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Magazine - Year 1950 - Version 2

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आत्मसंयम से जीवन लक्ष्य की सफलता

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(श्री सुरेन्द्र नाथ शर्मा)

आत्म-संयमी होना किसी भी श्रेष्ठ पुरुष को प्रथम लक्षण होता है। क्या आप किसी भी ऐसे महान व्यक्ति का उदाहरण इतिहास के पृष्ठों में दे सकते हैं जो आत्मसंयमी न रहा हो पर श्रेष्ठ हो। बिना आत्मसंयम के मनुष्य अपने ध्येय को, जो ऊंचा उठना है, कभी पहुँच ही नहीं सकता।

संसार में कोई भी नियम बिना आत्मसंयम के संभव नहीं। शारीरिक संयम भी उसकी बिना सहायता के नहीं चल सकता, यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति तनिक से आवेश में आकर अपनी शारीरिक शक्ति वृद्धि के लिये व्यायाम इत्यादि करना प्रारम्भ करदे परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् वह अपनी क्रिया स्वयं ही शिथिल होती जायेगी। क्योंकि वहाँ पर आत्म-संयम की न्यूनता है जिसकी पूर्ति अन्य शक्ति नहीं कर सकती। आधुनिक समय में हम चारों ओर मनुष्यों को इन्द्रियों का दास ही पाते हैं।

अधिकतर मनुष्य ऐसे हैं जो इन्द्रियों के प्रति अपने दासत्व में गौरव भी समझते हैं। वे बहुत शान और झूठे बड़प्पन के साथ कहते हैं क्या करें भाई सिगरेट तो हमारे जीवन की आवश्यकता बन गई है। बिना उसकी सहायता के हमें तो दस्त भी नहीं होता। एक और कालेज के छात्र को कहते हुये हमने सुना था कि बिना चाय के वह जीवित ही नहीं रह सकता। कितनी थोथी और लज्जास्पद बातें हैं। क्या मानव को इन छोटी-छोटी वस्तुओं का दासत्व इतना ग्रहण कर लेना चाहिये कि उनके बिना उसे अपना जीवन दूभर प्रतीत होने लगे। क्या ऐसे ही आत्म-बल पर किसी बड़ी सफलता की आशा की जा सकती है।

समाचार पत्रों में नित्य-प्रति ऐसी ही घटनायें देखने में आती हैं कि अमुक व्यक्ति ने रेल से कट कर आत्म-हत्या कर ली अथवा आवेश में आकर स्वयं भी मरा और अपने भाई को भी मार डाला। यह सब आत्मसंयम की कमी के कारण ही होता है। यदि परिस्थिति में मनुष्य सोच-विचार तथा दृढ़ता से काम ले तो वह अनेक संकटों से बच सकता है। क्रोध हमें चुनौती देता है कि देखो तुम प्रबल हो अथवा मैं शक्तिशाली हूँ। ईर्ष्या हमारी दबी हुई क्षुद्रताओं को पुनर्जीवित करना चाहती है। क्या इनके प्रभुत्व को स्वीकार करके हम अपने आप को कापुरुष सिद्ध करना चाहते हैं। हमारे लिये इससे अधिक बुरी बात क्या हो सकती है कि हम इन्द्रियों की दासता में पड़े रहने के कारण अपनी उन्नति में स्वयं बाधक बनें। हमारी कितनी ही छोटी से छोटी कमजोरियाँ जीवन को भ्रष्ट कर नाश करने में उतनी ही सफल हो सकती हैं जैसे बड़े जहाज को डुबोने के लिये एक लघु छिद्र की उपस्थिति। कठिनाई के समय ही तो आत्म-संयम की परीक्षा है और उस समय अभ्यासी ही विजयी होते हैं आत्मसंयम के लिए हमें निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए और जिस तरह अपनी वासनायें, बुराइयों, कमजोरियों और बुरी आदतों पर काबू पाया जा सके उसके लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। पूर्ण संयमी तो ईश्वर ही कहा जा सकता है। परन्तु हर पिता अपने पुत्र में गुण देखकर प्रसन्न होता है। ईश्वर भी अपने गुण अपने पुत्र में उदित देख कर अत्यन्त प्रसन्न होता है और उसकी पर्याप्त सहायता करता है। मनुष्य को चाहिये कि वह ईश्वर की दी हुई आन्तरिक प्रेरणा पर अग्रसर रहे इस मार्ग पर चलने वाला एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

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