
ईश्वर का भजन
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(महात्मा गाँधी)
ईश्वर के सहस्र अर्थात् अनेक नाम हैं, अथवा यों कहिए कि वे नामहीन हैं। जो नाम हमको अच्छा मालूम हो, उसी नाम से हम ईश्वर को भजें, उसकी प्रार्थना करें। कोई उसे राम नाम से पहचानते हैं, तो कोई कृष्ण नाम से, कोई उसे रहीम कहते हैं, तो कोई गौड। यह सब एक ही चैतन्य को भजते हैं, परन्तु जिस प्रकार सब तरह का भोजन सबको नहीं रुचता, उसी तरह सब नाम सबको नहीं रुचते। जिसका जिससे सह्वास होता है, उसी नाम से वह ईश्वर को पहचानता है और वह ईश्वर अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान होने के कारण हमारे हृदय के भावों को पहचान कर हमारी योग्यता के अनुसार हमको जवाब देता है। अर्थात् प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं वरन् हृदय से होता है। इससे गूँगे, तोतले, मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। जीभ पर अमृत किस काम का? कागज के गुलाब से सुगन्ध कैसे निकल सकती है? इसलिये जो सीधे तरीके से ईश्वर को भजना चाहता हो, वह अपने हृदय को मुकाम पर रखे। हनुमान की जीभ पर जो राम था वही उनके हृदय का स्वामी था और इसी से उनमें अपरिमित बल था। विश्वास से जहाज चलते हैं। विश्वास से पर्वत उठाये जाते हैं। विश्वास से समुद्र लाँघा जाता है। इसका अर्थ यह है कि जिसके हृदय में सर्वशक्तिमान ईश्वर का निवास है, वह क्या नहीं कर सकता? वह चाहे कोढ़ी हो, चाहे क्षय का रोगी हो, जिसके हृदय में राम बसते हैं, उसके सब रोग सर्वथा न हो जाते हैं।