हे प्रभो! मुझे ऐसी दिव्यदृष्टि प्रदान कीजिए जिससे मैं सर्वत्र आपके सत् चित् आनन्द स्वरूप का दर्शन कर सकूँ। आप विश्व में निरन्तर आनन्द और प्रसन्नता की वर्षा करते हैं। मुझे ऐसी योग्यता दीजिए कि उस सर्वव्यापी आनन्द रस का सदैव पान करता रहूँ।”

इस मन्त्र को धीरे-धीरे दस बीस बार मन में दोहराइये और हर एक शब्द पर अच्छी तरह से गौर करते जाओ। इसके उपरान्त कुछ देर के लिए बिल्कुल शान्त हो जाओ और भावना करो कि तुम्हारे अन्दर शान्ति, प्रसन्नता और प्रफुल्लता का समुद्र उमड़ रहा है और तुम उसमें प्रेमपूर्वक स्नान कर रहे हो। इस ध्यान में जब तक मन लगे तब तक करते रहो। कभी-कभी इस ध्यान से निद्रा सी आने लगती है। प्रेम और प्रसन्नता के पुनीत जल से समस्त विश्व को भरा हुआ देखने और उसी अमृत रस को खींचकर अपने में धारण करने की मानसिक साधना ऐसी है, जिसमें तत्क्षण आनन्द का प्रादुर्भाव होता है। ध्यान से उठने पर शान्ति मिलती है, चिंताएं चली जाती हैं और चेहरे पर प्रसन्नता की किरणें प्रस्फुटित होने लगती हैं।

प्रातःकाल के अभ्यास के अन्तिम भाग में जब प्रकाश फैल गया हो, एक बड़े से दर्पण के सम्मुख खड़े होकर अपना मुख उसमें देखिए। लगातार दस मिनट तक मौन भाव से अपनी छाया को विश्वास और सम्मान के साथ देखते रहिए। तदुपरान्त इस मन्त्र को धीरे-धीरे, हलके किन्तु विश्वसनीय शब्दों में कहिए। मानो तुम अपनी दर्पण वाली छाया से इन शब्दों को सुनिश्चित रूप से कह रहे हो। -”मैं तुम्हारी आत्मशक्ति के ऊपर, तुम्हारे ऊपर, पूर्ण विश्वास करता हूँ। तुम योग्य और कुशल हो। तुम्हारी शक्ति संपूर्ण परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकती है। तुम शांतिस्वरूप, प्रसन्नमुख और स्थिरचित्त हो। मैं देखता हूँ कि तुम्हारे चेहरे में प्रसन्नता की किरणें अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट होती आ रही हैं।”

इन शब्दों को तोते की तरह नहीं रटना चाहिए, वरन् आन्तरिक विश्वास के साथ अपनी छाया को समालोचना की तरह कहना चाहिए। कुछ देर इसी प्रकार उपरोक्त मन्त्र का पाठ करो। पीछे नेत्र बन्द करके अपने मानस लोक में दर्पण वाली छाया को देखे और भावना करो कि तुम्हारी छाया प्रसन्न शान्त और आनन्द स्वरूप है। चेहरे पर प्रफुल्लित का तेज विद्यमान है।

उपरोक्त अभ्यास से सचमुच प्रसन्नता का आविर्भाव होता है। उदासी, निराशा और मानसिक अवसाद इससे दूर होकर चित्त में दृढ़ता एवं उत्साह का संचार होता है। प्रसन्नता प्राप्त करने के इच्छुक इस साधना को कुछ दिन नियमपूर्वक करके देखें तो उन्हें संतोषजनक लाभ प्राप्त हो सकता है।

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