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Magazine - Year 1964 - Version 2

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Language: HINDI
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हित भुक्, मित भुक्, ऋत् भुक्

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महर्षि चरक की इच्छा थी कि वह आयुर्वेद का विस्तार सारे देश में करें ताकि लोग उसका अधिक से अधिक लाभ उठा सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने आयुर्वेद के सारे ग्रन्थों का भाष्य किया और सर्वसाधारण के उपयोग के उपयुक्त बनाया। एक बार महर्षि जी के मन में बात आई कि देखें लोग उन नियमों पर चलते हैं या नहीं जिनका स्वास्थ्य से सम्बन्ध है।

महर्षि पक्षी का रूप बनाकर वैद्यों के बाजार में ‘कोडरुक्’ अर्थात्—”रोगी कौन नहीं” की आवाज लगाने लगे। वैद्यों ने सुना तो किसी ने कोई औषधि बताई, किसी ने कोई अवलेह बताया। किसी का मत था चूर्ण से, किसी का विचार था भस्मों से रोग दूर रहता है। पर इससे महर्षि को सन्तोष न हुआ। कुछ आगे बढ़कर वही आवाज लगाने लगे। वाग्भट्ट ने इसे सुना तो उत्तर दिया “हित भुक्”, “मित भुक्” ,”ऋत् भुक्।” उत्तर सारपूर्ण है यह समझ कर महर्षि नीचे उतरे और वाग्भट्ट को उनकी विद्या की सार्थकता पर धन्यवाद दिया।

स्वास्थ्य और आरोग्य के जो सर्वमान्य तथ्य हैं वे यही तीन हैं। शेष सब इन्हीं की शाखा-प्रशाखायें हैं। औषधियों का चयन केवल रोग के बाद उपचार की दृष्टि से हुआ है पर सही रूप में स्वास्थ्य का सुख और रोग से बचने के लिए हिताहार मिताहार और ऋताहार उपयोगी ही नहीं आवश्यक है। इन नियमों का उल्लंघन करने से कोई भी व्यक्ति अधिक देर तक स्वस्थ व नीरोग नहीं रह सकता। स्वास्थ्य साधन के जो विभिन्न उपाय बताये जाते हैं वे इन्हीं के अंतर्गत विकसित हुये हैं। अधिक गहराई और कष्ट पूर्ण प्रक्रियाओं में न जाकर इन नियमों का पालन करते हुये मनुष्य सरलता पूर्वक अपना स्वास्थ्य बनाये रख सकता है।

हित भुक् का अर्थ है मनुष्य वह आहार ग्रहण करे जो हितकारी हो। हितकर भोजन को शारीरिक विकास और आहार निषेध दो रूपों में विभक्त करते हैं। अर्थात् प्रथम विभाग के अनुसार वे बातें आती हैं जिनसे शरीर का पोषण और विकास होता हैं। इस कोटि में वह सभी खाद्य आते है जो शरीर में शक्ति बढ़ाते और अंगों को पुष्ट करते हैं। प्रोटीन, विटामिन चर्बी, लवण आदि शक्ति और अवयव विकास वाले पदार्थ अधिक से अधिक प्राकृतिक रूप में लेने से आहार की सरलता बनी रहती है। इसे ही हित कर आहार कहते हैं इस दृष्टि से स्वाद की कहीं कोई आवश्यकता दिखाई नहीं देती। स्वाद का सम्बन्ध जीभ से है पर आहार की आवश्यकता स्वास्थ्य संरक्षण और जीवन-शक्ति से है इसलिये आहार वही उपयोगी होता है जो कम से कम अप्राकृतिक और सादा हो। यह मानना गलत है कि शक्ति बढ़ाने के लिये घी, दूध आदि परमावश्यक हैं। रोटी, दाल, शाक और साधारण फलों से भी पूर्ण स्वस्थ रहा जा सकता है।

तात्पर्य यह है कि हितकर आहार उस आहार को मानना चाहिये जो कम से कम परिवर्तन और मिलावट से तैयार किया गया हो। यह बात इतनी जटिल नहीं है जिसे सर्व-साधारण भली प्रकार समझ न सकें। सरल और सात्विक आहार स्वास्थ्य की प्रथम आवश्यकता है।

इस दृष्टि से चाट, पकौड़े, चाय, मिठाई तथा इस युग में प्रचलित विभिन्न प्रकार के रासायनिक पेय स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं।

स्वास्थ्य-संरक्षण की दूसरी आवश्यकता है आहार को उचित परिमाण में लेना। इस सम्बन्ध में संसार के सभी स्वास्थ्य विशेषज्ञ एक मत हैं कि मनुष्य हिताहार द्वारा पूर्ण निरोगिता और दीर्घ आयुष्य प्राप्त कर सकता है। “भाव-प्रकाश” में इसी आशय को इस प्रकार व्यक्त किया है :—

कुक्षेभगिद्वये भोज्यैस्तृतीये वारिपूरियेत्।

यायो संचारणार्थाय चतुर्थमशेषयेत्॥

अर्थात्—पेट का आधा भाग अन्न और चौथाई भाग जल से भरे। शेष चौथाई भाग वायु अभिगमन के लिये सदैव खाली रखना चाहिये।

यथार्थ में स्वास्थ्य मनुष्य का तभी खराब होता है जब वह अनावश्यक मात्रा में कुछ न कुछ खाता रहता है। अभी चाट, अभी पकौड़ी, थोड़ा हलुआ फिर मलाई पूड़ी पकवान जो कुछ मिले उदरस्थ करते रहने से पेट में एक जंजाल खड़ा हो जाता है और पाचन संस्थान स्वाभाविक रूप से काम करना बन्द कर देता हैं। नियम यह है कि जो एक बार खा लिया उसके पच जाने और मल-निष्कासन के पहले भोजन नहीं करना चाहिये। अधिक मात्रा में खा लेने से आहार पेट में कई दिन तक दबा पड़ा रहता है, यदि इस आहार को पर्याप्त वायु न मिलती रहे तो पेट में एक प्रकार का विष उत्पन्न हो जाता है और अपच, अजीर्ण, थूक आना, जी मिचलाना, अनिद्रा, छटपटाहट सिर, दर्द, स्वप्नदोष आदि अनेकों विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि आहार का परिमाण निश्चित करना अधिक आवश्यक है। उपवास का महत्व इसीलिये अधिक है कि इससे पाचक संस्थान को पर्याप्त विश्राम मिल जाने से उसे दुबारा अधिक सुविधा पूर्वक कार्य करने की शक्ति और क्षमता मिल जाती है।

डाक्टरों का मत है कि प्रत्येक मनुष्य के पेट में मल का कुछ न कुछ संचय अवश्य होता है। मिताहार के कारण पाचन संस्थान की जो शक्ति शेष बच जाती है वह इस मल सञ्चय को निकालने में लग जाती है, इससे पेट की अधिक से अधिक सफाई बनी रहती है।

यदि इस मल को हटायें नहीं तो पौष्टिक आहार भी इसके साथ मिल जाता है जिससे उसकी शक्ति समाप्त हो जाती है साथ ही जो रक्त बनता है उसमें भी अस्वच्छता आ जाती है जिससे सारे शरीर का स्नायु मण्डल दुर्बल पड़ जाता है।

इन परेशानियों से बचाने के लिये प्रकृति ने भूख लगने पर खाने का नियम बना दिया है। चिड़ियाँ पेट भर जाने से अधिक कभी नहीं खातीं। गायें-भैंसें भूख मिट जाती है तो बैठकर जुगाली करने लगती हैं। पेट आहार की आवश्यकता भूख द्वारा व्यक्त करता हैं। इसी प्रकार खाने से जो तुरन्त तृप्ति मिलती है, एक प्रकार का सन्तोष प्राप्त होता है उससे प्राकृतिक तौर पर आहार का परिमाण निश्चित होता है। अर्थात् किसी को यह शिकायत नहीं हो सकती कि उसने भूल से अधिक खा लिया है। मानसिक समाधान हुआ और यों समझना चाहिये कि पेट को उसकी उचित और आवश्यकता मिल गई। फिर भी यदि कोई स्वादवश अधिक खा जाता है तो दोष उसी का है और इसका दण्ड भी अनिवार्यतः उसी को भुगतना पड़ता है।

खाने से शक्ति मिलती है इसमें किसी तरह का सन्देह नहीं है पर यह भी निर्विवाद सत्य है कि अधिक मात्रा में लिया गया आहार शरीर में विष ही उत्पन्न करता है इस लिये मात्रा में हलका और सुपाच्य भोजन करना स्वास्थ्य-रक्षा की दूसरी अनिवार्य शर्त हो जाती है। रोगमुक्त जीवन जीने के लिये इस दूसरे नियम का भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।

स्वास्थ्य अक्षुण्ण रखने का तीसरा मनोवैज्ञानिक तथ्य है ऋत् आहार। आहार का सम्बन्ध मनुष्य के सूक्ष्म विचार और संस्कारों से भी होता है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का—अन्तःकरण चतुष्टय अन्न के सूक्ष्म संस्कारों को लेकर विनिर्मित होता है इसलिये हमारे पूर्वजों ने इस बात पर अधिक जोर दिया है कि मन को स्वस्थ और बलिष्ठ रखने के लिये ऐसा आहार ग्रहण करें जो ईमानदारी और परिश्रम से उपार्जित हो। मेहनत की कमाई में एक प्रकार की सात्विकता होती है जो सद्गुणों का विकास करती है और तामसी प्रवृत्तियों से बचाती है। पाप का अन्न मनुष्य को पापी बनाता है। कुसंस्कारों से प्रेरित मनुष्य दुष्कर्म ही करते हैं इससे उनके मनो-जगत में एक प्रकार की ऊब, उत्तेजना, भय, निराशा आदि मनोविकार छाये रहते हैं, इनका स्वास्थ्य पर बड़ा दूषित असर पड़ता है।

इन समस्याओं को दृष्टि में रखते हुये ही शास्त्रकारों ने प्रवचन किया है—

युक्त हार विहारस्य युक्त च्येष्टस्य कर्मसु।

हम जो भी ग्रहण करें उसमें “हित भुक्, मित भुक्, ऋत् भुक्” के सिद्धान्त को न भूलें। जो इस स्वास्थ्य मन्त्र को याद रखता है, उसी को आरोग्य प्राप्त होता है, वही दीर्घ-जीवन का सुख प्राप्त करता है।

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