
दधीचि का अस्थि-दान (Kavita)
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अस्थि-युग की बात है काफी पुरानी,
एक ऋषि के त्याग की अनुपम कहानी।
तोप, बन्दूकों, बमों की बात ही क्या?
बाण तक का भी नहीं तब पता था।
शस्त्र बन पाये न थे संहारकारी,
अस्थियों से युद्ध करती जाति सारी।
देवता थे, आर्यगण थे, दैत्य-दल थे,
किन्तु उनमें दैत्य ही सबसे प्रबल थे।
दैत्य कुल भूप वृत्रासुर असुर था,
युद्ध विद्या में जो बड़ा ही चतुर था।
निज अपरिमित शक्ति को पहचानता था,
और सर्वोपरि स्वयं को मानता था।
शक्ति के अपने नशे में चूर था वह,
दस्यु, दानव, हिंस्र, बर्बर, क्रूर था वह।
दुष्ट वृत्रासुर खुदी पर आ गया था,
लोक पर आपत्ति बनकर छा गया था।
वह प्रजा पर खून अत्याचार करता,
सज्जनों को त्रास देता, वार करता।
घूमता था सृष्टि का संहार करता,
रक्त पीकर अस्थियों को प्यार करता।
शाँति-प्रिय, निर्बल जनों को भय दिखाता,
हिंसकों को शक्ति देकर बल बढ़ाता।
धर्म के अनुयायियों को लूटता था,
पीड़ितों पर वज्र बनकर टूटता था।
दूसरों की मौत बनकर जी रहा था,
खून जनता का निरंतर पी रहा था।
भूख, बीमारी, गरीबी, ला रहा था,
एक दानव भूमि सारी खा रहा था।
जो किसी का सिर उठा तो वह कुचलता,
राह चलते राहियों को मार चलता।
शाँति सुख से युद्ध उसका ठन चुका था,
वह जगत का घोर संकट बन चुका था।
यत्न उसको जीतने के हो चुके थे,
देव-मानव वीर साहस खो चुके थे।
जो गया वह युद्ध से बच न पाया,
भाग आया, मर गया, बन्दी बनाया।
देख उसको काँपते थे लोक सारे,
देवता तक बच न पाये थे बिचारे।
शोक दानव विश्व विजयी झूमता है,
आज भी उन्मुक्त होकर घूमता है।
शस्त्र हमने घोरतम सारे चलाये,
किन्तु उसका बाल बाँका न कर पाये।
आज जीतेजी हमें वह मार बैठा,
देव कुल पुरुषार्थ सारा हार बैठा।
जबकि सारे देवता थे त्रस्त ऐसे,
इन्द्र ने सोचा कि हो उद्धार कैसे।
देव-संसद की तभी बैठक बुलाई,
विधि वृहस्पति ने यहाँ ऐसी बताई-
यदि कहीं से देव भौतिक शक्ति लावें,
तो किसी विधि से असुर को मार पावें।
भूमि तल के एक गौरव हैं दधीचि,
सामने जिनके हमारी जाति नीची।
विप्र बनकर दान लेने इन्द्र जावें,
और उनकी अस्थियों को माँग लावें।
यदि लड़े उन अस्थियों का वज्र लेकर,
तो मरेगा दैत्य अपने प्राण देकर।
बात यह सबकी समझ में आ गई थी,
किन्तु चेहरों पर उदासी छा गई थी।
आत्म-रक्षा को किसी का प्राण लेना,
यह अनैतिक मानती थी देव-सेना।
किन्तु खुलकर इन्द्र ने यह बात मानी,
छल-कपट की नीति अपनाई पुरानी।
दूसरे दिन ब्राह्मण का वेश धर कर,
वह खड़ा था ऋषि दधीचि की कुटी पर।
पौ फटी थी, सूर्य प्राची में छिपे थे,
ऋषि अभी तक आँख मूँदे ध्यान में थे।
एक ब्राह्मण याचना के हेतु आया,
इन्द्र ने कह शीश चरणों में झुकाया।
शब्द सुनकर शीघ्र ऋषि ने नेत्र खोले,
और उसकी ओर क्षण भर देख बोले।
ब्राह्मण हो ठीक, आओ, बैठ जाओ,
आगमन का अभिप्राय क्या है यह बताओ।
जो बताओ भी नहीं तो जानता हूँ,
वास्तव में मैं तुम्हें पहचानता हूँ।
आ गये तुम, ठीक ही अवसर चुना था,
आगमन अभिप्राय मैंने कल सुना था।
सच कहूँ तो ध्यान ही क्या धर रहा था,
मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।
मानता हूँ भीत हो तुम मृत्यु-भय से,
चाहते हो आत्म-रक्षा ही हृदय से।
किन्तु सोचो कौन पथ अपना रहे हो?
प्राण लेकर त्राण पाने जा रहे हो।
और फिर उसके लिए यह कपट कैसा?
किस लिए तुमने बनाया वेश ऐसा।
ठीक है, ये प्राण क्षण-भंगुर हमारे,
किन्तु फिर भी हैं सभी को प्राण प्यारे।
मृत्यु का भय तो सभी को दाहता है,
तुम बताओ कौन मरना चाहता है?
किन्तु घबराओ नहीं, मैं प्राण दूँगा,
मृत्यु-भय से तर्क का आश्रय न लूँगा।
स्वार्थ है इसमें तुम्हारा जानता हूँ,
किन्तु यह परमार्थ भी है, मानता हूँ।
यों तुम्हें लज्जित किया, मत मान लेना,
भाव हैं सच्चे हृदय के जान लेना।
सोचता हूँ जन्म का उद्देश्य क्या है?
किस लिए पैदा हुआ हूँ क्या किया है?
बहुत वर्षों साधना की, ज्ञान पाया,
किन्तु लगता व्यर्थ ही जीवन गँवाया।
आज अपने पास देखी मृत्यु छाया,
और सच्चे ज्ञान का आभास पाया।
विश्व, वैभव, मान-यश ले क्या करूंगा?
सब मिलेगा किन्तु फिर भी तो मरूंगा।
इस लिए बलिदान तो क्या जानता हूँ,
मैं इसे कर्त्तव्य-पालन मानता हूँ।
आज तुमसे माँगता क्या मान मेरा?
मृत्यु ही जब बन गई वरदान मेरा।
मैं मरूंगा ताकि बाकी लोग जीवें,
फिर न दानव मानवों का रक्त पीवें।
क्या पता है, मैं कहाँ को जा रहा हूँ,
किन्तु अन्तिम शाँति सचमुच पा रहा हूँ।
लोक के हित को रहा है प्राण-अर्पण,
आज मेरा हो गया है धन्य जीवन।
और को सुख दे रहा हूँ कष्ट सहकर,
हो गए ऋषि शान्त इतनी बात कहकर।
इन्द्र ने अपना अभीप्सित दान पाया,
दैत्य-वध से लोक में आनन्द छाया।
बात बीती पर निशानी रहा गई है,
सीख देने को कहानी रह गई है।
*समाप्त*
(श्री यादराम शर्मा, ‘रजेश’)
(श्री यादराम शर्मा, ‘रजेश’)