
उलझन भरी पहेली
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(श्री नोखेरामजी शर्मा बी. ए., काव्यतीर्थ)
अन्धे ने कहा-हाय! मुझे भगवान् ने अंधा बना दिया, नहीं तो मैं संसार का कितना उपकार करता! अपने सुख की तनिक भी परवा न करके सदा दीन दुखियों की सेवा में लगा रहता।
लंगड़े ने कहा- मैं क्या करूं। यदि मेरे पैर दुरुस्त होते तो दौड़-दौड़ कर मैं अच्छे-अच्छे कार्य सम्पन्न करता, जीवों की भलाई करता पर करूं क्या?
निर्धन ने कहा- जब मैं गरीबों को धनाभाव से पीड़ित देखता हूँ तो मेरा कलेजा फटने लगता है। यदि मेरे पास धन रहता तो मैं निर्धनों पर धनियों के अत्याचार का सक्रिय प्रतिरोध करता। अपने सामने किसी को धनाभाव से पीड़ित न देखता, सारा धन परोपकार में ही लगाता रहता?
मूर्ख ने कहा- न मालूम पढ़-लिख कर किस तरह आदमी स्वार्थी हो जाते हैं। मेरे पास तो विद्या नहीं, यदि मैं विद्वान रहता तो, अपनी विद्या को कभी पैसे लेकर न बेचता, वरन् उससे दूसरों की भलाई करता, सत्य की रक्षा करता तथा ज्ञान के अन्वेषण में उसका उपयोग करता।
निर्बल ने कहा- बलवान पुरुष अत्याचारी तथा परपीड़ित किस तरह हो जाते हैं? यदि मैं बलवान रहता तो केवल पीड़ितों को बचाता, अत्याचारियों के विरुद्ध लोहा लेता तथा सदैव दूसरों के दुःख दूर करने के लिए कटिबद्ध रहता। जिस तरह लोग मुझे निर्बल जानकर सताया करते हैं वैसे मैं कभी न करता !
समय ने पलटा खाया। अन्धे की आँखों में ज्योति आ गयी, लंगड़े का पाँव सीधा हो गया, निर्धन मितव्ययिता और घोर परिश्रम से धनी हो गया, मूर्ख को विद्या प्राप्त हो गयी और निर्बल बलवान हो गया।
आँख वाला सुन्दर दृश्यों को देखने में दिन बिताने लगा। जीवन भर की अभिलाषा संचित थी। जिसे देखता घन्टों लगा देता, उसके पीछे खाना-पीना भूल जाता। रूप के आगे उसे कुछ न सुहाता था। वह अपने तन की सुधि भी भूल गया !
लंगड़ा पाव पाकर फूला न समाया। जहाँ-जहाँ जाने के लिए सोच रखा था वहीं को चल पड़ा। उसने धनोपार्जन के लिए दौड़-धूप करना शुरू कर दिया। स्वार्थसिद्धि में वह अनवरत लीन हो गया।
धनवान ने कहा- जब मैंने परिश्रमपूर्वक धन कमाया है तो इस पर मेरा पूरा अधिकार है। मैं इसे मुफ्त क्यों लुटाऊं? सब मेरी तरह क्यों नहीं कमा लेते? जो भूखों मरते हैं वे अपने कर्म का फल भोगते हैं। अपव्यय और आलस्य को अपनाकर लोग अब मेरा बोझ बनना चाहते हैं। यह सरासर अन्याय है। इस पर यदि धनवान पैसे देकर लोगों से वाजिब काम लेते हैं तो वे क्या बेजा करते हैं? यदि वे कुछ अत्याचार भी करें तो भी कोई अनुचित नहीं, उन्हें अपनी घोर तपस्या के बदले कुछ तो विशेषाधिकार मिलना ही चाहिये।
विद्वान् ने कहा- यदि मैंने परिश्रमपूर्वक विद्या प्राप्त की है तो इससे दूसरों को क्या? इसे जिधर चाहे, उपयोग करने का मेरा पूर्ण अधिकार है। इसके द्वारा मैं धन न कमाऊं तो अपनी अभिलाषा कैसे पूरी करूं। सत्य का पता न कभी लगा है न लगेगा, झूठ न रहे तो दुनिया उठ जाय। एक तो यों ही लोग दुष्ट और स्वार्थी हैं, यदि मैं उन्हें और भी मदद पहुँचाने लगूँ तो न मालूम वे कब मुझ-जैसों को हड़प जाए!
बलवान ने कहा- बल केवल निर्बलों पर ही व्यक्त हो सकता है। यदि मेरी मदद चाहते हैं तो उन्हें भी मुझे मदद करनी चाहिए। यहाँ तो सब स्वार्थ के पुतले हैं, फिर मैं निःस्वार्थ क्यों बनूँ। कोई निर्बल मर रहा हो तो मरे। यह उसके दुष्ट कर्म का फल है। वह जीना चाहता हो तो परिश्रम करके बलवान क्यों नहीं बन जाता?
समय फिर पलटा ! जिसे आँख मिली थी, उसकी आंखें जाती रही। पाँव वाले का लंगड़ापन फिर आ गया। धनवान का कारोबार नष्ट हो जाने से दिवाला निकल गया, कर्जदार उसे निर्बल पाकर रुपये हड़प गये। बलवान फिर कमजोर हो गया। और विद्वान् फिर पहले की तरह लोगों में तिरस्कृत हो गया!
तब उन्हें अपनी-अपनी पुरानी प्रतिज्ञाएं याद पड़ीं। पर समय बीत गया था, मौका हाथ से निकल चुका था। पर अब पछताने से क्या हो सकता था।