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Magazine - Year 1950 - Version 2

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भोजन की सूक्ष्म शक्ति

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(डॉक्टर लक्ष्मी नारायण टंडन, प्रेमी, एम.डी.)

विषय के स्पष्टीकरण के लिए भोजन तथा उपवास सम्बंधी दो-चार वस्तुयें मोटे तौर पर जान लेना चाहिए। अन्न उसे कहते हैं जिसे लोग खाएं या जो लोगों को खाएं, बेसमय, बेहिसाब तथा अखाद्य हम खाते हैं इससे शरीर में विकार संचित होता है। विटामिनों की कमी तथा प्राकृतिक लवणों के अभाव से भी ऐसा होता है। इससे शरीर में रोग होता है। जो अन्न के ही दुरुपयोग का कारण है तब अन्न हमें खाने लगता है। यदि प्राकृतिक ढंग से अन्न का प्रयोग हम करें तो हम उसे खायेंगे। भोजन की वस्तु, मात्रा और कब खाएं? आदि बातें हम ठीक से नहीं समझते तो भोजन हमें खायेगा ही।

भोजन सम्बन्धी दो दृष्टि कोण हैं-एक पूर्वीय तथा दूसरा पाश्चात्य। मोटे तौर पर भोजन का भारतीय विभाजन है - सूक्ष्म भोजन तथा स्थूल भोजन। आकाश तत्व, वायु तत्व, अग्नि तत्व तथा जल तत्व द्वारा भी हम भोजन पाते हैं। यह भी भोजन है जिसे सूक्ष्म भोजन कहते हैं। स्थूल भोजन में शाक, कंद, तरकारी, फल, दूध, अन्न आदि हैं। पाश्चात्य लोग स्थूल भोजन को ही भोजन मानते हैं। उनका विचार है कि स्थूल भोजन से ही शरीर कायम है। तथा प्रोटीन सब से अधिक आवश्यक है - यह हमें शक्ति देता, गर्मी देता तथा कोषाणु आदि बनाता है - भोजन के विषय में यह तो रहा पश्चिमीय मत। पर पूर्वीय मत से प्रोटीन शक्ति और गर्मी देता है, यह बात मान्य नहीं है। वह केवल माँस बनाती है तथा कोषाणुओं की पूर्ति आदि करती है यह पूर्वीय मत है। हम जानते हैं कि लम्बे उपवास काल में मनुष्य का माँस तथा वजन तो अवश्य कम होता जाता है, पर मनुष्य की स्फूर्ति तथा शक्ति में कमी नहीं होती, वरन् उल्टे वृद्धि होती है। सम्भव है हमारी बात सुन कर कुछ लोग हंसे, किन्तु सत्य सदा सत्य ही रहेगा।

भोजन से तीन वस्तुयें बनती हैं- (1) पैखान (2) उससे सूक्ष्म से माँस आदि (3) तथा उससे भी सूक्ष्म से मन बनता है - यह शास्त्रीय मत है। उपवास काल में गर्मी का ज्यों का त्यों बना रहना तथा शक्ति का भी ज्यों का त्यों बना रहना यह प्रमाण पूर्वीय मत की सत्यता का कि (केवल माँस घटना) भोजन से केवल माँस बनता है प्रतीक है।

हिमालय पर्वत की खोहों में अनेक योगी आकाश, वायु, अग्नि तत्व, तथा जल से ही सूक्ष्म भोजन प्राप्त करके जीवित ही नहीं, दीर्घजीवी रहते हैं। सूक्ष्म भोजन होने का तथा उसकी अपेक्षा अधिक महत्ता का यह प्रमाण है।

स्थूल भोजन के भी दो भेद होते हैं- (1) क्षार प्रधान (2) अम्ल प्रधान। यह अम्ल शरीर में खुरचने का काम करते हैं एक प्रकार की गर्मी तथा एक प्रकार का विष अम्ल पैदा करते हैं। दूसरे प्रकार के भोजन क्षारमय है। यह रक्त को शुद्ध करते और बढ़ी हुई गर्मी को कम करते हैं।

नारियल की गरी को छोड़ कर शेष गरीदार मेवे सब एसिड हैं। गरी सूखी हो या कच्ची क्षारमय हैं। अनाज भी अम्ल पैदा करते हैं। केवल मात्रा कम और अधिक होती है। विभिन्न अनाजों में दालें (द्विदल) सब से अधिक अम्ल पैदा करती हैं। दालों में उत्तमता की दृष्टि से मसूर, फिर मूँग, फिर उरद, फिर अरहर और फिर चना है। इसके बाद गेहूँ का नम्बर आता है। और तब जो। चावल में एसिड सब से कम होता है। मनुष्य को 80 प्रतिशत क्षार तथा 20 प्रतिशत अम्ल चाहिए। पर प्रायः अनाज ही अधिक खाया जाता है। यह हानिप्रद होगा या लाभप्रद इसे हम सरलता पूर्वक समझ सकते हैं। क्षार प्रधान भोजन में सब से अधिक शाक में, फिर हरी तरकारी में, फिर सूखी तरकारी (आलू, घुइंया, शकरकंद) और तब दूध में है। अधिक औटाया दूध भी अम्ल प्रधान होने लगता है। मिट्टी और मिट्टी से उत्पन्न हुई वस्तुएं ही अनाज और फिर कंद तथा मूल ही पृथ्वी तत्व में है। क्षार युक्त चीज भी यदि अधिक तली-भुनी जायं तो अम्ल हो जाती है। इसे स्वाभाविक रूप से ही खाएं अधिक महीन न करे न नफरत दिखावें। 1 अनाज 2 कंद मूल, 3 फल तथा शाक यह उत्तमता का क्रम है। इनके प्रयोग में धीरे-2 कमी करते जाय-अर्थात् अनाज की मात्रा घटाई जाय धीरे-2 से और फल तथा शाक आदि की मात्रा बढ़ाता जाय। ऐसा करते ही प्रकृति की ओर लौटो, का सिद्धान्त हमारे द्वारा पालन होने लगेगा।

इन्द्रिय-जन्य-ज्ञान प्रायः बड़ा भ्रामिक होता है। तभी एक समय न खाने पर कमजोरी लगने को हम वास्तविक कमजोरी मान बैठते हैं। इसी से साधक को धीरे-धीरे 1 से 2, 2 से 4 और 4 से 8 तक आने पर यकायक उथल पुथल नहीं होगा। इसी से यकायक भोजन में परिवर्तन करके धीरे-धीरे हेर फेर करना उचित है।

उपवास का सिद्धान्त भी यहीं से प्रारंभ हो जाता है। उपवास के माने ही हैं (उप-समीप-वास-बैठना) आत्मा के अधिक से अधिक समीप बैठना लम्बे उपवास करने के पूर्व चाहिए कि कुछ दिनों सुबह 9-10 बजे तक फलों या शाकों का रस 12-1 बजे तक कंद, मूल, फल, शाक आदि तथा तीसरी बार 7-8 बजे रात को अन्न लिया जा सकता है। यदि यह क्रम मनुष्य जीवन भर रखे तो कभी अस्वस्थ न हो। दूध, जल तथा रस भी घूँट-घूँट पीने से अधिक पोषण देगा।

एक दम गट-गट तथा बहुत सा पीने से वह पोषण और शक्ति नहीं देगा। जल से पेशाब, फिर उससे सूक्ष्म से रक्ताँश (यह रक्त का घनत्व ठीक रखता) और उससे सूक्ष्म से प्राण बनता है ऐसा शास्त्र कहते हैं। अग्नि से हड्डी, फिर मज्जा और उससे सूक्ष्म वाक् (बोलने की शक्ति) का निर्माण होता है। पानी को शरीर अधिक शोषण नहीं करता और अधिक लाभ न करेगा यदि हम अधिक अन्न खाते हैं या शरीर में अधिक विकार है तो जल की अधिक मात्रा आवश्यक है।

जब गर्मी अधिक होती है तब भूख कम लगती है। यह प्रमाणित करता है कि अग्नि (सूक्ष्म) होने पर अन्न की कम आवश्यकता है। हम जाड़ों में अधिक खाते हैं क्योंकि कपड़े अधिक पहनने से हमारे शरीर के रोंये ढके रहते हैं और वायु तत्व को वह कम ग्रहण कर पाते हैं। रोम कूपों से अग्नि शरीर में कम पहुँच पाती है क्योंकि सूर्य कम देर आकाश में रहता है। जाड़े में आदमी जल कम पीता है। अतः सूक्ष्म भोजनों की कमी के कारण प्रकृति द्वारा बाध्य होकर हम जाड़ों में स्थूल भोजन अधिक खाते हैं।

यह बात यदि हम याद रखें तो बड़ा लाभ हो कि जितनी ही सूक्ष्म वस्तु हम ग्रहण करते हैं उतनी ही हममें शक्ति बढ़ती है। सेब या अनार फल के रूप में खाने से सेब या अनार का रस अधिक लाभ प्रद होता है।

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