
अवतार कब होगा?
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भगवान ने गीता में युग बदलने के लिए अवतार लेने की प्रतिज्ञा की है। यह अवतार जन-मानस में उत्साह और संकल्प के रूप में ही उत्पन्न होता है। भगवान निराकार है, सूक्ष्म है, इसलिए उनका अवतरण भी जन-मानस की सूक्ष्म चेतना भावना एवं प्रेरणा के क्षेत्र में ही हो सकता है। इस प्रेरणा से प्रेरित होकर कई अवतारी महापुरुष भी जन्म लेते हैं और उनके पीछे अनेकों अनुयायी उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सहयोग देने को तत्पर हो जाते हैं।
राजनैतिक स्वतन्त्रता की आकाँक्षा जब जनमानस में जागृत हुई तो उसकी पूर्ति के लिए अनेकों अवतारी महापुरुष निकल आये। गाँधी जी मालवीय जी, लोकमान्य तिलक, नेहरू, पटेल, सुभाष, आदि अगणित महान आत्माएं प्रस्फुटित हुईं और उनके प्रयत्न से जन-मानस में स्वाधीनता की आकाँक्षाएँ लहर मारने लगीं। जब तक यह आकांक्षाएं प्रबल नहीं हुई थीं तब तक गत 200 वर्षों में स्वराज्य का आन्दोलन किसी न किसी रूप में चल रहा था पर न तो उसका व्यापक रूप बन पाया था और न उतने प्रभावशाली नेता सामने आ पाये थे। उद्वेलित जन-मानस ही अवतारों का पिता है। भगवान का अवतार कब किस रूप में होने वाला है उसकी परीक्षा उद्वेलित जन-मानस का अनुमान लगाकर ही की जा सकती है।
असन्तोष और उसका प्रतिकार-
कंस के विरुद्ध अत्याचार पीड़ित जनता की, उसके शासन को हटा देने की आकाँक्षा ने ही कृष्ण को आगे लाकर खड़ा कर दिया था। गोप बालकों ने, गोपियों ने तथा असंख्य जनता ने, विविध प्रकार से भगवान कृष्ण को सहयोग देकर उन्हें विजेता और नेता के रूप में प्रस्तुत किया था। भगवान राम के अवतार की पृष्ठभूमि में असुरों के अत्याचार के प्रति छाया हुआ असंतोष ही काम कर रहा था। कथा प्रसिद्ध है कि ऋषियों ने शोक संतप्त होकर अपना-अपना रक्त संचय करके एक घड़ा भरा था और उससे सीता का जन्म होकर असुरों के विनाश की व्यवस्था बनी थी। राम अकेले ही रावण को कहाँ मार पाये थे? रीछ बन्दरों तक ने, गिलहरी और गिद्धों तक ने उनका सहयोग किया था। साधारण जनता की तो बात की ही क्या थी, वह तो प्राण-पण से उनके साथ ही थी। जन-मानस असुरता के अत्याचारों से मुक्ति पाना चाहता था तो राम-लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, नल-नील आदि अनेक पराक्रमी प्रस्फुटित हो उठे। विभीषण जैसे सज्जन तो ऐन मौके पर उनसे आ मिले।
भगवान बुद्ध के साथ अगणित विद्वानों और भिक्षु भिक्षुणियों का सहयोग होना इस बात का चिन्ह है कि उस जमाने की धार्मिक विकृतियों और अनैतिकताओं से जनता क्षुब्ध हो उठी थी और जो भी अनुकूल नेता सामने आये उसका पूर्ण सहयोग करने लगी। लेनिन को रूस में साम्यवादी सत्ता स्थापित करने का श्रेय इसीलिए मिला कि वहाँ की जनता तात्कालिक जार के शासन से क्षुब्ध हो रही थी। वह स्वयं ही बगावत कर रही थी, साम्यवादियों को तो संयोगवश उनका नेतृत्व करके सत्ता हथिया लेने का अवसर मात्र मिल गया ।
जन-सहयोग के अभाव में कोई भी महापुरुष युग परिवर्तन जैसा महान कार्य कदापि प्रस्तुत नहीं कर सकता। जन-भावना की प्रबलता को ही भगवान की प्रेरणा कहते हैं, यही अवतार का सूक्ष्म रूप है, जो उसका स्थूल रूप से किन्हीं भी साधारण या असाधारण व्यक्ति यों के सिर पर सफलता का सेहरा बाँध देता है। इस तत्व के अभाव में बड़े से बड़े योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्ति भी असफल रहते हैं और बहुत चाहते एवं करते हुए भी कृतकार्य नहीं हो पाते ।