
संसार का सबसे प्राचीन ज्ञान-स्रोत—ऋग्वेद
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(श्री रामदास गौड़)
चारों वेदों में ऋग्वेद प्रधान और सबसे प्राचीन माना गया है। जब चारों वेदों का नाम लिया जाता है तो सबसे पहले ऋग्वेद का नाम ही आता है। इसके प्रधानतः दस विभाग हैं जो मण्डल के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक मण्डल में सूक्तों का संग्रह है। दसों मण्डलों के सूक्तों की संख्या क्रम से इस प्रकार हैं- 191, 43, 62, 58, 87, 75, 104, 103, 114 और 191। इस प्रकार कुल मिलाकर 1028 सूक्त हैं। इनमें से 11 सूक्तों पर, जिन्हें ‘बालस्त्रिल्य’ कहते हैं, न सायणाचार्य का भाष्य है और न शौनक ऋषि की सूची में इनका उल्लेख मिलता है। प्रत्येक सूक्त में किसी दिव्य ईश्वरीय विभूति की स्तुति है और स्तुति के साथ-साथ घुमा-फिराकर सृष्टि के अनेक रहस्यों का तत्व प्रकट किया है। ये मन्त्र पद्य में हैं। इनके छन्द सभी वैदिक हैं जो संस्कृत तथा प्रचलित भाषाओं के छन्दों से बहुत कम मिलते हैं। आधुनिक पिंगल में सभी छन्द प्रायः चार चरण के होते हैं, परन्तु इन मन्त्रों में तीन-तीन चरणों के छन्दों की बहुतायत है। ऋग्वेद में जिन छन्दों का प्रयोग हुआ है उनके नाम जो प्रचलित पिंगल से भिन्न हैं, जैसे अभिसारिणी, महावृहति, शतोवृहति, पिपीलिका, मध्या, प्रगाथा, विराज, यव मध्या आदि।
प्रत्येक सूक्त किसी विशेष देवता, या देवताओं की स्तुति में लिखा गया है और उनके द्रष्टा, या जिनके द्वारा वह सूक्त प्रकट हुआ है, कोई न कोई ऋषि हैं। जिन ऋषियों की रचनाएं या जिनके द्वारा प्रकट किए हुए सूक्त ऋग्वेद में आये हुए हैं, उनके नाम यह हैं :-
मधुच्छन्द, जेत, मेधातिथि, शुनःशेष, हिरण्यस्तूप, कण्व, प्रकण्व, सव्य नोध, पाराशर, गोतम, कुत्स, कश्यप, ऋज्रस्व, तृताप्त्य, कक्षिवन, भावयव्य, रोमश, परुच्छेप, दीर्घतमस, अगस्त्य, इन्द्र, मरुत, लोपामुद्रा, गृत्समद, सोमहूति, कूर्म, विश्वामित्र ऋषभ, उत्कल, कट, देवश्रवा, देवव्रत, प्रजायति, वामदेव, अदिति, त्रसदस्यु, पुरुभिल्ल, बुध, गविष्टिः, कुमार, ईश, सुतम्भरा, धरुण, पुर, ववृ, द्वित, विश्वसाम, गोपपण, अश्वमेध, अत्रि, विश्ववर, वभ्र, पृथु, बसु, प्रतिभानु, गोपवन, विरुप, कृष्ण, अपाला जमदग्नि, मातरिश्वा, सुपर्ण, असित, देवल, भृगु, वैखानस, रेणु, हरिमन्त, अम्बरीष, नहुष शिखण्डिनी, सप्तर्षि, गौरी, रीति, शिशु, त्रिशिरा, यम, यमी, शंख, दमन, च्यवन, अभितया, घोपा, वैकुण्ठ, गोपायन, सुमित्र, जरत्कारु, विश्वकर्मा, अर्बुद, पुरुरुवा, उर्वशी, देवादि वभ्र, मुद्गल, सरमा, राम, उष्ट्रदंष्ट्र, अग्निपूय, भिक्षु, लव, हिरण्यगर्भ, यज्ञ, सुदास, मान्धाता, ऋष्यश्रृंग, विश्वावसु, द्रोण, श्रद्धा, इन्द्रमाता, प्रचेता, शबर, ऊर्ध्वग्रीवा, अरिष्टनेमि, शिवि, श्येन, सार्पराज्ञि, अघमर्षण, स्वस्ति, भारद्वाज, नर, गर्ग, वशिष्ठ, वाशिष्ठा, देवातिथि, ब्रह्माति, थिवत्स, शशकर्ण, नारद, विश्वमना, वैवस्वत मनु, कश्यप, भर्ग, कलि, मत्स्य आदि।
इन ऋषियों ने जिन देवताओं की स्तुति इन सूक्तों में की है, उनके नाम ये हैं :-
अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनी कुमार, विश्वेदेव, सरस्यप्ति, ऋतु, मरुत, सोम, दक्षिण, इन्द्राणि, द्यौः, पृथ्वी, विष्णु, पूषण, सविता, उषा, आर्यमा, आदित्य, रुद्र, सूर्य वैश्वानर, सिन्धु, वृहस्पति, वाक्, रति, अन्न, वनस्पति, राका, थूप, पर्वत, वाददेव, क्षेत्रपति, सीता, घृत, पर्जन्य, धेन्ड, पिन्ड, मृत्युः, धाता, वैकुण्ठ, आत्मा, ज्ञान औषधयः, श्रद्धा शचि आदि।
ऋग्वेद के सूक्तों में स्तुतियों की ही अधिकता है। स्तुतियों के देवताओं के नाम ऊपर दिए गए हैं। जो लोग देवताओं की अनेकता नहीं मानते वे इन सब नामों का अर्थ परब्रह्म या परमात्मा ही बतलाते हैं। जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भी इन स्तुतियों का लक्ष्य परमात्मा ही मानते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की विभूति है। इसलिए वह वरुण को जल के देवता, अग्नि के तेजस् के देवता, द्यौः को आकाश के देवता, इत्यादि रूप से परमात्मा की विभिन्न शक्तियों के अधिपति ही मानते हैं। जहाँ पृथ्वी की स्तुति हैं, वहाँ पृथ्वी के ही गुणों का वर्णन है। पृथ्वी परमात्मा की सृष्टि और उसी की विभूति है। इसलिए परमात्मा की विभूति की स्तुति दूसरे शब्दों में परमात्मा की ही स्तुति है। इस प्रकार की स्तुतियों और उनके सम्बन्ध की प्रार्थनाएं उपासना काण्ड के अंतर्गत हैं।
इसके सिवा ऋग्वेद में बहुत से इस प्रकार के मन्त्र भी बीच-बीच में दिए गए हैं जिनसे दुर्दैव मिट सकता है, गर्भ की रक्षा हो सकती है, गौ आदि पशुधन की रक्षा हो सकती है, राजयक्ष्मा रोग मिट सकता है, दुःस्वप्न की बाधा दूर हो सकती है, सपत्नीक अत्याचार से रक्षा हो सकती है, प्रतिस्पर्धी से छुटकारा मिल सकता है, एकता की स्थापना हो सकती है आदि। अनेक सूक्त ऐसे भी हैं जिनमें स्तुति के साथ-साथ सृष्टि-क्रम का विशद और रहस्यमय वर्णन है। सृष्टि और देवता सम्बन्धी इतिहास, पुराण, सभ्यता के विकास की कथाओं की चर्चा भी जहाँ-तहाँ आई है।
इस संहिता में सबसे अधिक स्तोत्र अग्नि, पृथ्वी के देवताओं और मनुष्यों के बीच सम्बन्ध स्थापित रखने वाला देवता है। अग्नि के सहारे ही और देवता बुलाए जाते हैं। इनके बाद इन्द्र के स्तोत्र अधिक हैं। वह अति शक्तिशाली, मेघों को चलाने वाला और वज्र का उपयोग करने वाला है। वर्षा से ही पृथ्वी, अन्न और धन से समृद्ध होती है और वर्षा इन्द्र ही कराते हैं। वृत्रासुर से युद्ध, मेघ-वृष्टि, वज्रपात आदि के वर्णन में अनेक ऋचाएं हैं। ऊषा की कोमल, मधुर, सुनहली किरणों को देखकर ऋषियों के हृदय में जिस कोमल कविता के भाव का संचार हुआ और उसमें डूबकर जो ललित पद्य उन्होंने लिखे ऋग्वेद से उनका यथेष्ट परिचय मिलता है। अन्धकार को मिटाने, प्रकाश देने, हिम को नष्ट करने, जीवन शक्ति देने, अनाज को उत्पन्न करने और बुद्धि को प्रेरणा देने वाले भगवान भास्कर ही हैं और ऊषा उनकी अग्रगामिनी है। सूर्य ही प्राणशक्ति के मूल आधार हैं, इसलिए ऋषियों ने सूर्य का भी बहुत स्तवन किया है। इनके सिवा मित्र, वरुण, अश्विनीकुमार, विश्वेदेव, सरस्वती, सूनृता, मरुद्गण, अदिति, सोम आदि देवताओं के भी स्तोत्र हैं। कृषि-कार्य, मेष-पालन, देश-भ्रमण, वाणिज्य, समुद्रगमन, नदियों का भौगोलिक विवरण, देवताओं की गायें और घोड़े, प्राचीन काल के मनुष्यों की परमाणु, वस्त्र-निर्माण, नाई, शिरस्त्राण, जिरह बख्तर, वाद्य-यन्त्र, अनार्यों के साथ युद्ध, सर्प का उत्पात और सर्प-मन्त्र आदि का भी वर्णन मिलता है। युद्ध के घोड़े, हाथी पर सवार राजा, पत्थर के मकानों के नगर, सरयू के पूर्व में आर्य राज्य का विस्तार आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। भारतवर्ष की नदियों जैसे दृषद्वती, आपया, यमुना, रसा, कुभा, सरस्वती, परुण्णी, अनितमा, सिन्धु, गोमती, शतद्रु, शर्यणावती, जाह्नवी, अर्जीकिया आदि का उल्लेख मिलता है। अनेक मन्त्रों में मुद्रा या सिक्के का प्रचलन, धातु का गलाना, विभिन्न प्रकार के आभरण, युद्धरथ, सुदास नामक राजा का विवरण, कृष्ण नामक अनार्य योद्धा, समुद्र-मन्थन से अमृत लाभ, गरुड़ द्वारा अमृतहरण, अमृतयान से देवगण का अमरत्व आदि विविध विषयों का परिचय मिलता है। इस प्रकार अनेक प्रकार के धार्मिक, वैज्ञानिक, गृहस्थी, सम्बन्धी, ऐतिहासिक विषय कम या अधिक परिमाण में ऋग्वेद में पाये जाते हैं।