
प्रेम का प्रश्रय
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मैंने तुमको नहीं तुम्हारे, भोलेपन को प्यार किया है॥
शशि की सुन्दरता न कभी,
बस मधुर चाँदनी यश पाती है।
तारों का स्वर मन हर लेता,
बीणा कभी न हर पाती है॥
निर्झर कब आकर्षित करता,
आकर्षित कल-कल करती है॥
सागर भी खाली ही रहता,
पर सरिता उसको भरती है॥
नैया कभी न पार उतरती, लहरों ने खुद पार किया है॥
चित्र न कभी सुहाना लगता,
भाव सदा मन का भाते हैं।
स्वप्न किसी को नहीं लुहाते,
सुधि भाती जो देते जाते हैं॥
इन फूलों का आकर्षण क्या?
कोमलता खुद है आकर्षण!
इसी तरह तुम नहीं तुम्हारी,
कृतियाँ करती हैं मधु-वर्णन !!
सुन्दरता का नहीं, भावना का मैंने मनहार किया है॥
-के. एल. आर्य