
स्वतन्त्र चिन्तन और उसकी आवश्यकता
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हम किसी भी बात को इसलिए मानते हैं कि वह किसी प्राचीन या प्रसिद्ध ग्रन्थ में लिखी हुई है। हम किसी विचार का अवलंबन इसलिए लेते हैं कि वह किसी महापुरुष या विद्वान द्वारा कहा गया है, लेकिन ठीक इसके विपरीत स्वामी विवेकानन्द ने कहा है— “किसी बात को इसलिए मत मानो कि वह किसी पुरानी पुस्तक या धर्म-ग्रन्थ में लिखी हुई है, किसी भी बात को इसलिए मत मानो कि उसे किसी व्यक्ति विशेष ने कही हैं। लेकिन वही बात मानो उसी विचार का अनुसरण करो, जो तुम्हारी बुद्धि विवेक, स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो।”
प्रत्येक मनुष्य के अवतरण के साथ ही प्रकृति उसे एक मौलिक विचार क्षमता प्रदान करती है और इसीलिए प्रत्येक मनुष्य के मन में अपने ही ढंग से एक नये संसार की सृष्टि होती है। अपनी हर यात्रा में मनुष्य यहाँ कुछ नवीन शोध करता है, नये रहस्यों का पता लगाता है। लेकिन बहुत कम लोग इस मौलिक विचार क्षमता का उपयोग कर पाते हैं। अधिकाँश तो विचारों को गुलामी, परवशता का अवलम्बन लेकर अपने जीवन को भी गुलाम बना लेते हैं। जीवन के राजमार्ग से भटक जाते हैं। क्योंकि जग-पथ की यात्रा मनुष्य किसी भी रूप में दूसरों के कन्धों पर चढ़ कर पूरी नहीं कर सकता, चाहे वह विचार के क्षेत्र में हो या व्यवहार के क्षेत्र में।
स्वतन्त्र चिन्तन और मौलिक विचारों के आधार पर ही मनुष्य अपने मन का समाधान कर सकता है, अपने जीवन की समस्याओं को सुलझा सकता है, अपना सही मार्ग निर्धारण कर सकता है। हर नये पैदा होने वाले पौधे को स्वयं अपनी ही जड़ों पर खड़ा होना पड़ता है। धरती से स्वयं को ही जीवन-रस खींचना पड़ता है। जिस तरह शरीर के क्षेत्र में मनुष्य को स्वयं समर्थ होकर अपने ही ऊपर जीवन निर्वाह करना पड़ता है, उसी तरह विचार के क्षेत्र में भी स्वाधीन हुए बिना मनुष्य का समाधान नहीं होता। जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों के सहारे रहना पराधीनता है, इसी तरह मन बुद्धि विवेक को ताला लगाकर किसी बात को, विचार को मान लेना भी मानसिक पराधीनता है, विचारों की गुलामी है।
उसका अर्थ यह नहीं कि पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिएं वा किसी की बात नहीं सुननी चाहिए। पढ़ना और सुनना आवश्यक है, विचारों की उर्वरता के लिए। पढ़ने से चिन्तन-क्रिया को खाद्य मिलता है। विचार करने के लिए आधार मिलते हैं। अतः पढ़ना अवश्य चाहिए, विद्वानों का सहयोग लेकर उनसे विचार-विमर्श भी करना ही चाहिए। लेकिन पढ़ी हुई या सुनी हुई, सभी बातों को ध्रुव-सत्य मान कर उसका अनुकरण करना भारी भूल होगी। इस तरह का अन्धानुकरण ही मानसिक गुलामी है, विचारों की पराधीनता है।
मनुष्य जितना स्वयं अपने बारे में समझ सकता है, उतना दूसरा नहीं समझता। अपने अनुकूल कोई समाधान जितना मनुष्य स्वयं ढूँढ़ सकता है, इतना दूसरा नहीं, यह नितान्त सत्य है। दूसरों के समाधान सहायक हो सकते हैं, किन्तु समस्या को पूर्ण रूप से सुलझा नहीं सकते। इसीलिए स्वतन्त्र चिन्तन की आवश्यकता होती है।
राजनैतिक, सामाजिक स्वतन्त्रतायें तो स्थूल और सामान्य हैं। किसी भी देश के स्वतंत्र होने पर भी वहाँ के नागरिक, मानसिक दृष्टि से गुलाम रह सकते हैं। मजहब के नाम पर, किसी वा दया सम्प्रदाय के नाम पर, किसी विचार धारा विशेष के नाम पर इस तरह की मानसिक गुलामी मानव समाज में फैली रहती है। आज राजनैतिक दृष्टि से स्वतन्त्र देशों में इस तरह की गुलामी कम नहीं फैली हुई है और इसी से संसार में संघर्ष एवं विकृतियाँ व्याप्त हैं।
धन-धरती, शासन-सत्ता के बाँट देने से ही मानव-समाज की स्वतन्त्रता सार्थक नहीं हो सकती। स्वतन्त्रता का मूल आधार ही मानसिक स्वतन्त्रता है। जब तक लोगों के दिमागों में किसी भी मजहब, वाद, सम्प्रदाय, भेद-भाव के विचारों की गुलामी बनी रहेगी, तब तक समाज परेशान रहेगा। समस्यायें बनी रहेंगी। युद्ध होते रहेंगे। संघर्ष बने रहेंगे।
धन-धरती या राज-काज सम्बन्धी गुलामी मिटा लेना तो गुलामी के केवल पत्ते, डालें ही तोड़ना है। गुलामी का विष-वृक्ष तो मनुष्य के मानसिक धरातल पर ही जीवित रहता है, यहीं से उसे पनपने की खुराक मिलती है। जब अपने बारे में सोचने, निर्णय करने का काम मनुष्य किसी ग्रन्थ विशेष अथवा किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर छोड़ देता है तो यहीं से गुलामी के विष-वृक्ष को खाद्य मिलने लगता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य कभी भी मानसिक पराधीनता से छुटकारा नहीं पा सकता।
निस्सन्देह हर व्यक्ति को अपने जीवन का धर्म-ग्रन्थ, स्वयं लिखना पड़ेगा, अपने जीवन का समाधान स्वयं ढूँढ़ना पड़ेगा, तभी वह स्वतंत्र, मुक्त - जीवन का अधिकारी बन सकता है। संसार में जिन्होंने भी मुक्ति प्राप्त की है, कुछ किया है, उन्होंने अपने जीवन की पोथी स्वयं लिखी है। अपना उपदेश स्वयं ग्रहण किया है।
आप यह बार-बार हृदयंगम कर लें-आपकी समस्याओं को, अपने जीवन को जितना आप समझ सकते हैं, उतना दूसरा कोई नहीं समझ सकता। जो समाधान आप स्वयं निकाल सकते हैं, वह दूसरा कोई भी नहीं निकाल सकता। और इसके लिए आपको स्वतन्त्र चिन्तन का स्वतन्त्र विचार क्षमता का अवलम्बन लेना पड़ेगा। इसके सिवाय अन्य कोई रास्ता नहीं है। अपनी प्रकृतिदत्त बुद्धि, विवेक, प्रतिभा से विचारों की गुलामी का पर्दा हटाना होगा, तभी आप स्वतन्त्र निर्णय शक्ति के अधिकारी बनेंगे।
इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों के कहे या लिखे हुए विचार व्यर्थ होते हैं। नहीं, वे भी कुछ हद तक आपकी सहायता कर सकते हैं—स्वतन्त्र निर्णय करने में। लेकिन फिर भी किसी विचार को पढ़ या सुनकर ही उसे सत्य न मान लें। प्रत्येक विचार की प्रामाणिकता की एक कसौटी है, यह कि उसके मूल में सचाई अधिक हो। जिस विचार से व्यक्ति और समाज के धारण-पोषण, सत्व संशुद्धि का विरोध न होता हो, अर्थात् जिससे व्यक्ति और समाज का जीवन अधिक समर्थ, सम्पन्न निर्मल बने, जिससे किसी विकृति का उदय न हो वही विचार उत्तम होता है। लेकिन ऐसे विचार जिनसे किसी व्यक्ति या समूह विशेष का तो लाभ हो, किंतु इसके लिए दूसरों को घाटे में रहना पड़े। दूसरों का अहित हो तो समझिए—उस विचार में कहीं न कहीं कुछ दोष भूल अवश्य है। यह एक ऐसी कसौटी है, जिस पर किसी भी विचार का कस निकाला जा सकता है। बिना इस कसौटी पर कसे किसी भी विचार को आँख मींच कर गले न उतारें अन्यथा आप विचारों की गुलामी से बच नहीं सकेंगे।
कोई भी निर्णय करने में जल्दबाजी न करें। पर्याप्त सोच-विचार करके जो अपनी अन्तरात्मा को स्वीकार हो, उसे ही ग्रहण करें। जल्दबाजी में मनुष्य दूसरों के प्रभाव या विचारों के प्रवाह में बह जाता है। कोई भी निर्णय तब तक न करें, जब तक आप उसके सब पहलुओं पर पर्याप्त विचार न कर लें। चाहे आपके समक्ष स्वर्ग का वरदान आये या धरती के राज्य का। आपका बड़े से बड़ा लाभ भी क्यों न प्रस्तुत किया जाय, आप तब तक उसे स्वीकार न करें, जब तक कि पर्याप्त विचार उस पर करके सही समाधान ढूँढ़ न लें।
स्वतन्त्र चिन्तन के लिए मनुष्य को चरित्र-बल, नैतिक-बल की भी आवश्यकता होती है। चरित्र-हीन, अनैतिक व्यक्ति का मन, प्रतिभा, बुद्धि सब निर्बल अवस्था में होते हैं। स्वतन्त्र विचारों को ग्रहण करने की, साधना करने की क्षमता ही नहीं रहती, ऐसे लोगों में। इससे चरित्र की दृढ़ता, मन की सबलता स्वतन्त्र चिन्तन के लिए अत्यावश्यक है। जिस तरह गंगा को धारण करने के लिए—शिवजी जैसे सामर्थ्यवान् व्यक्तित्व की आवश्यकता हुई, ठीक इसी तरह अन्तराकाश से आने वाली वेगयुक्त विचार-गंगा को धारण करने के लिए सबल मस्तिष्क, सशक्त मन, बुद्धि की आवश्यकता होती है। चरित्रहीन व्यक्तियों को तो निस्संदेह दूसरों के विचारों का गुलाम बनना ही पड़ता है।
मौलिक चिन्तन के लिए—स्वतन्त्र विचारों की साधना के लिए सबसे आवश्यक और महत्वपूर्ण जो बात है,वह यह कि अपनी अन्तरात्मा की वाणी सुनें। हमारी आत्मा निरन्तर बोलती है, कहती है, हमें परामर्श देती है। उसे सुनने का यदि हम प्रयत्न करें तो कोई कारण नहीं कि हम अपनी समस्याओं और शंकाओं का समाधान न कर सकें, हम अपना मार्ग न ढूँढ़ सकें।