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Magazine - Year 1950 - Version 2

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श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश

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जो हीन बुद्धि हैं, वे ही सिद्धाई चाहते हैं। बीमारी को अच्छा करना, मुकदमा जिता देना, जल के ऊपर से चलना-ये सब (सिद्धाई हैं)। जो भगवान् के भक्त हैं, वे ईश्वर के पादपद्मों को छोड़ कर और कुछ भी नहीं चाहते हैं। जिनकी थोड़ी बहुत सिद्धाई हो, उनकी प्रतिष्ठा-लोकमान्य होती है।

व्याकुल होकर भगवान् की प्रार्थना करो। विवेक के लिए प्रार्थना करो। ईश्वर ही लक्ष्य है, और सब अनित्य है, इसी का नाम विवेक है। जल-छादन (जल छानने के महीन कपड़े) से जल छान लेना होता है। मेला-कूड़ा कर्कट एक तरफ रहता है, और अच्छा जल दूसरे तरफ पड़ता है। तुम उनको (ईश्वर को) जान कर संसार को छोड़ो इसी का नाम विद्या का संसार है।

नाना मत हैं। ‘मत का पन्थ’ अर्थात् जितने मत हैं उतने ही पन्थ हैं। किन्तु सभी मानते हैं कि-‘मेरा मत ही ठीक है - मेरी ही घड़ी ठीक चल रही है।’

सत्य कथा - सत्य बोलना कलि की तपस्या है। कलियुग में अन्य तपस्या कठिन है। सत्य मार्ग पर रहने से भगवान् पाया जाता है।

अवतार या अवतार के अंश को ईश्वर कोटि कहते हैं, और साधारण लोगों का जीवन या जीव-कोटि। जो जीव कोटी के हैं, वे साधनाएं कर ईश्वर का लाभ कर सकते हैं। वे (निर्विकल्प) समाधि से फिर लौटते नहीं हैं।

जो ईश्वर कोटी हैं, वे मानो राजा के बेटे हैं, और मानों सात मंजिल वाले मकान की चाबी उनके हाथ में है। वे सातों मंजिलों तक चढ़ जाते हैं, फिर इच्छानुसार उतर भी आ सकते हैं। जीव कोटी मानो छोटे कर्मचारी (नौकर) हैं वे सात मंजिल के कुछ दूर तक पहुँच सकते हैं।

जनक ज्ञानी थे। साधनाएं कर उन्होंने ज्ञान लाभ किया था। शुकदेव थे ज्ञान की मूर्ति। शुकदेव का साधनाएं कर ज्ञान लाभ करना नहीं हुआ था। नारद में भी शुकदेव के जैसा ब्रह्मज्ञान था। किन्तु वह भक्ति लेकर था। लोकशिक्षा के लिए प्रहलाद कभी ‘सोऽहं’ भाव में रहते, फिर कभी दास भाव में और कभी सन्तान भाव में रहते थे। हनुमान की भी वैसी अवस्था थी।

भगवान् को लाभ करना हो तो संसार से तीव्र-वैराग्य चाहिये। जो कुछ ईश्वर के मार्ग के विरोधी मालूम हो, उसे तत्क्षण त्यागना चाहिये। पीछे होगा यह सोच कर छोड़ रखना ठीक नहीं है। काम-काँचन ईश्वर-मार्ग के विरोधी हैं। उनसे मन हटा लेना चाहिये।

दीर्घसूत्री होने से परमार्थ का लाभ नहीं होगा। कोई एक अंगोछा लेकर स्नान करने को जा रहा था। उसकी औरत ने उससे कहा कि- तुम किसी भी काम के नहीं हो, उम्र बढ़ रही है, अब भी यह सब (व्यवहार) छोड़ नहीं सके। मुझको छोड़कर तुम एक दिन भी नहीं रह सकते। किन्तु देखो, वह रामदेव कैसा त्यागी है। पति ने कहा-क्यों उसने क्या किया? औरत ने कहा-उसकी सोलह औरतें हैं। वह एक-एक करके उनको त्याग रहा है। तुम कभी त्याग कर नहीं सकोगे। जो त्याग करता है वह क्या थोड़ा-थोड़ा करके त्याग करता है? औरत से मुस्कराकर कहा-पगली, तू नहीं समझती है त्याग करना उसका काम नहीं है। अर्थात् उसके कहने से त्याग नहीं होगा, मैं ही त्यागकर सकूँगा। यह देख, मैं चल देता हूँ।’

इसी का नाम तीव्र वैराग्य है। उस आदमी को ज्यों वैराग्य आ गया त्यों−ही उसने त्याग किया। अंगोछा कन्धे में ही रहा कि वह चल दिया। वह संसार का कुछ ठीक-ठाक नहीं कर पाया। घर की ओर एक बार पीछे लौट कर देखा भी नहीं।

जो त्याग करेगा उसको मनोबल चाहिए। लुटेरों का भाव ! लूटने से पहले जैसे डाकू लोग कहते हैं, ऐ मारो ! लूटो ! काटो ! अर्थात् पीछे क्या होगा, इसका ख्याल न कर खूब मनोबल के साथ आगे बढ़ना चाहिये।

तुम और क्या करोगे? उनके (ईश्वर के) प्रति भक्ति और प्रेम लाभ कर दिन बिताना है। श्रीकृष्ण के अदर्शन से यशोदा पगली जैसी बनकर श्रीमती (राधा) के पास गई। श्रीमती ने उनका शोक देखकर आद्या शक्ति के रूप से उनको दर्शन दिया और उनसे कहा-‘माँ’ वर फिर क्या लूँ? तो इतना ही कहा कि-मैं तन, मन, वचन से कृष्ण की ही सेवा कर सकूँ, इन्हीं आँखों से उनके भक्तों का दर्शन हो। जहाँ-जहाँ उनकी लीलाएं हों इन पैरों से वहीं जा सकूँ। इन हाथों से उनके ही प्रेमी भक्तों की सेवा करूं। सब इन्द्रियाँ उन्हीं के दर्शन श्रवणादि में लगें।

इधर का (ईश्वरीय) आनन्द मिलने से उसको (वैषयिक) आनन्द अच्छा लगता है। ईश्वरी आनन्द लाभ करने से संसार नमक का (शाक जैसा) निःरस भान होता है। शाल मिलने से फिर वनात अच्छा नहीं लगता है।

जो संसार के धर्म संसार में रह कर ही धर्मावरण करना ठीक है यह कहते हैं वे यदि एक बार भगवान् का आनन्द पावें तो उनको फिर और कुछ अच्छा नहीं लगता। कर्म के लिए आशक्ति कम होती जाती है। क्रमशः ज्यों-ज्यों आनन्द बढ़ता जाता है त्यों-त्यों फिर कर्म भी कर नहीं सकते हैं केवल उसी आनन्द को ढूंढ़ते फिरते हैं। ईश्वरीय आनन्द के पास फिर विषयानन्द और रमणानन्द तुच्छ हो जाते हैं, एक बार स्वरूपानन्द का स्वाद तुच्छ कर उसी आनन्द के लिए व्याकुल होकर फिरते है, तब संसार गृहस्थी रहे चाहे न रहे ! उसके लिए कोई परवाह नहीं रहती है।

संसारी लोग कहते हैं कि-दोनों तरफ रहेंगे! दो आने का शराब पीने से मनुष्य दोनों ओर ठीक रहना चाहते हैं। किन्तु अधिक शराब पीने से क्या फिर दोनों तरफ नजर रखी जा सकती है?

ईश्वरीय आनन्द मिलने से फिर कुछ साँसारिक कार्य अच्छा नहीं लगता है। तब काम काँचन की बातें मानो हृदय में चोट सी लगती हैं। बाहरी बातें अच्छी नहीं लगती हैं। तब मनुष्य ईश्वर के लिए पागल होता है। रुपये पैसे कुछ भी अच्छे नहीं लगते हैं।

ईश्वर लाभ के बाद कोई संसार है तो वह होता है-विद्या का संसार। उसमें कामिनी-काँचन का प्रभाव नहीं रहता है, उसमें रहते हैं, केवल भक्ति, भक्त और भगवान्।

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