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Magazine - Year 1958 - Version 2

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‘योग‘ का वास्तविक स्वरूप

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(महामहोपाध्याय गंगानाथ झा, एम.ए.डी.लिट)

‘योग‘ के विषय को लोगों ने ऐसा जटिल बना रखा है कि इसका नाम ही भयंकर हो गया है। इसका कारण यह है कि इधर कुछ समय से लोग ‘योग‘ शब्द से केवल ‘हठयोग‘- केवल आसन, मुद्रा आदि को समझने लगे हैं। आसन, मुद्रा आदि एक तो स्वयं जटिल विषय हैं, दूसरे इन शारीरिक क्रियाओं से आध्यात्मिक लाभ क्या हैं और कहाँ तक हो सकता है सो भी समझना कठिन है। बात तो यों है कि अभ्यासात्मक योग के सब तत्वों को समझना गुरु के बिना कठिन है। परन्तु थोड़ा-सा विचार करने से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘हठयोग‘ यद्यपि योग का अंग अवश्य है, पर तो भी वह केवल एक अंग है, स्वयं योग नहीं। अर्थात् वह योग का एक साधन मात्र है और सो भी प्रधान नहीं।

ऐसे अंग योग के आठ कहे गए हैं- (1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान, (8) समाधि। इनमें पाँच योग के बाह्य अंग हैं बाकी तीन अन्तरंग (योगभाष्य 3।1) ये तीन हैं धारणा, ध्यान, समाधि। ये ही तीन प्रधान हैं। कारण यह कि ये ही तीन प्रक्रियाएँ ऐसी हैं जिनका उपयोग सब कार्यों में होता है। जब किसी ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा हो तो उसके लिए जब ये तीनों लगाई जाती हैं तभी वह ज्ञान उचित रूप में प्राप्त होता है। जब तक ज्ञेय पदार्थ पर मन एकाग्र रूपेण नहीं लगाया जाता तब तक उनका ज्ञान असम्भव है। इसलिए प्रथम श्रेणी हुई यही एकाग्रता, जिसे ‘धारणा’ कहा है (सू. 3-1) इसके बाद जब मन बहुत काल तक इसी प्रकार एकाग्र रहे तो यह हुआ ध्यान (सू. 3-2) और जब मन इस ध्यान में इस तरह मग्न हो जाय कि ध्येय पदार्थ में लय हो गया तो यही हुई समाधि। (सू. 3-3) किसी कार्य के सम्पन्न होने में इन तीनों की आवश्यकता होती है। यह केवल आध्यात्मिक अभ्यास या ज्ञान के ही लिए आवश्यक नहीं है, प्रत्येक कार्य के लिए इनका होना अनिवार्य है। कोई भी कार्य हो जब तक उसमें मन नहीं लगाया जाता, कार्य सिद्ध नहीं होता। इसी मन लगाने को धारणा, ध्यान, समाधि कहते हैं।

ये तीनों एक ही प्रक्रिया के अंग हैं। इसी से इन तीनों का एक साधारण नाम ‘संयम’ कहा गया है। (सू.3-4।) इसी ‘संयम’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि से ज्ञान की शुद्धि होती है।

योग-सूत्रों में वर्णित इन उपदेशों को जब हम मामूली कामों में लगाते हैं और इनके द्वारा सफलता प्राप्त करते हैं, तब हमको मानना पड़ता है कि ‘योग‘ का सबसे उत्कृष्ट और उपयोगी लक्षण वही है जो भगवान ने कहा है-

‘योगः कर्म सु कौशलम्’

इस ‘योग‘ के अभ्यास के लिए प्रत्येक मनुष्य को सदा तैयार रहना चाहिए। ‘गुरु मिलें तब तो योगाभ्यास करें’ ऐसे आलस्य के विचार निर्मूल हैं। जो कोई कर्त्तव्य सामने आ जाय उसमें ‘संयम’ (अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि) पूर्वक लग जाना ही योग है। इसमें यदि कोई स्वार्थ-कामना हुई तो यह योग अधम श्रेणी का हुआ और यदि निष्काम है- कर्त्तव्य बुद्धि से किया गया है और फल जो कुछ हो ईश्वर को अर्पित है तो यही ‘योग‘ उच्च कोटि का हुआ। जब अपने सभी काम इसी रीति से किये जाते हैं तो वही आदमी ‘जीवन मुक्त’ कहलाता है।

कैसा सुगम मार्ग है। पर लोगों ने दुर्गम बना रखा है। मन की ‘लाग‘ चाहिए-तत्परता, तन्मयता। यह कठिन नहीं है- दूसरे किसी की आवश्यकता नहीं है- अपने हाथ का खेल है। पर श्रद्धा और साहस चाहिए।

इसमें शास्त्रार्थ या तर्क-वितर्क की जरूरत नहीं है। इसको कोई भी आदमी, किसी सामान्य कार्य के प्रति इस प्रक्रिया की परीक्षा करके स्वयं देख सकता है। पर आरम्भ में श्रद्धा और आगे चलकर साहस की आवश्यकता होगी, जिससे प्रक्रिया अपनी चरम कोटि तक पहुँच जाय।

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