
मानसिक आवेशों का सदुपयोग करना सीखें
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कि सी विद्वेष, कलह या झगड़े को मिटाने के लिए पहला उपाय तो यह हो सकता है कि उसके लिए हिंसात्मक द्वंद्व करें। इसमें शारीरिक, मानसिक तथा साधन-जन्य सभी शक्तियों का विनाश निश्चित है। क्रोध, घृणा और बल, प्रयोग से दोनों ही पक्षों की शक्तियाँ निश्चित रूप से पतित होती हैं। इस मार्ग से यदि किसी को विजय या सफलता मिल भी जाये तो उसे स्थायी विजय नहीं कह सकते। क्योंकि हिंसात्मक विजय, बल और साधनों की उपयुक्तता पर ही निर्भर हैं। इन साधनों में जैसे ही अपेक्षाकृत कमी आई अथवा विजित पक्ष की साहसिक और प्रतिरोधात्मक भावनायें बढ़ीं तो बार-बार नए-नए द्वंद्व उठते रहेंगे और शक्ति का पतन निरन्तर चलता रहेगा।
क्रोध, भय, उद्वेग, घृणा आदि मानसिक आवेगों के कारण शारीरिक व मानसिक शक्तियाँ गिरती हैं। कल्पना-शक्ति क्षीण होती है। आपकी सम्पूर्ण मनोगत चेष्टायें केवल बचाव की चिन्ता और प्रत्याक्रमण की विनाशकारी योजनाओं में ही लगी रहेंगी। आप उन परिस्थितियों को क्षणभर के लिए भी भुला न सकेंगे। उन्हीं विचारों में कुढ़ते रहेंगे। आपका अधिकाँश समय, जिसे आप अपने विकास-कार्यों में प्रयुक्त कर सकते थे, निष्प्रयोजन बर्बाद होता रहेगा।
लड़ाई-झगड़ों के बाद भी मानसिक आवेग बने रहते हैं। जो पक्ष हार गया है वह अधिक शक्ति से प्रतिशोध लेने की तैयारी कर रहा होगा। इस कार्य में उसके सम्बन्धी व मित्र-जन भी सहयोग दे रहे होंगे। यह काम कभी-कभी वंशानुगत भी हो जाता है। आल्हखण्ड में ऐसे वर्णन आते है—जब बाप, बाबा या उससे भी पूर्व अपने किसी परिजन का प्रतिकार लेने को लिए भयंकर संघर्ष हुए और भारी मारकाट तथा रक्तपात हुआ है। एक आवेश शान्त न होकर, अनेकों विद्रूप उत्पन्न करता है। इसलिए विचारवान महापुरुषों ने सदैव ही हिंसात्मक प्रतिशोधों को दूर करने को ही मानवीय—धर्म-कर्तव्य माना है। शान्ति और सुव्यवस्था के लिए यह आवश्यक भी प्रतीत होता है।
संघर्ष का अन्त किसी भी रूप में क्यों न हो उससे स्थायी शान्ति, सन्तोष और सुव्यवस्था कभी बन नहीं पाई। मृत्यु-दण्ड, सामूहिक दमन गिरफ्तारी, सैनिक आक्रमण, मारकाट, अदालत में धन और समय का अपव्यय आदि दुष्परिणाम अवश्य उत्पन्न हुए हैं और किसी भी पक्ष को सुख व शान्ति नहीं मिली। न ही किसी का विकास हो पाया। इसलिए क्रोध और कटुता के परिणाम कभी भी भले नहीं हो सकते। इसके व्यक्तिगत व सामूहिक परिणाम सदैव ही बड़े दुःखद हुए हैं। इसकी बड़ी दूषित प्रतिक्रिया जन-मानस में पड़ी है इसलिए बुराई की भावना विनाशक मानी जाती है।
पर जब प्रतिरोध की व्यवस्था विचारपूर्वक और शान्ति के साथ की जाती है तो अधिक दूरदर्शिता से काम लिया जाता है और परिणाम भी हितकर होते हैं। जब केवल तात्कालिक बातों पर ध्यान न देकर यह विचार किया जाता है कि यथार्थ में ऐसी घटना बनने का कारण क्या है? तो समस्या बिलकुल छोटी सी जान पड़ती है और उसे हँसकर टाल देना आसान हो जाता है। मुकाबले की शक्तिपूर्ण तैयारी की अपेक्षा साहस के साथ दूरगामी परिणामों पर विचार करते हुए, जो हिंसात्मक कार्रवाई की जाती है उससे शक्ति का अपव्यय उतना नहीं होता। किसी भी समस्या के स्थायी स्थायी विवेकपूर्ण समाधान निकल आते हैं और समस्या के तात्कालिक दुष्परिणाम रुक जाते हैं। इस अवस्था का नाम समझौता है। गान्धी जी इसे सत्याग्रह कहा करते थे। इसमें भी संघर्ष की तैयारी तो करनी पड़ती है किन्तु उसकी भूमिका अहिंसात्मक होने के कारण हानि और विनाश की सम्भावनायें शिथिल पड़ जाती हैं।
क्रोध और घृणा को जीतने के लिए उच्चस्तरीय भावना का नाम ‘प्रेम’ है। यह रचनात्मक पद्धति है जिसमें किसी भी पक्ष को न तो हानि उठानी पड़ती है न शक्तियों का अपव्यय होता है। सत्याग्रह के लिये प्रेम का प्रयोग अधिक प्रभावशाली होता है। परिणाम समय-साध्य हो सकते हैं किन्तु इसमें किसी भी पक्ष को किसी प्रकार का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। जिस पक्ष से वस्तुतः अपराध हुआ उसकी अन्तःस्थिति पर भी इस का बड़ा सौम्य प्रभाव पड़ता है और स्थिर सुख शान्ति और सन्तोष के मंगलदायक परिणाम दिखाई देने लगते है। शक्तियों का यह पुनीत सम्मिलन जीवन में आनन्द पैदा करता है। इससे समाज और व्यक्ति का नैतिक उत्थान होता है।
कुछ व्यक्तियों के समक्ष प्रेम और सहयोग से, धैर्य पूर्वक सत्याग्रह अथवा मित्रतापूर्ण विचार रखने से भी समस्याओं का समाधान नहीं होता और बल प्रयोग की अहिंसात्मक कार्यवाई भी करनी पड़ती है तब कहीं जाकर परिस्थितियों का निबटारा होता है। यह मार्ग भी विचारों के विस्तार और मनोवैज्ञानिक पूर्णता के लिये आवश्यक जान पड़ता है। परन्तु अहिंसात्मक कार्य करते हुये भी कर्ता की भावना में दर्प का समावेश नहीं होना चाहिये। यह कार्य अन्त तक खोजपूर्ण दृष्टि से चलाना चाहिये। अपना उद्देश्य यही रहे कि किसी भी पक्ष में भय व्याप्त न हो, तो भी अनुचित पक्ष को अपनी हार स्वीकार करनी पड़े। इसके लिये प्रेम के साथ आपका साहस, आत्मविश्वास, स्वाभिमान और शक्ति -संगठन भी आवश्यक है। प्रेम एक निर्जीव साधन की भाँति प्रयुक्त न होना चाहिये।
मनुष्य में दूसरों की उन्नति देखकर ईर्ष्या करने की स्वाभाविक वृत्ति होती है। इस का परिणाम दूसरों को नीचा दिखाने और अकारण बैर मोल लेने तक ही सीमित नहीं रहता वरन् यह कभी-कभी मनुष्य की तीव्र घृणा और खतरे का कारण भी बन जाती है और जिससे ईर्ष्या की जा रही है उसे दण्ड दिलाने सताने की भावना पैदा होती है। जिस प्रकार पहली अवस्था में घृणा का परिणाम शक्तियों का अपव्यय ठहरा था उसी प्रकार ईर्ष्या और लड़ाकूपन की कुविचार पूर्ण स्थिति से भी निर्माण की सम्भावनायें समाप्त होती है और मानसिक आवेशों का दुरुपयोग होने लगता है।
मानसिक आवेश, चाहे वह प्रेम-मैत्री, सद्भावना या आत्मीयता के रूप में प्रस्फुटित हो अथवा क्रोध, घृणा और ईर्ष्या के रूप में दिखाई दे—वह एक प्रकार की मानसिक शक्ति ही होता है। मन का सम्बन्ध शरीर से है इसलिये जब कभी इस शक्ति का सदुपयोग अर्थात् प्रेम और मैत्री की भावनाओं का विकास करते हैं तो उससे मन के साथ शारीरिक शक्तियाँ भी विकसित होती हैं और जब ईर्ष्या, विद्वेष के कारण आवेश का दुरुपयोग होता है तो यह समझना चाहिये कि इस दुरुपयोग का हानिकारक प्रभाव मन और शरीर पर समान रूप से पड़ा है।
भय, काम, क्रोध तथा लोभ आदि आवेशों के कारण जीवन में अनेकों दुःखद घटनायें घटित हुआ करती हैं। मनुष्य का अहित करने वाली कोई बाह्य शक्ति उतनी प्रभावशाली नहीं हो सकती जितना ये मनोविकार मनुष्य को दुर्बल और पतित बनाते हैं। इन आवेशों को जब दमन पूर्वक जीतने का प्रयास करते हैं तो सम्भव है अपना प्रयत्न सफल हो किन्तु खीझ, ऊब, उत्तेजना के क्षणिक आवेश भी निश्चित रूप से उठेंगे और कम ही सही, किन्तु शक्तियों का अपव्यय अवश्य होता है। केवल इतना लाभ है कि संशोधन काल में हमें जीवन-विकास का सच्चा और अनुभूत ज्ञान प्राप्त हो जाता है। एक लाभ यह भी होता है कि लौकिक जगत के बन्धन और आध्यात्मिक जीवन के प्रति आस्था का भाव और भी प्रगाढ़ होता है। इसलिये निश्चेष्ट होने की अपेक्षा संघर्ष करना उचित है। यह प्रतिरोध व्यवहार जगत में हिंसात्मक न हो तो वहाँ भी थोड़े से प्रयास से सदाचरण की प्रतिष्ठा बढ़ती है। इस प्रकार अहिंसात्मक प्रतिरोध के भाव को मध्यम मार्ग मानते हैं।
किन्तु श्रेष्ठ जीवन और मानवता की सिद्धि का मार्ग सद्गुणों की पूर्णता है यह रचनात्मक पद्धति है जिसमें मध्यम मार्ग के छोटे संघर्ष भी उत्पन्न नहीं होते। सद्गुणों में एक प्रकार की सजीवता होती है जो मनुष्य के विचार और व्यवहार दोनों में सरसता पैदा करती है। बुद्धि और मन के विकास से ही मनुष्य में मानवता की प्रतिष्ठा होती है। प्रेम, आत्मीयता, करुणा, मैत्री, स्नेह, सहृदयता आदि का विकास करना ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। इसी से मानवता का उत्कर्ष होता है और समाज में सुख और शान्ति की परिस्थितियाँ बढ़ती हैं।