
सतयुग की कल्पना
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(सतयुग की मनोवैज्ञानिक विवेचना)
मनुष्य को स्वभावतः अपने भविष्य के सम्बन्ध में दिलचस्पी है। वह यह जानने के लिये उत्सुक रहता है कि कल का दिन मेरे लिये कैसा होगा? चूँकि मनुष्य सुख और शान्ति को चाहता है, इसलिये ऐसे भविष्य की कल्पना करता है, जिसमें सुख-शान्ति की सामग्री मौजूद हो। बड़े-बड़े दार्शनिकों और अग्रसोचियों ने आगामी समय के सुनहले स्वप्न देखने में अपनी बहुमूल्य शक्तियों को लगाया है। संसार के साहित्य में ऐसी हजारों पुस्तकें मौजूद हैं, जिनमें आगामी समय की सुखद कल्पना की गई है। दार्शनिक, वैज्ञानिक, डॉक्टर, कवि, व्यापारी, धर्म-प्रचारक ऐसे भविष्य लोक में विचरण करते हैं, जिसमें उनकी आकांक्षाएं पूरी होंगी। भक्त सोचता है कि एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा, जब मैं भगवान के दर्शन करूंगा, धर्म-प्रचारक विश्वास करता है कि किसी दिन समस्त संसार मेरे विचारों का अनुयायी हो जायेगा। डॉक्टर सोचता है मेरी इस दवा से अमुक बीमारी का नामोनिशान न रहेगा। लोभी समझता है कि मेरे पास बहुत धन जमा हो जायेगा। कल का दिन अधिक सुन्दर होगा, ऐसी मान्यता हर प्राणी करता है।
इसी सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जाति हजारों वर्ष से एक ऐसे युग की कल्पना करती आ रही है, जिसमें वे सब बातें अनायास ही प्राप्त हो जायेंगी, जिन्हें प्राप्त करने की वह इच्छा करता है। जैसा स्वास्थ्य, जैसा धन, जैसा समाज, जैसा वातावरण उत्तम से उत्तम दशा में सोचा जा सका है, उन सब का सम्मिलित एकत्रीकरण कर के एक युग की कल्पना की गई है और उस युग का नाम ‘सतयुग‘ रखा गया है।
मनुष्य खुद सताया जाने से डरता है और चाहता है कि कोई मुझे न सतावे, न दुःख दे और न अप्रिय व्यवहार करे। इसी इच्छा को सतयुग में आरोपित करके समझता है कि उस समय कोई मुझे न सतावेगा, अकेले मुझ तक ही उस स्थिति का लागू होना ठीक नहीं मालूम पड़ता, इसलिये ‘मुझे की सीमा’ बढ़ाकर ‘सब तक’ करदी जाती है। तदानुसार “सब लोग हिल-मिल कर रहेंगे” ऐसी मान्यता बनानी पड़ती है। हम अपनी चोरी होने देना, स्त्री का व्यभिचारिणी होना, पुत्र की मृत्यु हो जाना, धन कमाने में बहुत परिश्रम करना, निर्बल एवं रोगी बनना तथा ऐसी ही अन्य कष्टकारक परिस्थितियों को पसन्द नहीं करते। अतएव ऐसे समय का सुनहला स्वप्न देखते हैं, जब ऐसी एक भी बात न हो, जिसे हम दुखदायक समझते हैं।
परन्तु क्या ऐसा युग वास्तव में हो भी सकता है, यह विचारणीय प्रश्न है। इतिहास, पुराणों का गम्भीर दृष्टि से अवलोकन करने पर ऐसा कोई भी समय उपलब्ध नहीं होता है। जब सर्वत्र सम्पूर्ण अंशों में मनुष्य जाति उन आदर्शों का पालन करती रही हो। कहते हैं कि पुरुष के साथ पाप की सृष्टि हुई, आदम के साथ शैतान पैदा हुआ और सत् के साथ असत् जन्मा। इस त्रिगुणमयी प्रकृति का संगठन ही इस ढंग से हुआ है कि भलाई के साथ बुराई भी जरूर रहेगी। सतयुग में भी दुष्टों, दुराचारियों, पापी और अधर्मियों के होने के प्रमाण मिलते है। जब वे बहुत बढ़ गये, यहाँ तक कि असुर लोग देवताओं से ताल ठोंक कर लड़ने को तैयार हो गये और संघर्ष में देवताओं से भी भारी बैठे, तो भगवान को उनका संहार करने के लिये जन्म धारण करना पड़ा। असल में यह मृत्यु लोक कर्तव्य भूमि है, यहाँ जीव परिश्रम करके उन्नति की ओर चलने का प्रयत्न करते हैं, गिरते-पड़ते वे नित्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ते जाते हैं। जब पूर्ण हो जाते है, तो परमपद को प्राप्त कर लेते हैं, मुक्त हो जाते हैं।
एक दार्शनिक का कथन है कि “मनुष्य अपूर्ण है।” सतयुग के जीवधारी पूर्ण रहे होंगे, यह आदर्श की दृष्टि से एक अच्छा विचार है। पर समीक्षक की तरह परीक्षा करने पर यह विचार सत्य प्रतीत नहीं होता है। निश्चय ही महान मन में समय-समय पर एक विशेष प्रकार की लहरें आती हैं, जिन्हें ‘जमाने की खूबी’, ‘युग-धर्म’ आदि नामों से पुकारते हैं। किसी समय में ठंडी हवा चलती है तो किसी में गरम, पर कभी भी एक का लोप नहीं हो जाता। केवल मात्रा में न्यूनता-अधिकता हो जाती हैं। कभी भले स्वभाव में वृद्धि होती है कभी बुरे में, एक के बाद दूसरा आता है। दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन का क्रम है। काल का परिवर्तन ‘चक्र सदैव घूमता रहता है। यह ज्वार-भाटा समुद्र में आते हैं पर पानी के गुणों में कोई अन्तर नहीं होता।
मेरा विश्वास है कि पूर्ण सतयुग कभी न तो हुआ है और न आगे हो सकता हैं। बारह वर्ष घूरे में गढ़ी रहने पर भी टेढ़ी रहने वाली कुत्ते की पूँछ की तरह यह दुनिया, इसी प्रकार टेढ़ी रहेगी। इस पाठशाला में सदैव अधूरे ज्ञान के ही विद्यार्थी पढ़ने आवेंगे। एम.ए. पास कर लेने के बाद इस पाठशाला के फर्श पर पढ़ने की उन्हें जरूरत न रहेगी। कलियुग में करने पर भी कुछ नहीं हो सकता और सतयुग में सब कुछ अपने आप ही हो जावेगा, ऐसा मानना वास्तविकता से आंखें बन्द कर लेने के समान है।
अज्ञान ही असत् (कलियुग) और ज्ञान ही सत् (सतयुग) है। मनुष्य अपने लिये कलियुग या सतयुग स्वयं निर्माण करता है, उसके लिये उसे लाखों वर्ष प्रतीक्षा करने की कुछ भी जरूरत नहीं है। हम क्यों सोचें कि लाखों करोड़ों वर्ष बाद जब सतयुग आवे तब हमें आनन्ददायक स्थिति प्राप्त होगी। उद्योगियों की तरह हमें तो अपना युग अपने हाथ चलाना है। इसके लिये वेद हमें स्पष्ट आज्ञा दे रहा है। ‘असतो मा सद्गमयं’ असत् की ओर नहीं सत् की ओर चलो। कलियुग में मत पड़े रहो, सतयुग का उपयोग करो, अज्ञान और अधर्म को त्याग कर धर्म और ज्ञान की उपासना करो।