
बहुमत की अपेक्षा धर्म श्रेष्ठ है।
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(लोकमान्य तिलक)
यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि यद्यपि आधिभौतिक विषयक सुख प्रत्येक को इष्ट होता है तथापि जब हमारा सुख अन्य लोगों के सुखोपभोग में बाधा डालता है तब वे लोग बिना विघ्न किये नहीं रहते। इसलिए कई आधिभौतिक पण्डित प्रतिपादन किया करते हैं कि यद्यपि स्वयं अपना सुख या स्वार्थ साधन ही हमेशा उद्देश्य है तथापि सब लोगों को समान रियायत दिए बिना सुख का मिलना संभव नहीं है। इस लिए अपने सुख के लिए ही दूरदर्शिता के साथ अन्य लोगों के सुख की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमें दुःख हुआ तो हम रोते हैं और दूसरों को हुआ तो हमें दया आती है। क्यों? इसलिए न कि जब हम पर भी आ बीतेगी तब वे हमारी सहायता करेंगे। हम अन्य लोगों पर इसलिए प्यार रखते हैं कि वे भी हम पर प्यार करें। और कुछ नहीं तो हमारे मन में अच्छा कहलाने का स्वार्थमूलक हेतु अवश्य रहता है। परोपकार और परार्थ दोनों शब्द केवल भ्रान्ति हैं। यदि मूलतः कुछ सच्चा है तो स्वार्थ। और स्वार्थ कहते है। अपने लिए सुख प्राप्ति या अपने दुःख निवारण को। माता बच्चे को दूध पिलाती है इसका कारण यह नहीं है कि वह बच्चे पर प्रेम रखती हो सच्चा कारण तो यही है कि उसके स्तनों में दूध के भर जाने से उसे जो दुःख होता है उसे कम करने के लिए अथवा भविष्य में यही लड़का मुझे प्यार करके सुख देगा इस स्वार्थ सिद्धि के लिए ही बच्चे को वह दूध पिलाती है। इस बात को दूसरे वर्ग के आधि भौतिकवादी मानते हैं कि स्वयं अपने ही सुख के लिए भी क्यों न हो परन्तु भविष्य पर दृष्टि रखकर ऐसे नीति धर्म का पालन करना चाहिए कि जिससे दूसरों को भी सुख हो। मनुष्य केवल विषय सुखरूप स्वार्थ के साँचे में ढला एक पुतला है। इंग्लैण्ड में हाब्स और फ्राँस में हेल्वेशियस ने इस मत का प्रतिपादन किया है। परन्तु इस मत के अनुयायी अब न तो इंग्लैण्ड में ही और न कहीं बाहर ही अधिक मिलेंगे।
हाब्स के नीतिधर्म की उत्पत्ति के प्रसिद्ध होने पर वाल्टर सरीखे विद्वानों ने उसका खण्डन करके सिद्ध किया कि मनुष्य स्वभाव केवल स्वार्थी नहीं है, स्वार्थ के समान ही उसमें जन्म से ही पर दया, प्रेम, कृतज्ञता आदि सद्गुण भी कुछ अंश में रहते हैं। इसलिए किसी का व्यवहार या कर्म का नैतिक दृष्टि से विचार करके केवल स्वार्थ या दूरदर्शी स्वार्थ की ओर ही ध्यान न देकर, मनुष्य स्वभाव के दो स्वाभाविक गुणों स्वार्थ और परार्थ की ओर नित्य ध्यान देना चाहिए। जब हम देखते हैं कि व्याघ्र सरीखे क्रूर जानवर भी अपने बच्चों की रक्षा के लिए जान देने को तैयार हो जाते हैं तब हम यह कभी नहीं कह सकते कि मनुष्य के हृदय में प्रेम और परोपकार बुद्धि जैसे सद्गुण केवल स्वार्थ ही से उत्पन्न हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि धर्म-अधर्म की परीक्षा केवल दूरदर्शी स्वार्थ से करना शास्त्र की दृष्टि से भी उचित नहीं है।
एक ही मनुष्य के सुख को न देख कर, किन्तु सब मनुष्य जाति के आधिभौतिक सुख-दुःख के तारतम्य को देख कर ही नैतिक कार्य-अकार्य का निर्णय करना चाहिए। एक ही कृत्य से एक ही समय में समाज के या संसार के सब लोगों को सुख होना असंभव है। कोई एक बात किसी को सुखकर मालूम होती है तो वही बात दूसरे को दुःखदायक हो जाती है। इसीलिए सब लोगों का सुख इन शब्दों का अर्थ “अधिकाँश लोगों का अधिक सुख” करना पड़ता है। जिससे अधिकाँश लोगों का अधिक सुख हो, उसी बात को नीति की दृष्टि से उचित और ग्राह्य मानना चाहिए और उसी प्रकार का आचरण करना इस संसार में मनुष्य का सच्चा कर्त्तव्य है कोई काम अच्छा है या बुरा, धर्म है या अधर्म नीति का है अथवा अनीति का इत्यादि बातों का सच्चा निर्णय उस काम के केवल बाहरी फल या परिणाम अर्थात् वह अधिकाँश लोगों को अधिक सुख देगा कि नहीं इतने ही से नहीं किया जा सकता, उसके साथ-साथ यह भी जानना चाहिए कि उस काम को करने वाले की बुद्धि वासना या हेतु कैसा है। एक समय की बात है कि अमेरिका में एक बड़े शहर में, सब लोगों के सुख और उपयोग के लिए, ट्रामवे की बहुत आवश्यकता थी, परन्तु अधिकारियों की आज्ञा पाये बिना ट्रामवे नहीं बनाई जा सकती थी। सरकारी मंजूरी मिलने में बहुत देरी हुई तब ट्रामवे के व्यवस्थापक ने अधिकारियों को रिश्वत देकर जल्द ही मंजूरी ले ली, ट्रामवे बन गई और उससे शहर के सब लोगों को सुविधा और फायदा हुआ, कुछ दिनों के बाद रिश्वत की बात प्रकट हो गई और उस व्यवस्थापक पर फौजदारी मुकदमा चलाया गया। पहली ज्यूरी पंचायत का एक मत नहीं हुआ इसलिए दूसरी ज्यूरी चुनी गई। दूसरी ज्यूरी ने व्यवस्थापक को दोषी ठहराया, अतएव उसे सजा दी गई। इस उदाहरण में अधिक लोगों को अधिक सुख वाले नीति तत्व से काम चलाने का नहीं क्योंकि यद्यपि घूस देने से ट्रामवे बन गई यह बाह्य परिणाम अधिक लोगों को अधिक सुख दायक था, तथापि इतने ही से घूस देना न्याय नहीं हो सकता। दान करने को अपना धर्म समझ कर निष्काम बुद्धि से दान करना और कीर्ति के लिए तथा अन्य फल की आशा से दान करना इन दो कृत्यों का बाहरी परिणाम यद्यपि एक सा हो, तथापि श्रीमद्भगवतगीता में पहले दान को सात्विक और दूसरे को राजसिक कहा है (गी-17-20-21) और यह भी कहा गया है कि यदि वही दान कुपात्रों को दिया जाय तो वह तामसिक अथवा अर्हित है।
हमारा यह कहना नहीं है कि अधिकाँश लोगों का अधिक शुभ या हित वाला तत्व बिल्कुल ही निरुपयोगी है। केवल बाह्य परिणामों का विचार करने के लिए उससे बढ़कर दूसरा तत्व कहीं नहीं मिलेगा, हमारा तो यह कथन है कि जब नीति की दृष्टि से किसी बात को न्याय अथवा अन्याय कहना हो तब केवल बाह्य परिणामों को देखने से काम नहीं चल सकता उसके लिए और भी कई बातों पर विचार करना पड़ता है, अतएव नीतिमत्ता का निर्णय करने के लिए पूर्णतया इसी तत्व पर अवलम्बित नहीं रहते। इसलिए इससे भी अधिक निश्चित और निर्दोष तत्व को खोज निकालना आवश्यक है।
गीता में जो यह भेद कहा गया है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है (गी 2-47)। उसका भी यही अभिप्राय है, यदि केवल बाह्य कर्मों पर ध्यान दें तो वे बहुधा भ्रामक होते हैं “स्नान, संध्या, तिलक, माला” इत्यादि ब्राह्म कर्मों के होते हुए भी, पेट में क्रोधाग्नि, का भड़कते रहना असंभव नहीं है। परन्तु यदि हृदय का भाव शुद्ध हो तो बाह्य कर्मों का कुछ भी महत्व नहीं रहता, सुदामा के मुट्ठी भर चावल सरीखे अत्यन्त अल्प बाह्य कर्म की धार्मिक और नैतिक योग्यता, अधिकाँश लोगों को अधिक सुख देने वाले हजारों मन अनाज के बराबर ही समझी जाती है।
इस बात को अधिक भौतिक सुखवादी भी मानते हैं कि शारीरिक सुख से मानसिक सुख की योग्यता अधिक है। पशु को जितने सुख मिल सकते हैं वे सब किसी मनुष्य को देकर उससे पूछो कि क्या तुम पशु होना चाहते हो, तो वह कभी इस बात के लिए राजी न होगा इसी तरह ज्ञानी पुरुषों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि तत्व ज्ञान के गहन विचारों से बुद्धि में जो एक प्रकार की शांति उत्पन्न होती है उसकी योग्यता, साँसारिक संपत्ति और बाह्योपभोग से हजार गुनी बढ़ कर है। यदि लोक मत को देखें तो भी यही ज्ञात होगा कि नीति का निर्णय करना केवल संख्या पर अवलम्बित नहीं है, लोग जो कुछ किया करते हैं वह सब केवल आधिभौतिक सुख के ही लिए नहीं किया करते। वे आधिभौतिक सुख ही को आपका परम उद्देश्य नहीं मानते। बल्कि हम लोग यही कहा करते हैं कि बाह्य सुखों की कौन कहे, विशेष प्रसंग आने पर अपनी जान की भी परवाह नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ऐसे समय में आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार जिन सत्य आदि नीति धर्मों की योग्यता अपनी जान से भी अधिक है, उनका पालन करने के लिए मनोनिग्रह करने में ही मनुष्य का मनुष्यत्व है।