
प्रेम की प्रतिज्ञा
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इदमुच्छेयो अवसान मागाँ शिवे में द्यावा पृथिवी अभूताम्। असपत्राः प्रदिशो में भवन्तु, नवैत्वाँ द्विष्यों अमयं नो अस्तु॥ - अथर्व.
अर्थ:- “अब यही कल्याणकारक है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊँ, द्वेष परम्परा को विराम दूँ, अतः हे शत्रु, तेरे साथ मैं तो द्वेष करना छोड़ ही देता हूँ। गौ और पृथ्वी भी मेरे लिये अब कल्याणकारी हो जावें, सभी दिशाएं मेरे लिये शत्रुरहित हो जायें, मेरे लिये अब अभय हो जायें।”
हे प्रभो! अब मैं समाप्ति के मार्ग पर आता हूँ। अपने द्वेष-द्वन्द्वों को समाप्त कर रहा हूँ। स्वार्थ- साधना और इन्द्रिय-लिप्सा के लिये बहुत भोगों की इच्छा करता था, बहुत संग्रह करता था, अब उसकी समाप्ति करता हूँ। अपने लिये दूसरों की वस्तु छीनने की नीति का परित्याग करता हूँ।
हे विश्वेश्वर! प्रेम का प्रथम नियम मैंने जान लिया है। विश्व के समस्त जड़ चेतन पदार्थ अपनी वस्तु दूसरों को दे रहे हैं। मुझे जीवनोपयोगी समस्त सुविधाएं दूसरों से प्राप्त हो रही हैं। लेन-देन का अखण्ड प्रवाह सर्वत्र चल रहा है। मैं भी अब इस धर्म का पूरी तरह पालन करूंगा। जिस प्रकार लेने में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ। वैसी ही देने में भी करूंगा। जो कमाऊँगा, उसे खुशी-खुशी दूसरों को भी दूँगा। अपने निमित्त जमा करने की नीति को समाप्त करता हूँ। लेने की अपेक्षा देने को अधिक महत्वपूर्ण अनुभव करूंगा।
हे परमात्मन्! मैं आपकी ही एक चिंगारी हूँ। आप विश्व के कण-कण में व्याप्त हैं, इसलिये यह समस्त ब्रह्माण्ड आपका ही स्वरूप है, अथवा मुझे यह समझना चाहिये कि विश्व मेरा ही है। अब मैं जो कुछ करूंगा, विश्व हित की दृष्टि से करूंगा। अपने संकुचित ‘अहम’ भाव का विस्तार करूंगा। विश्व के समस्त प्राण मेरे हैं, उनमें शान्ति एवं सुव्यवस्था कायम रखने के लिए सत्धर्म का प्रसार करूंगा। जैसे अपने प्रिय परिवार की हित-कामना में दत्तचित्त रहता हूँ, वैसे ही समस्त प्राणियों को अपना समझता हुआ उनके कल्याणार्थ पौरुष करूंगा। द्वेष किससे करूं? बदला किससे लूँ? विरोध किससे करूं? सभी जीव तो आपकी प्रतिमाएँ हैं, सब प्राणियों में मेरी आत्मा झलक रही है, फिर किसी से द्वेष करके अपनी आत्मा-हत्या के समान दुष्परिणामों का भागी क्यों बनूँ? अब मैं समझ गया हूं कि दूसरे से द्वेष करना अपने से द्वेष करना है। इसलिये हे जगन्निवास! अब किसी से द्वेष न करूंगा। मैंने निश्चय कर लिया है कि द्वेष की परम्परा को विराम दूँगा। हे मेरे शत्रुओं! मैं तो तुम्हारे साथ द्वेष करना छोड़ ही देता हूं, तुम छोड़ो या न छोड़ो, यह तुम्हारी इच्छा।
हे ब्रह्म! अब मैंने ब्रह्म यज्ञ को सर्वोत्तम धर्म स्वीकार किया है। सदैव परोपकार, दया, उदारता, त्याग, करुणा, सहानुभूति की भावनाओं को हृदयंगम करूंगा। जब कोई पाप-वासना मेरे मन में आवेगी, तो उसे तुरन्त ही हटा दूँगा। मनोविज्ञान शास्त्र के पण्डितों से मैंने यह समझ लिया है कि मानस-पाप और मानस-पुण्य का वैसा ही फल मिलता है, जैसा कि प्रत्यक्ष कर्मों का। इसलिये अपने मन में सदैव परोपकार और पर-सेवा के भाव भरता रहूँगा। हृदय को शुद्ध रखूँगा, आचरणों को पवित्र बनाऊँगा। दूसरों को सदैव शुभ मार्ग पर चलने की सलाह दूँगा। अपने, मित्रों को, परिचितों को, अपरिचितों को, पवित्र, उच्च आचरण वाला बनाने का निरन्तर प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार उस ब्रह्म ज्ञान को अखण्ड रूप से जारी रखूँगा, इस कर्तव्य में कभी प्रमाद न आने दूँगा। हे वरुण! मैंने कल्याण का मार्ग अपना लिया है। इसलिये गौ और पृथ्वी भी मेरे लिये अब कल्याणकारी हो जावें। मैंने प्रेम धर्म को अपना लिया हैं। इसलिये सर्वत्र मुझे मित्र ही मित्र दृष्टिगोचर हों। सभी दिशाएं मेरे लिये शत्रु रहित हो जावें। प्रेम को ग्रहण कर अब मैं निर्भय हो गया हूँ, इसलिये विश्व में मेरे लिये अब सर्वत्र अभय का साम्राज्य हो जाये।
न्याय का धर्म युद्ध
इन्द्र बर्धन्तो अप्तुरः। कुण्वन्तो विश्वं आर्यम्। अपघ्नन्तों अराव्णः। ऋग. 9-63-5
अर्थ- “जीवन को तुरन्त ही प्रेरणा दो। ईश्वर की महिमा गाओ। विश्व को आर्य बनाओ और कंजूस दुष्टों को नष्ट करो।”
हे आत्मन! जीवन को तुरन्त ही प्रेरणा दीजिये। मेरा जीवन चिरकाल से अशक्त, मूर्च्छित, निराश, अनुत्साह और आलस्य से ग्रसित हो रहा है। सड़ी-गली अन्ध-परंपराएं मेरे आध्यात्मिक विकास के मार्ग में पर्वत की तरह बाधक बनकर खड़ी हुई हैं। समय बदलना है, पर मेरे विचार साथ-साथ नहीं बदलते। वर्तमान की आवश्यकताओं पर स्वतन्त्र दृष्टि से विचार करने की प्रथा को छोड़कर भूतकाल की किन्हीं सड़ी-गली विचार धाराओं से ही चिपका रहता हूँ। मेरे इस निकम्मेपन से कुढ़कर समय ने मुझको बड़े करारे तमाचे लगाये हैं। प्रगतिशील आत्माओं को जो प्रसाद मिला करता है, उससे मैं सर्वथा वंचित रह गया, और संसार में आलसी, अकर्मण्य, कायर, मृतक आदि नामों से पुकारा गया। हर कोई मेरे ऊपर मनमाने अत्याचार करने को तैयार रहता है। इसलिये हे इन्द्र! मेरे जीवन को तुरन्त ही प्रेरणा दीजिए। मेरी धमनियों में उत्साह और स्फूर्ति की बिजली फूँक दीजिए, मुझे शक्तिशाली मार्ग पर लगा दीजिए, जिससे मैं बलवान बन जाऊँ। अब मैं शरीर को बलवान बनाऊँगा, मन को बलवान बनाऊँगा। संगठन का बल एकत्रित करूंगा। अपने समान विचारों वालो का एक मजबूत संगठन करके सम्मिलित सह-शक्ति उत्पन्न करूंगा। अखण्ड शक्ति की आराधना करूंगा। जिससे मेरी आत्मा का तेज सूर्य की तरह चमके। जिससे सताने की बात तो दूर, सताने का विचार करने की भी किसी की हिम्मत न पड़े। शक्ति से ही संसार में न्याय स्थिर रह सकता है, इसलिये सर्वतोभावेन शक्ति का सम्पादन करूंगा। मैंने निश्चय कर लिया हैं कि अब निर्बलों का नहीं बलवानों का जीवन बिताऊँगा और हे ईश्वर! आपकी महिमा गाऊँगा। आत्मा का तेज सब पर प्रकट करूंगा। मनुष्य कितना शक्तिशाली है, आत्मा में कितना बल है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण संसार के सामने रखूँगा।
हे समदर्शी! समस्त विश्व आपकी ही कृति है, इसलिये यह पुण्यपूत है। इसमें घृणा से देखने योग्य कोई प्राणी नहीं है। कोई मनुष्य अशिक्षित है, अज्ञानी है, अशक्त है, अयोग्य, निर्धन है, इसलिये वह छोटा नहीं हो जाता। प्राणी मात्र के समान अधिकार हैं, इसलिये किसी से घृणा न करूंगा, और न किसी को छोटा समझकर उसे अपमानित या तिरस्कारित करूंगा। जो गिरे हुये हैं, उन्हें उठाऊँगा, सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाऊँगा। किसी का अधिकार अपहरण न करूंगा, अपनी शक्तियों को निर्बलों की वस्तु का अपहरण करने में कदापि न लगाऊँगा, किसी का हक न छीनूँगा, अन्याय का पैसा न छीनूँगा, असमानता को मिटा कर समता की स्थापना के लिये उद्योग करूंगा, सब श्रेष्ठ हैं, हर एक को उनकी श्रेष्ठता प्रदान करूंगा। जिन्होंने अपना आर्यत्व खो दिया है, उन्हें वे देने-दिलाने के लिये अपनी समस्त शक्तियाँ लगाकर प्रयत्न करूंगा। सब प्राणियों में श्रेष्ठता उत्पन्न करके ही तो सच्ची समता स्थापित करने में सफल बनूँगा।
हे रुद्र! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि दुष्ट कंजूसों को नष्ट करूंगा, क्रोध, द्वेष, पाखण्ड, छल, झूठ आदि दुर्गुण बड़े ही दुष्ट हैं। स्वार्थ, तृष्णा, लोभ के बराबर कंजूस इस पृथ्वी पर कौन है? इन दुष्टों को कभी क्षमा न करूंगा, जब देखूँगा तभी युद्ध करूंगा। अपने अन्दर पाऊँगा, तब तो लड़ूंगा ही, पर जब दूसरों में इन्हें देखूँगा तब भी चुप न बैठूँगा। चुप कैसे बैठ सकूँगा? यह दुष्ट कंजूस मेरे भाई के घर पर आक्रमण करें और मैं कुछ न करूं, यह कैसे हो सकता है? यद्यपि मैं प्रेम का पुजारी हूँ, पर अविवेकपूर्ण मोह को नहीं चाहता। रोगी को अविवेकी लोग मोहवश पूड़ी-मिठाई खिलाकर रोग बढ़ा देते हैं, किन्तु चतुर डॉक्टर रोगी से सच्चा प्रेम रखने को कड़ुई-कड़ुई दवा पिलाता है, यदि उसके घाव सड़ रहे होते हैं तो आवश्यकतानुसार नश्तर भी चुभा देता है। मैं भी अपने भाइयों के शरीरों में से पाप रूपी रोगों को भगाने के लिये कड़ुई दवा या तेज नश्तर प्रयोग करने में हिचकिचाऊँगा नहीं। कठोर कर्तव्य को देखकर विचलित न हूँगा। इस सम्बन्ध में अर्जुन का आदर्श और गीता का उपदेश मैंने हृदयंगम कर लिया है। अव्यावहारिक और मिथ्या अहिंसा की आड़ में अपनी कायरता को न छिपाऊँगा, दस्युओं और तस्करों की दरगुजर न करूंगा, दुष्टों और धूर्तों को निर्भयतापूर्वक कोलाहल न मचाने दूँगा, अपने को खतरे में डालकर भी दानवों से लड़ूंगा। हे अग्ने! मूक मानवों का प्रतिनिधित्व करता हुआ मैं आत्मा, शैतानी अनात्म शक्तियों से जूझूँगा। न्याय की रक्षा के लिये, निर्दोषों को बचाने के लिये तेजस्वी वीर पुरुष की भाँति शक्ति दण्ड को धारण करके आततायियों को सुमार्ग पर लाऊंगा। अन्याय के विरोध मेरा विरोध और असहयोग सदैव जारी रहेगा। जुल्म के खिलाफ मेरी आवाज सदा ऊँची रहेगी। ‘अखण्ड-शमन’ मेरे जीवन की प्रधान नीति रहेगी। इसके लिये कष्ट सहूँगा, तप करूंगा, दुःख उठाऊँगा, पर न्याय तुला का सन्तुलन ठीक रखने के लिये हे हिरण्यगर्भ! दुष्ट कंजूसों को नष्ट करूंगा, आप मुझे मेरे मार्ग में सहायता दीजिये।
हे भगवान! आपके सम्मुख उपरोक्त दीक्षा मंत्रों को निवेदन करता हूँ। सतयुगी बनने के लिये मेरी यह आन्तरिक प्रार्थनाएं हैं। आप यथाक्रम मुझे ऐसी शक्ति देते जाइए, जिससे मैं इस पथ पर निरन्तर बढ़ता चलूँ। चाहे मेरे कदम धीरे-धीरे बढ़ें, पर हर कदम दृढ़तापूर्वक उठे। हे सत्य! आप मेरी आत्मा को दीक्षित कर दीजिए, मुझे बल दीजिए, मेरे हाथ पकड़कर इस सत्य-पथ पर खींचते ले चलिये, जिससे मैं जीवन का चरम उद्देश्य पूरा कर सकूँ। हे यम! मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। मुझे अनियमित से नियमित बना दीजिए।