
हम किसी से भी न डरें।
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स्वर्गीय लोकमान्य तिलक ने जब भारत की स्वतन्त्रता का नारा लगाया, “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे” तब उनके साथ कुछ गिने-चुने व्यक्ति ही थे और दूसरी ओर संसार प्रसिद्ध ब्रिटिश शासन। किन्तु लोकमान्य का स्वर अनेकों का स्वर बना और एक दिन उस शक्ति शाली सत्ता को उखाड़ फेंका गया। भारत स्वतन्त्र हुआ। जोसेफ मेजनी ने भी इसी तरह इटली की स्वतन्त्रता का संकल्प किया और उस समय की तानाशाही, साम्राज्यवाद के विरुद्ध आन्दोलन उठाया जिसके लिए मौत की सजा निश्चित थी। किंतु मेजिनी का प्रेरणा मंत्र देशवासियों का प्रेरणा मन्त्र बना और इटली स्वतन्त्र हुआ। महर्षि दयानन्द ने सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई, धार्मिक अन्ध परम्पराओं पर आघात किया और इसके लिए उन्हें कई बार विष दिया गया और इसी से उनकी अन्त में मृत्यु भी हुई। ईसा मसीह को अपने सुधार कार्य के लिए सूली पर चढ़ाया गया। इस तरह के असंख्यों उदाहरण है जिनमें मनुष्य ने असम्भव से टक्कर ली और उसे सम्भव बनाया। मौत, पीड़ा, कष्ट युक्त यन्त्रणाओं को भी स्वीकार करके सत्य की आवाज बन गई।
मनुष्य जितना निर्भय होगा उतना ही वह महान कार्यों का सूत्रपात करेगा। निर्भयता उत्कृष्ट मानसिक स्थिति का परिणाम है। यह एक नैतिक सद्गुण है जो बड़े तप और त्याग से प्राप्त होता है। मन का जितना विकास होता जाएगा उसी अनुपात से निर्भयता की उपलब्धि होगी। उत्कृष्ट आदर्श सिद्धान्तों की रक्षा के लिए जितना उत्सर्ग, त्याग, कष्ट सहिष्णुता होगी उसी के अनुसार निर्भयता प्राप्त होती जाएगी।
तीन प्रकार की निर्भयता-
निर्भयता तीन प्रकार की होती है। विज्ञ निर्भयता, विवेकी निर्भयता और ईश्वरनिष्ठ निर्भयता।
विज्ञ निर्भयता-जीवन पथ पर आने वाले विभिन्न खतरों, विघ्न आदि की जानकारी, उनका परिचय प्राप्त कर मनुष्य जब उनके समाधान, इलाज का मार्ग जान लेता है तो वह उनके सम्बन्ध में निर्भय हो जाता है। किन्तु जिन खतरों के विषय में वह जानता नहीं उनका भय सदैव बना रहता है। सर्पों के सम्बन्ध में जानने वाले उनके साथ उसी तरह खेल सकते हैं जैसे बच्चा खिलौने के साथ। ऐसे लोगों के मन से सर्पों का भय दूर हो जाता है। किन्तु सिंह को देखकर वे भय से पीले पड़ जाते हैं। इसी तरह सरकस के खेल में इशारों पर सिंह को नचाने वाला कलाकार सर्प को देखकर भयभीत हो सकता है। इस तरह की निर्भयता मर्यादित है, सीमित है। जिन खतरों के बारे में मनुष्य जानकारी हासिल कर लेता है, उनसे निर्भय हो जाता है किन्तु अन्य से नहीं।
विवेकी निर्भयता-इसमें परिपक्व विवेक से बुद्धि नियन्त्रित और शान्त रहती है। मन की वृत्तियों पर शासन होता है। भयावह परिस्थितियों में बुद्धि अशान्त असन्तुलित नहीं होती। भय, शोक, चिंता, आदि मानसिक वृत्तियाँ मनुष्य पर हावी नहीं हो पातीं। ऐसी स्थिति में उन परिस्थितियों से बचाव के प्रयत्न सूझने की सम्भावना रहती है और मनुष्य बच जाता है। जिन परिस्थितियों में एक साधारण मनुष्य असन्तुलित हो उनसे हार बैठता है, निर्दिष्ट पथ से भटक जाता है उन्हीं में एक विवेकशील व्यक्ति अपना मार्ग निकाल कर आगे बढ़ जाता है। इससे मनुष्य अनावश्यक और ऊट-पटाँग साहस भी नहीं करता अतः फिजूल के खतरों में पड़ता भी नहीं।
ईश्वरनिष्ठ निर्भयता-इसके लिए किसी बाह्य सहायता, साधनों की आवश्यकता नहीं होती। जीवन में ईश्वर के प्रति उसकी सर्व व्यापकता, सर्वशक्ति सम्पन्नता आदि के प्रति दृढ़ निष्ठा, गहरी आस्था, अडिग विश्वास जितना बढ़ेगा उतना ही मनुष्य निर्भय होता जाएगा। ईश्वरनिष्ठ निर्भीकता के आधार पर ही संसार के अधिकाँश महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण हुए हैं। यह मनुष्य को पूर्ण निर्भय बनाती है किन्तु यह दीर्घकालीन अभ्यास, पुरुषार्थ और भक्ति से ही प्राप्त होती है। अपने साधनों, चातुर्य आदि पर निर्भय व्यक्ति शत्रु से भी मिलने में बड़ी सावधानी बरतते हैं किन्तु ईश्वरनिष्ठ तो सभी से सीधा व्यवहार रखता है। दिखावट, बनावट को कोई जगह नहीं रहती। ईश्वर पर अनन्य, निष्ठा से मनुष्य पूर्णरूपेण निर्भय बन जाता है क्योंकि वह अनन्त व्यापक, निर्विकारी सत्य से परिचय कर लेता है।
आपत्ति से सच्ची सहायक-
निर्भयता मनुष्य की प्रगति और विकास का मार्ग खोल देती है। मनुष्य का विकास, और प्रगति इस बात पर निर्भर रहती है कि वह जीवन में आने वाली उलझनों, कठिनाइयों का समाधान किस तरह करता है। निर्भीकता इन परिस्थितियों में महान शक्ति उत्साह, आशा प्रेरणा की स्रोत बन जाती है। कठिनाई, उलझनों, अवरोध के बीहड़ पथ में यदि मनुष्य का कोई सहारा साथी है तो वह है निर्भीकता। निर्भीकता ही उसके पैरों को गति देती है, हृदय में उत्साह प्रसन्नता पैदा करती है, नेत्रों में आशा की चमक पैदा कर देती है। इतना ही नहीं एक ही निर्भीकता अनेकों का प्रेरणा सूत्र बन जाती है।
यूरोप में जहाँ पादरियों और उनकी अन्ध परम्पराओं का खण्डन करने पर जीवित जला देने की सजा थी, ‘लूथर’ नाम के एक निर्भीक सत्यान्वेषी पादरियों के अधार्मिक कृत्य और स्वर्ग के टिकट बेचने आदि के खिलाफ आवाज उठाई। इस पर उसे पोप का कोपभाजन बनना पड़ा। न्यायालय में उसे क्षमा माँगने को कहा गया किन्तु निर्भीक लूथर ने अपने सत्य पर अटल रहकर क्षमा माँगने से इन्कार कर दिया। उसे मरवाने का प्रयत्न किया गया किंतु लूथर बच गया। लूथर के निर्भीक विचार असंख्य लोगों के विचार बन गये और प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रसार हुआ। धार्मिक अन्ध विश्वास के प्रति लोग सतर्क हो गये।
निर्भीकता का भाव संक्रामक होता है। नेपोलियन बोनापार्ट जब अपनी सेना के बीच रहता था तो उसकी सेना अजेय रहती थी। प्रत्येक सिपाही अपने आपको नेपोलियन के समान ही शक्ति शाली समझता था। नेपोलियन की सफलता का आधार निर्भीकता थी। वह विश्वासपूर्वक कहता था “वह गोली अभी नहीं बनी जो नेपोलियन को मारेगी।”
निर्भयता, व्यक्ति समाज तथा राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। आगामी पीढ़ियों के लिए बहुत बड़ी धरोहर है। महात्मा गाँधी ने लिखा है “सचमुच वह राष्ट्र महान है जहाँ के लोग मौत के तकिए पर अपना सिर रखकर सोते हैं।” जिसने मौत का डर तोड़ दिया उसे कोई डर नहीं।