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Magazine - Year 1958 - Version 2

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सच्चे और दिखावटी धर्मात्मा

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First 11 13 Last
(श्री मेहरबाबा, नासिक)

परमात्मा का सत्य ज्ञान प्राप्त करना अथवा ईश्वरानुभूति सृष्टि के विकास-क्रम की अन्तिम सीढ़ी है। इसके पश्चात् प्रथम तो आत्मा जन्म धारण करता ही नहीं और यदि करता भी है, तो वह अहंकार मूलक मन के रूप में नहीं वरन् समष्टि मन (यूनीवर्सल माईण्ड) के रूप में अवतीर्ण होता है। अहंकार-मूलक मन जन्म कर्म-बन्धन के आधीन होता है, पर ईश्वरानुभूति वाले व्यक्ति अथवा ईश्वर-पुरुष का अवरोहण अपनी अदम्य तृष्णा की प्रेरणा से बाध्य होकर, जन्म लेता है, किन्तु ईश्वर-पुरुष भ्रम तथा बन्धन में फँसे हुए लोगों के प्रति असीम तथा सहज करुणा के कारण संसार में अवतीर्ण होता है।

वे आत्मा जिन्हें ईश्वर की सच्ची अनुभूति प्राप्त नहीं हुई है द्वैत की सीमा के भीतर ही रहते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अनेक पारम्परिक लेन-देन के कार्य के परिणामस्वरूप, वे अपने बन्धनों की सृष्टि करते हैं जिनसे छुटकारा पाने में वे असमर्थ हो जाते हैं, उनके पारस्परिक सम्बन्धों का यह फल होता है कि या तो वे किसी के ऋणी हो जाते हैं या कोई दूसरा उनका ऋणी हो जाता है। किन्तु ईश्वर-पुरुष अद्वैत एकता में निवास करता है, इसलिए उसके कार्य बन्धनकारक किसी भी दशा में नहीं होते, वरन् उन प्रभाव में कर्म-बन्धन में ग्रस्त लोगों को मुक्ति मिलती है। ऐसा एक भी प्राणी नहीं होता जो ईश्वर-पुरुष की सत्ता के अंतर्गत न हो। वह सभी में अपने आपको देखता है और चूँकि उसके सभी कार्य अद्वैत-चेतना से स्फुरित होते हैं, अतः वह स्वतन्त्रतापूर्वक दे सकता है और स्वतन्त्रतापूर्वक ले सकता है। वह किसी को देकर अपना ऋणी नहीं बनाता और न किसी से लेकर वह उसका ऋणी बनता है। उसके कार्य, उसके लिए तथा अन्य मनुष्यों के बन्धनकारक नहीं होते।

ईश्वर-पुरुष सब पर समान रूप से अनुग्रह की वर्षा करता है। यदि कोई व्यक्ति निष्कपट भाव से उसका अनुग्रह स्वीकार करता है, तो वह ईश्वर-पुरुष से ऐसा सम्बन्ध स्थापित करता है जो उसकी ईश्वर-प्राप्ति तक कायम रहता है और यदि कोई पुरुष अपना जीवन और सर्वस्व समर्पित करके ईश्वर-पुरुष की सेवा करता है तो उसे ईश्वर-पुरुष की सहायता प्राप्त होती है और उससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है। यदि कोई मनुष्य ईश्वर-पुरुष के कार्य का विरोध करता है, तो भी उसका ऐसा सम्बन्ध स्थापित होता है कि जो अप्रत्यक्ष रूप से उसे ईश्वर की ओर बढ़ाने में सहायक होता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, जो इच्छा से या अनिच्छा से उसके कार्य-क्षेत्र में प्रवेश करता है, किसी न किसी प्रकार से आध्यात्मिक उन्नति करता है।

धार्मिक- कृत्य कराने वाले पण्डित, पुजारियों और ईश्वरानुभूति वाले पुरुष की कार्यशैली मूल रूप से भिन्न होती है। परम्परागत रूढ़ियों के धर्म को मानने वाले अधिकाँश पुरोहित, लोकाचार तथा विधि निषेधों को आवश्यकता से अधिक महत्व देते हैं। वे स्वयं भी स्वार्थपरता, संकीर्णता तथा अज्ञान से मुक्त नहीं होते, इसलिए वे नरक तथा स्वर्ग की बातें करके दुर्बल चित्त के और विश्वासी लोगों का अनुचित शोषण करते हैं। इसके विपरीत ईश्वर-पुरुष प्रेम, पवित्रता, सार्वलौकिकता तथा ज्ञान के जीवन में सदा के लिए प्रविष्ट हो चुका रहता है, अतः वह केवल आध्यात्मिक महत्व की ही बातों से सम्बन्ध रखता है और अंतर्भूत आत्मा को प्रकट करने के उद्देश्य से ही वह मनुष्यों की सहायता करता है। स्वयं अज्ञान में फँसे रहने वाले मनुष्य आत्मा-भ्राँति या स्वार्थपरता के कारण भले ही ईश्वर-पुरुष की सी भाषा बालें, उसकी सी वेश-भूषा बनालें, उसके समान बाह्य आचरण करें, पर वे ईश्वर-पुरुष के कार्यों की नकल कदापि नहीं कर सकते।

धर्म का केवल बाह्य आचरण करने वाले लोगों में ईश्वर-पुरुषों के दिव्य गुणों का सदैव अभाव रहेगा। किन्तु यदि वे आत्म-भ्राँति या पाखण्ड के कारण नकली वेश बनाकर ईश्वर-पुरुष होने का ढोंग करें तो कभी न कभी उनका भंडाफोड़ अवश्य हो जायगा। आत्म-भ्राँति के कारण यदि कोई मनुष्य किसी भिन्न प्रकार के जीवन-क्रम का आचरण करता है, तो इसका अर्थ यह है कि वह अभागा अपने को वैसा समझता है जैसा वह यथार्थ में नहीं है। कुछ भी न जानने पर वह समझता है, कि वह सब कुछ जानता है। वह भ्रमपूर्ण कार्य करते हुए भी अपने मन में सच्चाई से वैसा करता है। ऐसा भ्राँत मनुष्य निर्दोष माना जाता है, यद्यपि वह कुछ हद तक दूसरों की हानि कर सकता है। पर जो लोग कपट वेश बनाकर, पाखण्ड करके लोगों को ठगने के उद्देश्य से ही ऐसा ढोंग रचते हैं वह अपने लिए निःसन्देह घातक कर्म-बन्धन उत्पन्न करते हैं। यद्यपि वह दुर्बल तथा विश्वासी व्यक्तियों को काफी हानि पहुँचा सकता है, पर वह सदैव लोगों की आँखों में धूल झोंकने में सफल नहीं हो सकता। समय आने पर आप ही आप उसकी पोल खुल जाती है। ईश्वर-पुरुष होने के उसके दावे का भंडाफोड़ हो जाता है, क्योंकि वह उसे सिद्ध नहीं कर सकता।

अपने सार्वलौकिक कार्य को सिद्ध करने के लिए ईश्वर-पुरुष में अनन्त क्षमता पाई जाती है। दूसरों की सहायता करने के लिए वह किसी एक प्रणाली पर आसक्त नहीं रहता, वह परम्परागत विधि निषेधों का अन्धानुकरण नहीं करता। वह स्वयं ही सबसे बड़ा नियम होता है। वह उपस्थित अवसर के अनुसार आचरण कर सकता है तथा परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार, अभिनय कर सकता है। परन्तु वह किसी परिस्थिति से बँधता नहीं है। एक बार एक भक्त ने अपने गुरु से उनके उपवास करने का कारण पूछा। गुरु ने उत्तर दिया कि “मैं पूर्णता की प्राप्ति के लिए उपवास नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि पूर्णता तो मुझे पहले ही प्राप्त हो चुकी है और साधक भी नहीं हूँ। मैं औरों के लिए उपवास करता हूँ।” कोई आध्यात्मिक साधक सिद्ध पुरुष की सिद्धावस्था का अनुकरण करना साधक के लिए असम्भव है। पर सिद्ध पुरुष लोक-कल्याण के लिए साधक के समान आचरण कर सकता है। विश्वविद्यालय की सर्वोच्च परीक्षा जिसने पास कर ली है वह बच्चों के सिखाने के लिए वर्णमाला के अक्षरों को बिना किसी कठिनाई के लिख सकता है। इसी प्रकार ईश्वर-पुरुष दूसरे लोगों को मार्ग दिखलाने के लिए भक्त की भाँति आचरण कर सकता है, यद्यपि उसने ईश्वर के साथ पूर्ण एकता प्राप्त कर ली है। ईश्वरानुभूति के पश्चात भी वह दूसरों को मार्ग दिखलाने के लिए भक्तवत अभिनय करता है। वह किसी एक प्रकार के आचरण से बँधा नहीं रहता। अपनी शिक्षा पद्धति को वह सहायता के इच्छुक व्यक्तियों की आवश्यकतानुसार बदल सकता है। उसे स्वयं अपने लिए कोई वस्तु प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती, अतः जो कुछ भी वह करता है, वह दूसरों की आध्यात्मिक भलाई के लिए ही करता है।

सच्चे ईश्वरानुभूति वाले पुरुष और अपने स्वार्थ के लिए कार्य करने वाले पुरुषों में मुख्य अन्तर यही है कि ईश्वर-पुरुष बिना कुछ कहे दूसरों की सहायता करता रहता है और दिखावटी धर्मात्मा बनने वाले दूसरों के कल्याण और उपकार का ढोंग करते हैं, पर उनका उद्देश्य सदैव अपना ही स्वार्थ साधन रहता है। इसी कसौटी से इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की परीक्षा सहज में की जा सकती है।

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