
कहिए कम-करिये ज्यादा
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(ले. श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर)
मानव स्वभाव की एक बड़ी कमजोरी प्रदर्शन प्रियता है। बाहरी दिखावे को वह बहुत ज्यादा पसन्द करता है। यद्यपि वह जानता और मानता है कि मनुष्य की वास्तविक कीमत उसकी कर्मशीलता, कर्मठता है। ठोस और रचनात्मक कार्य ही स्थायी लाभ, प्रतिष्ठा का कारण होता है। दिखावा और वाक शूरता नहीं। यह जानते हुये भी उसे अपनाता नहीं। इसीलिये उसे एक कमजोरी के नाम से सम्बोधित करना पड़ता है।
प्रकृति ने मनुष्य को कई अंगोपाँग दिये हैं और उनसे उचित काम लेते रहने से ही मनुष्य एवं विश्व की स्थिति रह सकती है। पर मानव स्वभाव कुछ ऐसा बन गया है कि सब अंगों का उपयोग ठीक से न कर केवल वाक्शक्ति का ही अधिक उपयोग करता है। इससे बातें तो बहुत हो जाती हैं, पर तदनुसार कार्य कुछ भी नहीं हो पाता। हो भी कैसे वह करना भी नहीं चाहता और इसीलिये दिनों दिन वाक्शक्ति का प्रभाव क्षीण होता जाता है। कार्य करने वाले को बोलना प्रिय नहीं होता, उसे व्यर्थ की बातें बनाने को अवकाश ही कहाँ होता है? वह तो अपनी वाक्शक्ति का उपयोग आवश्यकता होने पर ही करता है। अधिक बोलने से वाक्शक्ति का महत्व घट जाता है। जिसकी जबान के पीछे धर्म शक्ति का बल होता है उसी का प्रभाव पड़ता है।
वस्तुतः कार्य करना एक साधना है। इससे साधित वाक्शक्ति मंत्रवत् बलशाली बन जाती है। साधक के प्रत्येक वाक्य में अनुभव एवं कर्म साधना की शक्ति का परिचय मिलता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में मौन का बड़ा महत्व है। जैन तीर्थंकर अपनी साधना अवस्था में प्रायः मौनावलम्बन करते हैं। इसी से उनकी वाणी में शक्ति निहित रहती है।
वर्तमान युग के महापुरुष महात्मा गाँधी के जबरदस्त प्रभाव का कारण उनका कर्मयोग ही है। वे जो कुछ कहते उसे करके बताते थे। इसी में सचाई का बल रहता है। इस सचाई और कर्मठता के कारण ही गाँधी जी के हजारों लाखों करोड़ों अनुयायी विश्व में फैले हुये हैं। गाँधी जी अपने एक क्षण को भी व्यर्थ न खोकर किसी न किसी कार्य में लगे रहते थे। और आवश्यकता होने पर कार्य की बातें भी कर लेते थे। इसी का प्रभाव है कि बड़े-बड़े विद्वान-बुद्धिमान एवं श्रीमान् उनके भक्त बन गये।
इसे हम बराबर देखते हैं कि केवल बातें बनाने वाला व्यक्ति जनता की नजरों से गिर जाता है। पहले तो उसकी बात का कुछ असर ही नहीं होता। कदाचित उसकी ललित एवं आकर्षक कथन शैली से कोई प्रभावित भी हो जाय तो बाद में अनुभव होने पर वह सब प्रभाव जाता रहता है। वाकशूर के पीछे यदि कर्मवीरता का बल नहीं तो वह पंगु हैं। जो बात कहनी हो उसको पहिले तोलिए फिर बोलिए। शब्दों को बाण की उपमा दी गई। एक बार बाण के छूट जाने पर उसे रोकना बस की बात नहीं। लोहे का बाण तो एक ही जन्म और शरीर को नष्ट करता है पर शब्द बाण तो भविष्य की युग युगीन परम्परा को भी नष्ट कर देता है।
यह सब ठीक होते हुए भी प्रश्न उठता है कि विश्व में वाकशूर ही क्यों अधिक दिखाई देते हैं। उत्तर स्पष्ट है-बोलना सरल है। इसमें किसी तरह का कष्ट नहीं होता। कार्य करने में कष्ट होता है अपनी रुचि वृत्ति-स्वभाव बुरी आदतों पर अंकुश लगाना पड़ता है। और यह बड़ा कठिन कार्य है इन्द्रियाँ स्वच्छंद हो रही हैं, विषय वासनाओं की ओर लपलपाकर बढ़ना चाहती हैं। इनका दमन किये बिना इच्छित और उपयोगी कार्य नहीं किया जा सकता। कष्ट एवं कठिनता होने पर भी जो हमारे व विश्व के लिये आवश्यक है वह तो करना ही चाहिये। अतः सच्चे कर्म योग का अभ्यास करने की आदत डालना आवश्यक है। अभ्यास ही सिद्धि का मूलमंत्र है।
कहना हम सब को बहुत आता है। पर करना नहीं आता या चाहते नहीं। केवल दूसरों की आलोचना एवं अपनी बातें बघारना ही हमारा मनसूबा बन गया है। हमारे पांडित्य में परोपदेश और विद्या ‘विवादाय’ चरितार्थ हो रहे हैं। इन्हें हमें आत्मसुधार और विश्व उद्धार में लगाना है। अन्यथा हमारा अध्ययन ‘आप बाबाजी बैंगन खावे औरों को प्रबोध सुनावें’ सा ही रहेगा।
कई कहते हैं- “हमारी कोई सुनता ही नहीं, कहते-कहते थक गये पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं अर्थात् उन पर कुछ असर ही नहीं होता”। मेरी राय में इसमें सुनने वालों से अधिक दोष कहने वालों का है। कहने वाले करना नहीं जानते। वे अपनी ओर देखें। आत्मनिरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा। वचन की सफलता का सारा दारोमदार कर्मशीलता में है। आप चाहे बोलें नहीं, थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइये। आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर खिंचे जा रहे हैं। अतः कहिये कम, करिये अधिक। क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा पर कार्य का स्थायी होता है। जैन योगी चिदानन्द जी ने क्या ही सुन्दर कहा है-
कथनी कथै कोई। रहणी अति दुर्लभ होई॥
अन्य कवियों ने भी कहा है-