
हम जीवन विद्या भी सीखें
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स्कूली शिक्षा के साथ, पुस्तकीय ज्ञान के साथ ही सबसे बड़ी आवश्यकता है, जीवन को सार्थक करने वाली उस जीवन विद्या की जो अनेक विचित्रताओं से भरे ऊबड़-खाबड़ जीवन पथ पर मनुष्य के पग बढ़ाने में सहायता दे। उच्च शिक्षा सम्पन्न, साक्षर जीवन की असफलताओं का प्रमुख कारण यही है। डिग्री डिप्लोमा रहित साधारण जीवन भी सार्थक बन जाता है जीवन विद्या के पारस का स्पर्श पाकर। संसार के अब तक के अधिकाँश महापुरुषों का अक्षर ज्ञान आज के अनेकों, उच्च शिक्षा सम्पन्न लोगों से कम ही था। उन्होंने किसी यूनिवर्सिटी से एम.ए.पी. एच.डी.की डिग्री प्राप्त नहीं की थी, फिर भी उन्होंने जीवन की सार्थकता के कठोर धरातल को छू कर समाज को नया मार्ग प्रदान किया, मानवता की बहुत बड़ी सेवायें की।
व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता-
पुस्तकीय ज्ञान, जीवन का एक खाका बनाता है किन्तु सार्थकता का रंग भर कर ही उससे जीवन का नक्शा तैयार किया जा सकता है। शिक्षा द्वारा जीवन और संसार का एक काल्पनिक स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है किन्तु यथार्थता की धरती पर उसे साकार करने के लिए जीवन विद्या की ही आवश्यकता होती है। बातों की कढ़ी और बातों के ही भात से पेट नहीं भरता, पोथी का कुआँ डुबोता भी नहीं तो पोथी की नैया तारती भी नहीं। इन शब्दों में परम सन्त विनोबा भावे ने अक्षर ज्ञान की सीमा निर्धारित की है। वस्तुतः पुस्तकों में अक्षर होते हैं, शब्द होते हैं। किन्तु उनका अर्थ जीन के धरातल पर, सृष्टि के रंचमंच पर ही प्राप्त किया जा सकता है। और तब ही कोई शिक्षा सजीव और सर्वांगीण बन पाती है। वही जीवन पथ पर मनुष्य का पूरा पूरा साथ देती है। साक्षरता और सार्थकता से मिल कर निर्मित शिक्षा ही जीवन विद्या है और वही मनुष्य की सफलता मूल आधार है।
जीवन का महत्व समझें-
श्री शंकराचार्य में अपने आठ वर्ष के जीवन में ही तीव्र प्रतिभा की जागृति हो गई थी। बिना संस्कृत पढ़े ही सन्त तुकाराम ने वेदों का अर्थ जान लिया था। सन्त ज्ञानेश्वर ने छोटी उम्र में ही कई ग्रन्थों की रचना की। सूर, मीरा, तुलसी, कबीर, नानक, रैदास, तुकाराम आदि की रचनाओं के साधारण शब्दों में ही भरा हुआ ज्ञान कितना असाधारण है। इसका कारण उनका सार्थक जीवन ही है। उन्होंने पहले जीवन में अर्थ ढूँढ़ा, फिर पुस्तकों में अक्षर। अक्षर ज्ञान, बाह्य शिक्षण तो केवल संस्कार मात्र छोड़ता है। पथ का शाब्दिक ज्ञान कराता है, किन्तु पथ पर चलना तो मनुष्य की अपनी शक्ति और क्षमता पर ही निर्भर करता है। अपनी क्षमता और स्थिति के अनुसार ही मनुष्य यथार्थता की धरती पर जीवन के भवन की रचना करता है। अतः बाह्य शिक्षा का मुख्य आधार आन्तरिक शिक्षण-जीवन विद्या ही होना आवश्यक है।
शिक्षण से सार्थकता -
मनुष्य अपनी शिक्षा और जीवन में समन्वय पैदा करके सफल हो सकता है। आन्तरिक शिक्षण, सार्थकता के अभाव में आज की बाह्य शिक्षा की असफलता सहज ही देखी जा सकती है। इस जीवन विद्या-आन्तरिक शिक्षण के अभाव में जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता सम्भव नहीं। लोक व्यवहार से लेकर, व्यक्तिगत सफलता, सेवा, भक्ति, परमार्थ के सभी क्षेत्रों में जीवन विद्या की आवश्यकता होती है।
परमार्थ की दुहाई देकर रात दिन श्रम कर वाले स्वार्थी बन जाते हैं। निष्काम सेवा के पथिक लोक संग्रह में-कामनाओं की पूर्ति में लग जाते हैं। भक्त अभक्त बन जाते हैं। जीवन विद्या, अन्तर ज्ञान के अभाव में निष्ठावन्त और शुभ कार्यों में भी मिश्रण होने लगता है। धीरे-धीरे शुभ के स्थान पर अशुभ,परमार्थ की जगह स्वार्थ, दूसरों की सेवा करने के स्थान पर अपनी सेवा, अच्छाई के स्थान पर बुराइयाँ घर कर लेती हैं। जीवन शिक्षा के अभाव और अन्तर ज्ञान के अभाव में लौकिक व्यवहार सम्बन्धी कार्यों की असफलता तो प्रायः निश्चित ही रहती है।
समस्या की जड़ तक पहुँचें-
आज की समस्यायें, दुःख, परेशानियाँ, कष्ट, उलझनें, संघर्ष, अशान्ति, शारीरिक मानसिक पीड़ाओं का मूल कारण जीवन विद्या का अभाव ही है। अशिक्षित, देहाती लोगों की अपेक्षा शिक्षितों का जीवन अधिक क्लिष्ट और परेशानी भरा होता है। जब कि शिक्षा का अर्थ जीवन को सरल और सुगम बनाना होता है। इन अर्थों में हमारी शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित है। अभी तक जीवन के यथार्थ धरातल से उसका सम्बन्ध नहीं होने के कारण ही आज शिक्षितों का जीवन अभिशाप बन रहा है।
जीवन विद्या कहाँ से कैसे प्राप्त हो? यह प्रश्न उतना ही सहज और सरल है, जितना सूर्य का प्रकाश, जो आँखें खोलकर देखने पर सहज ही मिल जाता है। शेक्सपीयर ने लिखा है, ‘बहते हुए झरनों में प्रासादिक ग्रन्थ संचित हैं।’ पत्थरों में दर्शन छिपे हुए हैं। संसार के जितने भी पदार्थ हैं सब में शिक्षा के सारे तत्व सन्निहित हैं। समस्त तत्वों से मनुष्य जीवन विद्या प्राप्त कर सकता है। सृष्टि उनके लिए एक खुली हुई पुस्तक है। अपनी पिछली पीढ़ियों द्वारा अर्जित विद्या-अनुभवों से भी इस मार्ग में पर्याप्त
लाभ उठाया जा सकता है। बुद्धि और कल्पना के क्षेत्र में बने हुए नक्शों के अनुसार पथ पर चलना कितना सहायक होता है तब कि अनजान लोग उसी पथ पर ठोकरें खाते, गिरते पड़ते सीखते चलने में भारी कष्ट उठाते हैं।
आधी दृष्टि भीतर आधी बाहर-
जीवन विद्या का स्कूल कालेजों की तरह कोई मर्यादित पाठ्यक्रम नहीं। यह समुद्र की तरह अमर्यादित है। न्यूटन से किसी ने उनकी ज्ञान गरिमा की प्रशंसा की, इस पर उन्होंने कहा-भाई- अभी तो मैंने समुद्र के किनारे पड़े कुछ कण ही प्राप्त किये हैं, विशाल विद्या वारिधि तो बहुत बड़ा है। जीवन विद्या का क्षेत्र व्यापक है। उसके लिए जीवन भर प्रयत्न चलते रहना आवश्यक है। आधा समय लौकिक जीवन के लिए और आधा जीवन विद्या के लिए होना आवश्यक है। लौकिक जीवन में अक्षर ज्ञान, पेशा, व्यापार, व्यवहार, पारिवारिक कर्तव्य आदि सभी आ जाते हैं। आधा समय जीवन विद्या के लिए लगाया जायगा तभी सफलता की मंजिल तय हो पाती है। योगी की अर्धोन्मीलित दृष्टि का यही रहस्य है। वह आधी नजर से सृष्टि को देखता और आधी से अन्तर ज्ञान, जीवन विद्या में लगा रहता है। इस तरह अन्तर्बाह्य जीवन के योग से पूर्णता प्राप्ति का लक्ष्य प्राप्त होता है। बाह्य शिक्षा का समन्वय आन्तरिक शिक्षा से होने पर ही शिक्षा की पूर्णता और सार्थकता सिद्ध होती है।