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Magazine - Year 1950 - Version 2

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वर्तमान समय के षडरिपु

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(लेखक-श्री अमरचन्दजी नाहटा)

प्राचीन ऋषियों ने काम-क्रोध आदि षडरिपुओं से बचने के लिए उपदेश दिये हैं और वह सर्वथा उचित ही है, परन्तु वर्तमान काल में हमारे यहाँ और ही छः बड़े प्रबल भूत पैदा हो गये हैं, जो प्राणियों को अपने जाल में जकड़ कर बड़ी भर्त्सना कर रहे हैं। इस लेख में उन्हीं का संक्षेप में परिचय कराया जा रहा है। आशा है विवेकीजन अपने कल्याण के लिये इनसे बचते रहने का प्रयत्न करेंगे एवं इनके अधीन मानवों को इन शत्रुओं का परिचय कराके उनसे अलग रहने को, जान-बूझकर उन्हें अपने से दूर भागने की सलाह देंगे। वे षडरिपु इस प्रकार हैं - (1) फूट, (2) सट्टा, (3) फैशन (4)नशा (5) मुकदमेबाजी और (6) व्यभिचार। अब इनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है -

1- शास्त्रों में कहा है-‘संघे शक्तिः कलौयुग‘ अर्थात् कलियुग में संगठन एक बड़ी भारी शक्ति है, पर हमारे भारत में इसका निताँत अभाव है और फूट का ही बोल-बोला है। जाति-जाति में तो क्या घर-घर में कलह का साम्राज्य है। धर्म, जो कि सबको एक सूत्र में बाँधने का परम साधन है, मत-मताँतरों में बंट कर फूट को और अधिक बढ़ा रहा है। पहले जमाने के ग्रन्थों को पढ़ कर ज्ञात होता है कि उस समय इतनी फूट नहीं थी एक दूसरे से हिल-मिल कर रहने की प्रथा थी। दलबंदियाँ होती थी, भाई-भाई, बेटे-बाप में वैमनस्य प्रायः नहीं था इसीलिए उस समय के लोगों में भाईचारा विस्तृत था। परोपकार की वृद्धि अधिक मात्रा में थी। व्यक्तिगत स्वार्थ की मात्रा कम होकर बड़े-बड़े विशाल परिवार प्रेम से रहते थे, पर आज फूट ने हमारा सर्वस्व लूट लिया है।

2- पहले के जमाने में परिश्रम प्रधान पुरुषार्थ आजीविका का साधन था, पर आज लट्टेबाजी ने लाखों मनुष्यों को आलसी एवं अपव्ययी बना डाला है। गाढ़े परिश्रम की कमाई खर्च करते समय भी बड़ा विचार होता था, पर अब तो ‘दो बायें, चार खायें, तेरह लगायें’ इत्यादि जबान की लयालय से ही धन बरसने लगा समझते हैं तब शरीर को कष्ट देने अथवा पूँजी लगाने की आवश्यकता ही क्या? आज प्रत्येक नगर में देखिये सट्टेबाजी का बाजार गरम है। सारे शरह में चहल-पहल, भीड़-भाड़, हो-हल्ला वहीं नजर आवेगा जहाँ सट्टा होता है। मर्दों की कौन कहे, अब तो कहीं-कहीं घर की औरतें तक चाँदी के पाट का आखरों और न जाने कितने प्रकार के सट्टे करने में प्रवीण बन जाती हैं और सट्टा कर रही हैं। सट्टे में धन आते देर नहीं लगती और परिश्रम भी कुछ नहीं होता, अतः वह धन आते ही पानी की तरह बेपरवाह खर्च किया जाता है। पर चले जाने पर दिवाला निकाल कर घर का घाटा बाजार में बाँट दिया जाता है। सट्टेबाजी में दुश्चिन्ता और अशान्ति हर समय बनी रहती है, इसी से स्वास्थ्य पर भी बड़ा बुरा असर पड़ता है। बुरी संगति मिलने से अनेकों दुर्गुण घर कर लेते हैं। जीभ की चाट इतनी बढ़ जाती है कि चलते फिरते स्वादिष्ट वस्तुओं पर चाहे वह स्वास्थ्य को नष्ट करने वाली क्यों न हो, परन्तु दो-चार रुपये रोज खर्च कर डालना साधारण सी बात हो गई है। लुच्चे लफंगे बाबू साहिब के ही जरिये बन गये। वे भी माल उड़ाते हैं तथा घर के बच्चों की आदत भी प्रारम्भ से ही बिगड़ जाती है। इस प्रकार जीवन की बड़ी भारी बरबादी इस सट्टेबाजी ने कर दी यह हम सबके प्रत्यक्ष है।

3- आधुनिक दूषित शिक्षा प्रणाली के कारण

फैशन का फितूर ही प्रायः सब पर सवार हो गया है। घर की स्थिति चाहे कैसी ही क्यों न हो, हमको तो फैशन देवी के प्रेरणानुसार अपव्यय करना ही पड़ता है। पहले जमाने के लोग पाँच-सात रुपया महीना कमा कर भी अपना जीवन संतोष एवं शान्ति से बिताते थे, पर आज सौ-दो सौ रुपया मासिक पाने वाले व्यक्तियों के सिर पर हर समय ऋण का बोझा लदा रहता है। इसका प्रधान कारण महंगाई के साथ अपव्यय भी है। पहले प्रायः सभी लोग साधारण रोगों का इलाज स्वयं घर में ही कर लेते थे, वह भी साधारण जड़ी-बूटी और घरेलू सुलभ पदार्थों से ही, पर आज थोड़ी सी ही किसी के गड़बड़ी हुई और दौड़े डॉक्टर साहब को लाये। फैशन वाले व्यक्तियों के द्रव्य का ही अपव्यय होता है। पुरानी परिपाटी के व्यक्ति अपने पूजा-पाठ करने में काफी समय लगाते थे, पर आज हमारे फैशन के गुलाम बाबू साहबों को पूजा-पाठ करने का अवकाश ही कहाँ से मिले। उठते ही बीड़ी-सिगरेट व चाय पीने में समय लगता है, साबुन लगाने, टूथ पाउडर को रगड़ने, केश सम्भारने और रोज नाई का काम करने में ही आफिस का समय हो जाता है। उठते भी तो सूर्योदय के पीछे हैं। हमारी देवियाँ भी वैसी ही हो चली हैं-उन्हें पति की कमाई की क्या चिन्ता, रोज नई-नई साड़ी लाओ, शौक का सामान मंगाओ, सिनेमा देखने ले जाओ बच्चों को दिखाने के लिए भी नौकर चाहिए। घर का काम-काज तो करे ही कौन? कहाँ तक लिखा जाय। हमारी आवश्यकताएं बहुत अधिक बढ़ गई हैं उनकी पूर्ति में ही सारा जीवन बरबाद कर रहे हैं नित्य नये फैशन ने खरचे का पार नहीं रखा।

4- आज सौ में नब्बे पुरुष नशे के शिकार हैं। किसी को बीड़ी-सिगरेट, चिलम के धुंए का नशा है, तो किसी का चाय बिना काम नहीं चलता। अफीम, भाँग, चरस, गाँजा और मदिरा का भी बोल-बाला है। हिसाब करके देखा जात तो एक-एक नशे के पीछे करोड़ों रुपये खराब होते हैं। और स्वास्थ्य की बरबादी तो निश्चित ही है। मैंने हजारों मजदूरी और दूसरे शुद्ध कर्म करके पेट भरने वाले गरीबों की ओर लक्ष्य किया तो उनकी बरबादी का पहला कारण नशा ही पाया। दिन भर गाढ़ा परिश्रम करके जो थोड़ा बहुत पैसा कमाया, पर शाम हुई और गाँजे का दम लगाने तथा शराब पीने में सारी कमाई समाप्त हो गई। उनकी आर्थिक दशा सुधरे तो कैसे? घर का दरिद्र दूर हो तो कैसे? बच्चे, स्त्री तो घर में भूखों मर रहे हैं, पर नशेबाज के लिए तो कहावत प्रसिद्ध है -

‘घर के जाने मर गया, आपके आनन्द’

सचमुच नशा मनुष्य का बड़ा भारी शत्रु है।

5- मुकदमेबाजी वर्तमान सभ्यता की देन है। आप कचहरी जाकर इसका मजा देखिये- गरीब, अमीर सबकी मन्दिर, मस्जिद। आज कचहरी है। साधारण तुच्छ बातों के पीछे हजारों लाखों रुपया स्वाहा हो रहा है। जिसको चस्का लग गया - बस अपना नहीं तो पराया ही सही, मामला चलाये बिना नींद आती। झूठी गवाहियाँ देते-देते सारी जिन्दगी बीती जाती है। झूठ के बिना मामला चलता भी तो नहीं। धर्म गंमाओं, धन का नाश करो और हैरान होवो। तीन-तीन मजे इस रिपु रोज में हैं। फिर छूटे भी तो कैसे? हमारी बुद्धि का यहाँ दिवाला निकल जाता है। पुराने जमाने में पंचायत द्वारा बहुत सी समस्याएं हल कर ली जाती थी मोहल्ले की बरबादी होती न प्रपंच बढ़ता।

6- व्यभिचार यद्यपि षडरिपुओं के अंतर्गत काम का ही, यह भेद है, पर आज इसके प्रचार एवं परिणति में बड़ा भेद हो गया है। परस्त्री गमन का इतना अधिक प्रसार पूर्व काल में नहीं था। ‘राम’ शब्द विषय भोग की लिप्सा (स्वस्त्री सम्बन्धी) में ही प्रायः सीमित था, पर आज का वातावरण तो इतना दूषित हो चला है कि कुछ कहते नहीं बनता। यदि यह पाप-प्रवाह जल्दी नहीं रुका तो सती स्त्री और स्वदार संतोषी ब्रह्मचारी पुरुषों का नाम केवल ग्रन्थों में रह जायेगा। शहरों में ही नहीं, अब इस रोग ने गांवों में भी अड्डा जमा लिया है। मुझे लिखने में संकोच होता है, और परिस्थिति भयंकर नजर आ रही है। पाठक स्वयं विचार लें, मुझे बड़ा परिताप होता है, जब मैं साधु, महन्त और त्यागी कहे जाने वाले लोगों को भी इसी कीचड़ में फंसा देखता हूँ, जिनके विषय में वासना को उत्तेजित करने वाले समस्त कारणों पर गम्भीर विचार कर समाज का उस ओर विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करने के उचित उपाय खोज निकालने और बचाव के तरीकों का प्रचार करने की बड़ी आवश्यकता है। होली धाँय-धाँय करती हुई जल रही है, वातावरण को पवित्र बनाने की ओर हम सभी को कटिबद्ध हो जाना चाहिए।

आज तो खुलेआम व्यभिचार को बढ़ाने वाले साधनों का प्रचार हो रहा है। सिनेमा को ही लीजिए कितने गन्दे गाने इसके द्वारा प्रचलित हो रहे हैं इससे बच्चे स्त्रियों व पुरुषों को कितनी कुशिक्षाएं मिल रही हैं फिर भी सरकार द्वारा नित्य नये सिनेमा खोलने का प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इससे गाढ़ी कमाई के पैसों का कितना अपव्यय होता है व बदले में कितनी कुत्सित वातावरण का विकास होता है। हमारे नेतागण जरा ध्यान से सोचें।

इसी प्रकार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित विज्ञापनों की ओर नजर डालिये कामोत्तेजक औषधियां आदि के विज्ञापनों की ही भरमार मिलेगी। कहीं भी देखिये वस्तुओं पर लेबल देखिये सुन्दरी स्त्रियों के चित्र मिलेंगे। कहीं-कहीं तो वे चित्र अर्द्धनग्न से देकर व्यभिचार के प्रति आकर्षित किया जा रहा है। देश की उन्नति के लिए हमारे इन अवनति के कारणों पर विचार कर इनके उन्मूलन के लिए सरकार की ही नहीं प्रत्येक विवेकी व्यक्ति को कटिबद्ध हो जाना चाहिये।

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