
त्याग द्वारा ही शक्ति प्राप्त हो सकती है।
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(श्री लालजीराम शुक्ल)
मनुष्य के मन में जितनी शक्ति है उसका न तो उसे कभी ज्ञान हो पाता है और न वह उसका उपयोग कर पाता है। जितनी शक्ति हमारे मन में है, उसका क्षुद्र भाग ही हम जानते हैं और उसी से हम अपना काम चलाते हैं। एक मनुष्य और उस मनुष्य के व्यक्तित्व में और कोई भी भेद नहीं है, भेद केवल अपनी शक्तियों का साक्षात्कार करने का है। हम जितनी शक्ति प्रकृति से माँगते हैं उतनी शक्ति हमें मिलती है और जितनी हम नहीं माँगते उतनी नहीं मिलती। परन्तु प्रकृति हमारी माँग के साथ-साथ यह भी देखती है कि उस शक्ति का उपयोग क्या करेंगे। कहा जाता है कि ‘खुदा गंजे को नाखून नहीं देता’। इसी प्रकार प्रकृति उस व्यक्ति को अलौकिक शक्ति नहीं देती जो उसका सदुपयोग करना नहीं जानता। जो व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ही अपनी सारी मानसिक शक्तियों को काम में लाना चाहता है वह उन शक्तियों का अपने आप में जागरण नहीं कर पाता। जिस व्यक्ति के कार्यों का लक्ष्य जितना महान् होता है; उसके मन में अनायास उतनी ही अधिक शक्ति आ जाती है।
संसार का यह अटल नियम है कि देने और लेने पर पलड़ा सदा बराबर रहता है। जहाँ कुछ खर्च और त्याग नहीं होता वहाँ प्राप्ति भी नहीं होती। जो मनुष्य अपना धन दूसरों की सेवा में खर्च करता है वह लोक सम्मान और लोक ख्याति को प्राप्त करता है। लोक-सेवा लोकप्रियता लाती है। इसी प्रकार संसार के साधारण सुखों का त्याग मनुष्य को अलौकिक मानसिक शक्ति का जागरण करता है। हमारे त्याग से लौकिक सफलता और लौकिक सुख सुलभ हो जाते हैं। परन्तु जो व्यक्ति अपने आपको इन सुखों और सफलता में भुला देता है वह फिर अपनी उस शक्ति को खो देता है जिसके कारण ये सुलभ हुए।
मनुष्य का जितना त्याग होता है उसकी शक्ति भी उतनी ही अधिक होती है। बिना किसी त्याग के किसी प्रकार की मानसिक शक्ति का विकास नहीं होता। विद्या में लगन मनुष्य को विद्वान बनाता है, धन में लगन धनवान, इसी प्रकार आत्मज्ञान में लगन रखने वाले व्यक्ति को आत्म-ज्ञान होता है। सभी बातों की प्राप्ति के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। बहुत से लोगों में संकल्प सिद्धि होती है। यह सिद्धि उन्हीं लोगों में पाई जाती है जिन्हें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं रहता। मनुष्य की वैयक्तिक इच्छाएं उसके मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प पैदा करती हैं। इन संकल्प-विकल्पों में उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है। जब तक मनुष्य की शक्ति एक ओर केन्द्रित नहीं होती वह कोई भी बड़ा कार्य करने में समर्थ नहीं होता। परन्तु अपनी शक्ति को एक ओर केन्द्रित करने के लिए अपने लक्ष्य को व्यापक और ऊँचा बनाना आवश्यक है।
विचार की शक्ति से मनुष्य अपने अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्त हो जाता है। वह अनेक प्रकार के रोगों का अन्त कर सकता है। इसमें वह अपनी स्मरण-शक्ति को अतुलित बना सकता है। वह दूसरे लोगों के विचारों को भी जान सकता है। वह अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को सरलता से ही हल कर सकता है। परन्तु इन सब बातों के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। जहाँ त्याग नहीं वहाँ किसी प्रकार की प्राप्ति भी नहीं होती। मनुष्य का मन त्याग से बली होता है और ग्रहण से निर्बल होता है। जब मनुष्य का मन भोगासक्त हो जाता है तो उसमें निर्बलता आ जाती है। ऐसे व्यक्ति को अनायास कोई अभद्र विचार आ घेरता। फिर इन विचारों के अनुसार व्यक्ति संसार में यन्त्रणा पाने लगता है। मनुष्य जब अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है तो उसमें त्याग की मनोवृत्ति अपने आप ही आ जाती है। इस मनोवृत्ति के आने पर मन का भार उतर जाता है। फिर मन में वह बल आ जाता है जिसके कारण वह शुभ निर्देशों को ग्रहण कर सके। निर्बल मन के व्यक्ति को बुरे ही विचार सूझते हैं और प्रबल मन के व्यक्ति को भले विचार सूझते हैं।
मनुष्य के मन की अलौकिक शक्ति को उसके रोग के उत्पादन और उसके विनाश में देखा जाता है। कितने ही मनुष्य ऐसे रोगों के भय से मर जाते हैं जो उन्हें अन्यथा घातक न होते। प्लेग के भय से जितने लोग मरते थे उतने प्लेग से नहीं मरते थे। फिर कितने ही लोग अपने आपके जीने के दृढ़ निश्चय से घातक रोगों से बच जाते हैं। पर इस प्रकार का दृढ़ निश्चय वैयक्तिक इच्छामात्र से नहीं आता। इसके लिए समष्टि की इच्छा की आवश्यकता होती है जिस व्यक्ति का जीना उससे सम्बन्ध रखने वाले अनेक लोग चाहते हैं वह मृत्यु उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी लोग चाहने लगते हैं वह देव लोक चला जाता है। उसका अपना चाहना भी उसी ढंग का हो जाता है जिस प्रकार का दूसरे लोगों का उस विषय में चाहना होता है। यह चाहना कभी-कभी फल का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार मृत्यु का भय भी आन्तरिक मन की इच्छा का प्रतीक है।
मनुष्य अपने अभद्र विचारों से सरलता से मुक्त नहीं होता। इसके लिए भी त्याग की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति जितना ही अधिक त्याग करता है वह अपने विचारों को उतना ही अधिक सृजनात्मक बना लेता है। जीवन के सभी संकल्पों और इच्छाओं का त्याग कर देना मनुष्य को दैवी शक्ति प्रदान करता है। परोपकार के निमित्त लाये गए विचारों में जो बल होता है वह स्वार्थयुक्त विचारों में नहीं रहता। यही कारण है कि किसी भी सन्त महात्मा के दर्शन का एक लाभ यह होता है कि हममें भी उसी प्रकार के त्याग की शक्ति आ जाती है जो महात्मा में होती है। मनुष्य के जिस प्रकार दुर्गुण संक्रामक होते हैं उसके सद्गुण भी संक्रामक होते हैं। चतुर और चालाक मनुष्य अपने आस-पास के लोगों में चतुराई और चालाकी के विचार फैला जाता है और सरल, चित्त व उदार व्यक्ति अपने आस-पास के लोगों में सरलता और उदारता फैला जाता है।
परन्तु यह बात निश्चित है कि बिना दिए कुछ नहीं मिलता। मानसिक रोगों की चिकित्सा में देखा गया है कि जो लोग मैत्री भावना का अभ्यास करते हैं, वे मानसिक रोगों से सरलता से मुक्त हो जाते हैं। मैत्री भावना का सक्रिय होना आवश्यक है। मैत्री भावना से त्याग करना सरल हो जाता है। इससे रोगी का मन बलवान होता है। फिर जब रोगी का मन बली हो जाता है तो उसे किसी भी प्रकार के सन्निर्देश प्रभावित करते हैं। वे उसके आरोग्य को बढ़ाते हैं। उसके विचारों में उसे आरोग्य प्रदान करने की शक्ति तब आ जाती है जब वह उसके लिए पर्याप्त त्याग करता है। जिस व्यक्ति को मृत्यु का भय सताता हो वह यदि अपने जीवन का उद्देश्य लोक-सेवा बना ले तो उसकी मृत्यु का भय ही नष्ट हो जाय। जिस व्यक्ति को मनुष्य जोर से पकड़े रहता है उसी के विषय में उसे भय होता है। जीवन-मरण के प्रति उदासीनता का भाव मनुष्य को मृत्यु के प्रति निर्भीक बना देता है।
यदि मनुष्य चाहे तो अपने संपर्क से किसी भी व्यक्ति के विचार बदल दे। परन्तु यह तभी होता है जब उसका जीवन तप और त्यागमय होता है। जिस मनुष्य का अपने आपके विचारों पर जितना अधिक अधिकार होता है, उसका दूसरे व्यक्ति के विचारों पर भी उतना ही अधिक अधिकार होता है। अपने विचारों पर अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी वासनाओं से मुक्त होना पड़ता है। जब तक मनुष्य का विचार इच्छा से नियन्त्रित रहता है तब तक उसका मन डावाँडोल रहता है, ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर भी कोई प्रभाव नहीं पल पाता। इच्छा का त्याग करने पर अपने विचार परमात्मा के विचार बन जाते हैं। फिर वे अपने आपके संपर्क में आने वाले लाखों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार भगवान कृष्ण, बुद्ध, कबीर, कृष्ण आदि के विचार आज भी संसार के लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं। वे दूसरे लोगों के हृदय पर इसलिए अधिकार कर लेते हैं क्योंकि उनके विचारों में व्यक्तिगत स्वार्थ की शून्यता है।
कितने ही लोग जप, होम, यज्ञ आदि से विचार की शक्ति का विकास करते हैं। इस प्रकार जो शक्ति बढ़ती है वह क्षणिक होती है। यह एक प्रकार से आत्म-निर्देश से अपनी शक्ति को बढ़ाना है। परन्तु इस शक्ति को स्थायी रखने के लिए सतत त्याग की आवश्यकता है। सच्ची शक्ति तो मनुष्य को आत्मा से ही मिलती है। जो मनुष्य सोचता है कि उसकी आत्मा भली है, उसका लक्ष्य भला है वह महान शक्ति का केन्द्र हो जाता है। इसके प्रतिकूल जो व्यक्ति सोचता है कि उसका कार्य निन्द्य है वह अपनी मानसिक शक्ति को खो देता है। आत्म प्रसाद से बढ़कर शक्ति वृद्धि का दूसरा कोई साधन नहीं और आत्म-भर्त्सना से अधिक घातक शक्ति विनाश का कोई दूसरा अस्त्र नहीं है। आत्म-भर्त्सना एक प्रकार का क्षय रोग है, जो मनुष्य की सभी मानसिक और शारीरिक शक्ति को नष्ट कर डालता है।
मनुष्य की शक्ति उसके आत्म-निर्देश और निश्चय पर निर्भर करती है। तप और त्याग से निश्चय की दृढ़ता आती है और प्रतिदिन के आत्म निर्देश से यह दृढ़ता और भी बढ़ती जाती है। किसी भी कार्य में सफल होने वाले व्यक्ति का निश्चय दृढ़ होता है और उनमें आत्म-निर्देश की शक्ति प्रबल होती है। मनुष्य का पहले निश्चय डावाँडोल होता है, पीछे उसके सभी काम खराब होते हैं। निश्चय का ढीला पड़ जाना स्वार्थपरायणता के कारण होता है। निश्चय की शक्ति मनुष्य के त्याग के ऊपर निर्भर करती है। जब मनुष्य में त्याग की कमी हो जाती है तो उसका आत्म-विश्वास भी कम हो जाता है। इसके साथ-साथ उसके निश्चय की कमी हो जाती है। फिर उसके आत्म-निर्देश रचनात्मक न होकर नकारात्मक होने लगते हैं। इस प्रकार उसकी आध्यात्मिक शक्ति का ह्रास हो जाता है।
मानसिक शक्ति के बढ़ने के विषय में एक बात सदा ध्यान रखने की यह है कि संसार के लोगों को कोई भी मनुष्य धोखा दे सकता है। परन्तु वह अपने आपको धोखा नहीं दे सकता। मनुष्य को जो अलौकिक शक्ति प्रकृति से प्राप्त होती है वह उसके दैवी स्वत्व की देन है। यह उसकी आत्मा ही है। यह सब कामों की साक्षी है। मनुष्य जितना अपने इस साक्षी स्वत्व को ध्यान में रखकर काम करता है वह अपनी शक्ति को उतना ही अधिक बढ़ा लेता है। जितना ही मनुष्य अपने सच्चे स्वत्व की प्राप्ति की चेष्टा करता है वह उतना ही अधिक शक्ति वान भी होता है। जिस मनुष्य के जीवन के ध्येय व्यापक हैं वह अवश्य ही असाधारण कार्य करने में समर्थ होता है। वह प्रकृति से ऐसी शक्ति भी पा लेता है। परोपकारी व्यक्ति ही बलवान और सुखी होता है; स्वार्थी मनुष्य सदा बलहीन और दुखी रहता है।