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Magazine - Year 1950 - Version 2

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कर्मयोगी की मानसिक स्थिति

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निस्पृह होकर अनासक्त मन से संसार के कल्याण के लिये कर्म करते रहना कर्मयोगी का लक्षण है। ऐसे कर्मयोगी दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो गृही होकर कर्मयोग की साधना करते हैं। घर में रहो चाहे घर छोड़ दो, संसार के कल्याण के लिए कर्म अवश्य करते रहना चाहिये। भगवान के लिये कर्म, लोक कल्याण के लिए कर्म, यह ध्येय रखना और इस पर चलना कर्मयोगी का यही साधन है।

गृही और गृह त्यागी कर्मयोगी के दो रूप होते हुए भी दोनों में कोई अन्तर नहीं है। कर्मयोगी को लोक कल्याण के लिए जब गृहत्याग की आवश्यकता होती है तब वह गृहत्यागी हो जाता है और जब गृहस्थ जीवन में रह कर लोककल्याण की अधिक सम्भावना रहती है तब वह गृही होकर रहता है। गृहस्थ होना और गृह त्यागना उसकी लोक सेवा या लोक कल्याण के अंग होते हैं। मुख्य उद्देश्य तो लोक कल्याण ही होता है। फिर भी गृहत्याग की अपेक्षा लोक कल्याण साधना में गृहस्थ होने का अधिक महत्व है।

गृहस्थ का त्याग करने पर मनुष्य आम लोगों की श्रेणी से ऊपर उठ जाता है। जिसके कारण लोग उसे अपने समान का न समझकर विजातीय ही समझते हैं इसलिए जन समाज की जो साधारण समस्याएं होती हैं वह उन्हें सक्रिय रूप से सुलझाने में कोई आदेश उपस्थित नहीं करता कर्मयोग का जीवन तो आदर्श जीवन होता है और लोक कल्याण के लिए उसे ऐसा जीवन बनाने और बिताने के लिए इस प्रकार के जीवन को अंगीकार करना पड़ता है। इसलिए गृहत्याग की अपेक्षा जो गृहस्थ होकर कर्मयोग का पालन करते हैं। वे आदर्श कर्मयोगी हैं। गृहस्थ जीवन में रह कर व्यक्ति जीवन के संघर्ष में प्रत्यक्ष भाग लेता है और उन संघर्षों के प्रभाव से ऊपर उठ कर कर्मयोगी की प्रतिष्ठा करता है। गृहत्यागी संघर्ष के संपर्क में नहीं आता इसलिए उससे ऊपर उठा हुआ दिखता है। संपर्क में आने पर जो अविचलित रहे वही संघर्ष में आए व्यक्तियों को अविचलित बनाने में अपना आदर्श उपस्थित कर सकता है। और आम लोगों पर उसका प्रभाव भी पड़ सकता है।

कर्मयोगी अपनी जरा सी लगती का भी प्रायश्चित करता है, गलती को दिखाने की सर्वसाधारण की सी उसकी आदत नहीं होती। जब वह अपनी गलती को सुधारने की प्रवृत्ति रखता है तब उसे दूसरे की गलती सहन कैसे हो सकती है। अतः वह दूसरों से भी उसका प्रायश्चित कराता है। ऐसे प्रायश्चित कठोर भी होते हैं परन्तु मन पर उनके संस्कार न पड़े इसलिए कठोरता का भी व्यवहार करता दिखाई देता हुआ अन्तर में अत्यन्त कोमल वृत्ति का होता है। पड़ने वाले संस्कारों की उपेक्षा न कर वह अपनी सहिष्णुता का परिचय देता है।

अपने साथ किये हुए व्यक्तियों के असद्व्यवहार को स्मरण रखने का उसका स्वभाव नहीं होता, क्योंकि उस व्यक्ति को तात्विक दृष्टि मिली रहने से वह उस व्यक्ति के प्रति रोष धारण नहीं रहता। उसके सद्व्यवहार में वह उसकी मानसिक स्थिति और समाजगत स्थिति का दर्शन करके वह उससे उसे ऊपर उठाने का प्रयत्न करता है।

इसी प्रकार पापी के प्रति उसमें घृणा का समावेश नहीं रहता। घृणा के स्थान को प्रेम घेरे रहता है परन्तु पाप के प्रति वह सतत जागरुक रहता है और उसके समूलोच्छेदन के लिए उसकी तत्परता बराबर क्रियाशील रहती है। अपराधी और पापी होना व्यक्तियों का स्वभाव नहीं होता बल्कि समाजगत स्थितियाँ मानव को नचाया करती हैं और उन्हीं के कारण वह ऐसे कार्य कर बैठता है जिनको उसे नहीं करना चाहिए। यद्यपि आरम्भ में उसके न करने के सम्बन्ध में उसमें क्षोभ रहता है, परन्तु स्थितियों से मुक्ति न पाने के कारण धीरे-धीरे क्षोभ कम होता जाता है तथा पाप और अपराध उसमें घर करते जाते हैं। कर्मयोगी उसके वास्तविक कारण से अवगत रहता है। इसलिए उसके मन में ऐसी किन्हीं वृत्तियों का उदय नहीं होता जो तामसिक या राजसिक हों।

क्रोध आदि कुछ वृत्तियाँ जो कर्मयोगी में दिखाई देती हैं वे तो सिर्फ ऊपर ही ऊपर रहती हैं उनका उसके अन्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे वृत्तियाँ समाज संस्कार के लिए आवश्यक होती हैं। समाजगत अपराध तथा पापों के संस्कारों को हटाने के लिए उन सब की आवश्यकता होती है।

संसार के दुःख द्वन्द्वों के प्रभाव से वह व्यक्ति मुक्त रहता है, यद्यपि सांसारिक जनों की तरह दुःख, सुख, चिन्ता विपत्तियाँ उसे घेरे रहती हैं परन्तु मन और भावनाओं को ऊपर रखने के कारण वे इनके प्रभाव से चंचल नहीं हो पातीं। अचल बनने की साधना ही वास्तव में कर्मयोग की साधना है।

हठयोग आदि योगों का स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं हैं। ये योग संयमी और सुपुष्ट बनाते हैं। संयमी जीवन की प्रत्येक प्रकार के योग में आवश्यकता हो सकती है। उसी प्रकार हठयोग के साधनों को समझना चाहिए।

तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति संघर्ष से घबराता नहीं। बल्कि संघर्ष कर अपने को सहिष्णु एवं निष्पाप बनाने की तैयारी करता है तो निश्चय ही योगी है। यह योग की वृत्ति यदि एकाँगी है, व्यक्तिगत शक्ति तक सीमित है, व्यक्ति से पृथक समाज की ओर उसका ध्यान नहीं है तो वह योग की पूर्णावस्था नहीं है। योग की पूर्णावस्था तो कर्मयोग में ही प्रतिष्ठित है।

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