
हमारी भूल
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(श्री विष्णुदत्त खन्ना, दिल्ली)
आज का संसार सुख-शाँति और कल्याण का धाम बनने के स्थान पर दुःख, रोग तथा अशाँति का केन्द्र बना हुआ है। चारों ओर निराशा के बादल सर्वदा छाये रहते हैं। फिर भी मानव यह नहीं सोचता कि ऐसा क्यों? और स्वार्थवश आँखों को मूँदे अन्धकार में बढ़ता चला जा रहा है। जिस शाँति की ढूँढ़ है उससे दूर ही दूर भाग रहा है। यह नहीं सोचता कि संसार में सुख के बदले दुःख क्यों? स्वास्थ्य के बदले रोग क्यों? आशा के स्थान पर निराशा क्यों? निराशावश यही सोचता है कि इस दुःख भरे संसार में न कोई परमात्मा है और न कोई दिव्य शक्ति। इसके साथ ही साथ वह अपने भाग्य को भी कोसता है। प्रत्येक सफलता को वह अपने परिश्रम का फल कहता है और विपरीत परिणाम को विधाता की क्रूरता बताता है। यह सब क्यों? क्या यह अनर्थ नहीं? यह विचारशील प्रश्न है।
इस अवस्था का सर्वप्रथम जो कारण दिखाई देता है वह है मानव की मनोवृत्ति! मानव शब्द ही मन से बना है। “जैसी-जैसी जिसकी मनोवृत्ति होगी वैसा ही उसका जीवन होगा” ऐसा हमारे ऋषि-मुनि कह गये हैं और ऐसा ही वेद उपनिषद् तथा अन्य शास्त्र बताते हैं। इस सर्व सत्य कथन को हम भूलकर संसार में उस अप्राप्य वस्तु को ढूँढ़ रहे हैं जिसे आनन्द-घन भगवान ने हमारे अन्तःकरण में ही रखा हुआ है (अर्थात् पुस्तक बगल में ढिंढोरा शहर में) हम उस सुख, शाँति और कल्याण को बाह्य वस्तुओं में ढूँढ़ते फिरते हैं जो स्वयं नाशवान् है। यह हमारी भूल है।
हम अपने अन्दर नहीं देखते कि भगवान् ने एक कभी समाप्त न होने वाला आनन्दमय कोष हमारे शरीर में ही हमें दे दिया है। हम उस कोष को एक कंजूस की तरह दबाए बैठे हैं और ढूँढ़ते हैं बाह्य वस्तुओं में उस आनन्द को! कैसे मिले वह अमूल्य वस्तु, जिन्हें हम ढूँढ़ते फिरें जंगलों में, पर्वतों में, कंदरों में। कस्तूरी तो मृग की अपनी नाभि में है परन्तु भटकता फिरता है वह उसकी प्राप्ति के लिए इधर से उधर। बाहर ढूँढ़ने से उसे कहाँ मिलेगी? यही अवस्था इस समय मानव की है जो अपने अंतःकरण में छिपे आनन्दमय कोष को बाह्य वस्तुओं में ढूँढ़ता फिरता है।
अब हमें इस अवस्था पर भी विचार करना है कि यह सर्वश्रेष्ठ मानव अपने आँतरिक आनन्दमय कोष को भूलकर बाह्य वस्तुओं में क्यों भटक रहा है? इसका कारण भी मन तथा मनोवृत्ति ही है। मन जल-तत्व होने के कारण अधोगति ही है। जैसे जल प्रायः नीचे की ओर ही जाता है। वह ही जल जब सूर्य की शरण लेता है तो सूर्य अपनी किरणों द्वारा उसे ऊपर की ओर खींचता है। इसी प्रकार मानव भी जब तक तपोबल की शरण नहीं लेता उसकी मनोवृत्ति कभी ऊपर को नहीं उठ सकती और न वह सच्चिदानन्द को ही प्राप्त कर सकता है, जिसकी खोज में वह इधर-उधर भटक रहा है।
उस तपोबल तथा ब्रह्मतेज को प्राप्त करने के लिए भी मानव को सर्वप्रथम अपनी अन्तरात्मा का अन्वेषण करना पड़ता है। जब तक अपना ध्यान बाह्य वस्तुओं से हटाकर अंतःकरण में नहीं लगाता तब तक मानव तपोबल या ब्रह्मतेज को नहीं प्राप्त कर सकता जो कि उसके आनन्द का साधन है जिसकी खोज उसे दिन-रात चिन्तित कर रही है।
वह अखण्ड आनन्द तो तभी प्राप्त होगा जब मनोवृत्ति अधोगति का परित्याग करके तपोबल द्वारा ऊपर की ओर बढ़ेगी। अर्थात् उसके कर्म तथा विचार दोनों ही साथ ही साथ उच्च होंगे। कर्म भी उच्च हो और ज्ञान भी उच्च हो, तो वह आनन्द स्वयमेव अनुभव होने लगता है। जैसे कि ईशावास्योपनिषद् में कहा है :-
विद्याँचाविद्याँच यस्तद्रे दो भयं सह!
अविद्यया मृत्युँ तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते!!
अर्थात् कर्म तथा ज्ञान दोनों को जो एक साथ रखता है वह कर्म से तो मृत्यु को जीतता है और ज्ञान से उस अमृत रूपी आनन्द को प्राप्त करता है।
अग्रिम श्लोक में और भी स्पष्ट कर दिया है :-
अंधं तमः प्रविशन्ति ये ऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमोय उ सम्भूत्याँ रताः॥
अर्थात् वह अहंकार में प्रवेश करते हैं जो प्रकृति की उपासना करते हैं और वह उनमें भी घोर अंधकार में जाते हैं जो विकृति की उपासना करते हैं।
जितना ही हम बाह्य वस्तुओं की ओर भागेंगे उतना ही हमें निराशा होगी तथा यह हमारी मृग तृष्णा होगी, क्योंकि रेगिस्तान में मृग दूर कहीं पड़ी हुई रेत को पानी समझकर उधर भागता हुआ जाता है परन्तु वहाँ पहुँचकर निराश होकर पिपासाकुल गिर पड़ता है। ऐसी गति हमारी न हो अतः सर्वप्रथम हमें अपने लक्ष्य को पहचानना चाहिए और फिर अपना भी अन्वेषण करना चाहिए। मानव भूल रहा है और वह विकृति रूपी बालू से आनन्द रूप जल को प्राप्त करने की आशा रखता है परन्तु वह कहाँ?
अतः जिस मानव को सुख, कल्याण और शाँति प्राप्त करने की इच्छा हो उसे अपना तथा अपनी आत्मा का अन्वेषण करना चाहिए। हर मानव को प्रातः और साँय कुछ समय शाँत परिस्थिति में बैठकर आत्म-चिन्तन करना चाहिए कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाना है? मेरा लक्ष्य क्या है? अपने लक्ष्यपूर्ति के लिए मैंने जो साधन अपनाए हैं क्या वह मेरे लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ हैं? जिससे वह अपने आपको पहचान सके और उसके शरीर के पाँचों कोष खुल जाएं और वह सच्चे सुख और शाँति को प्राप्त कर सके। आनन्दमय और शाँत जीवन द्वारा उस सच्चिदानन्द भगवान में लीन हो जाए जो कि मानव का अन्तिम लक्ष्य है।