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Magazine - Year 1964 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्म-बल और उसकी महत्ता

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“तुम पृथ्वी के सबसे आवश्यक प्राणी हो।”

आत्म-शक्ति की दृढ़ता एवं सबलता सब जगह सफलता देती है। इसके लिए आपको अपने भीतर यह विश्वास दृढ़तापूर्वक बैठा लेना चाहिए कि आत्म-बल के बिना मनुष्य में स्वावलम्बन की प्रवृत्ति ही नहीं उठती और स्वावलम्बन के बिना वह अपना उत्थान करने में असमर्थ रहता है। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति को आत्म- सत्ता में सर्वाधिक विश्वास करना चाहिए। आप में यह विश्वास होना चाहिए कि हमारा जीवन निरर्थक नहीं है, हममें कुछ विशेष शक्तियाँ हैं, तभी ईश्वर ने हमको मानव शरीर दिया है। अगर हम तुच्छ होते तो मानव शरीर न पाकर खटमल, झींगुर का शरीर पाते। यदि हमको अपना शरीर मनुष्य जैसा दिखाई देता है तो हमको निश्चित रूप से यह विश्वास कर लेना चाहिए कि हम भी वही हो सकते हैं, जो कोई अन्य मनुष्य शरीरधारी हो चुका है। हमको अपनी क्षण-भंगुरता पर नहीं, वरन् अपनी ईशता पर विश्वास करना चाहिए। यह विश्वास आत्म-स्फूर्ति देता है और मनुष्य के सोये हुए बल को जगाता है।

कोई कारण नहीं कि कोई व्यक्ति अपने को अनावश्यक समझे। जब तक वह स्वयं अपने को आवश्यक न मानेगा, तब तक दूसरे उसे कैसे आवश्यक मानेंगे? अतएव अपने साथ विश्वासघात न करना चाहिए। अपनी मनुष्यता को पहचानना चाहिए।

—आत्म-विकास

दूसरों के नहीं, अपने दोषों को ढूंढ़ो!

दूसरों के गुण दोष विवेचन में मनुष्य जितना समय खर्च करता है, उसका एक प्रतिशत भी यदि आत्म-निरीक्षण में लगाये तो आदर्श मनुष्य बन जाय। दूसरों के दोष आँख से दीख जाते हैं, पर अपने दोषों का चिन्तन मन को एकान्त में स्वयं करना पड़ता है। शरीर का दर्पण अभी तक कोई नहीं बना और न बनेगा। जो व्यक्ति छिद्रान्वेषण करते हैं, वे प्रायः छिप कर करते हैं। पीठ पीछे सब एक दूसरे को भला- बुरा कह लेते हैं, हमारी बात-चीत का विषय ही प्रायः पर-निन्दा होता है। मन में दुर्भावना रहते हुए अक्सर लोग चापलूसी भरी प्रशंसा करते रहते हैं। ऐसी प्रशंसा आपको सही आत्म-निरीक्षण से रोकती रहती है। मनुष्य चरित्र की यह सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह अपनी प्रशंसा का सदा भूखा रहता है। अन्तिम साँस तक भी मनुष्य की यह भूख नहीं जाती । इसलिए हमारा सब कुछ झूठ से भरा होता है। छल कपट की बातों से हमें प्रेम हो जाता है। सचाई प्रायः कड़वी लगती है। न कोई उसे कहता है, न सुनता है। पीठ पीछे ही वह कहीं सुनी जाती है। इसलिए सत्य शोधकों को पीठ पीछे की सच्ची बातें सुनने के लिए वेष बदलना पड़ता है। प्राचीनकाल में राजा लोग वेष बदल कर ही सच्चे लोक-मत की जाँच किया करते थे। आजकल गुप्तचरों द्वारा यह काम होता है। व्यक्तिगत जीवन में भी यदि हम गुप्त रूप से अपनी चर्चा सुनने का प्रयत्न करें, तो अपने दोषों को जान सकते हैं। किंतु ऐसी चर्चा भी प्रायः आर्त रंजित और पक्षपातपूर्ण होती है। सचाई तो वही है जो हमारे अन्तःकरण में छिपी है। अपना गुप्तचर आप बन कर ही हम उसका अनुसन्धान कर सकते हैं। यह आत्म परीक्षा ही हमें, हमारे चरित्र के असली स्वरूप को हमारे सामने प्रकट करेगी और तभी हम चरित्र में सुधार कर सकेंगे।

यदि हम अपने चरित्र को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं तो सोने से पूर्व या सोकर उठने के बाद एकान्त में हमें प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। हमारा व्यवहार ही हमारे चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है। विचारों में तो सभी आदर्शवादी हो सकते है। योग्य-अयोग्य का ज्ञान या पुण्य-पाप की अनुभूति तो कुछ न कुछ मूर्ख और पापी को भी होती है। किन्तु व्यावहारिक जीवन में हम उन आदर्शों को भूल जाते हैं हमारी प्रवृत्तियाँ हमारे ज्ञान की अनुयायी नहीं होतीं । हमें अपने को ज्ञान से नहीं, वरन् अपने व्यवहार से परखना चाहिए।

—चरित्र-निर्माण

आत्म- निरीक्षण कीजिए!

अपने स्वभाव, दृष्टिकोण, विचार और व्यवहार आदि की परीक्षा करने से मनुष्य को अपनी बहुत-सी कमजोरियों का पता चल जाता है। संसार को दोष देने के पूर्व अपने दोषों को भी देख लीजिए कि कहीं आपके हृदय-सदन में ही तो अँधेरा नहीं है? अपनी उस त्रुटि को ढूंढ़िये— जिसके कारण आपको हर्ष में भी विषाद की ही छाया दिखाई पड़ती है। यदि दुनिया धुँधली दिखाई पड़ती है तो उसे ही दोष मत दीजिए। सम्भव है, आपकी दृष्टि में ही धुँधलापन हो। अपने बुद्धि-दोष और कर्म-दोष पर भी विचार कीजिए। यह देखिए कि आपकी मति तो कुण्ठित नहीं है, आपकी मानसिक कायरता तो आपकी असफलता का कारण नहीं है? जो विकार आपको बाहर दिखाई पड़ता है, उसका मूल स्वयं आपके भीतर हो सकता है।

दूसरों के दृष्टिकोण को समझकर भी आप अपने दोषों का पता लगा सकते हैं। मान लीजिए—सब आपका तिरस्कार करते हैं। उस अवस्था में उन पर रोष करने से पहले अपने दोषों पर विचार कीजिए। अपनी उस गन्दगी की ओर ध्यान दीजिए , जिसके कारण लोग आप से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। यह देखिए कि कहीं आप में ही तो शवान-वृत्ति अर्थात् काटने को दौड़ना, भूँकना, जीभ निकाले रहना, दूसरों के द्वार पर पड़े रहना, स्वार्थ वश सबके पीछे घूमना आदि दोष तो नहीं हैं? यदि आप में ऐसे लक्षण होंगे, तो आपका आदर कोई भला आदमी कैसे कर सकेगा? यदि कोई आपका विश्वास नहीं करता तो यह देखिए कि आपकी विश्वास-पात्रता में कहाँ कमी है? यदि आपको दूसरों से सम्मान नहीं मिलता, तो इस बात पर विचार कीजिए कि आपके गुण- चरित्र वास्तव में सम्मान के योग्य हैं भी या नहीं? भूख लगने से ही किसी को भोजन नहीं मिल जाता । जो अध्यापक यह कहते हैं कि आजकल के शिक्षक पूर्वकाल के छात्रों की भाँति गुरुभक्त नहीं होते और जो बाप यह कहते हैं कि आजकल के लड़के पिता को देवता तुल्य नहीं मानते, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि स्वयं उनमें गुरुता और देवतापन का अभाव तो नहीं है? प्रतिष्ठा तो योग्यतानुसार ही मिल सकती है। यदि आप स्वयं अभद्रता की मूर्ति होंगे तो आपको भद्र-पुरुष मान कर क्यों पूजेगा? इस प्रकार कोई अपने दोषों का पता लगा कर और उनका सुधार करके आप अपने को इस योग्य बना सकेंगे कि दूसरे आपका सम्मान करने लगें।

—मनुष्य का विराट रूप

आत्म-विश्वास से जीवन का उत्कर्ष

जब हम अविचल साहस द्वारा सम्पादित हुए बड़े-बड़े कार्यों और उनके कर्त्ताओं का विश्लेषण करते हैं, तो उनका प्रधान गुण आत्म-विश्वास ही सिद्ध होता है। वह मनुष्य अवश्य ही सफलता प्राप्त करेगा— ऊँचा उठेगा—उन्नति पथ पर अग्रसर होगा, जिसको अपनी कार्य सम्पादन शक्ति पर विश्वास है, जो मानता है कि मुझमें वह योग्यता है कि मैं आरम्भ किये हुए कार्य को अवश्य ही पूरा कर सकूँगा। इस तरह के दृढ़ विश्वास का मानसिक परिणाम केवल उन्हीं लोगों पर नहीं होता, जो उन कार्यों को करते हैं, पर उन लोगों पर भी होता है, जो उनके पास उठते-बैठते हैं तथा उनसे सम्बन्ध रखते हैं।

आप अपनी योग्यता पर जितना अविश्वास करेंगे जितना ही आप भय और शंका को अपने हृदय में स्थान देंगे उतने ही आप विजय से — सफलता से दूर रहेंगे। चाहे हमारा पथ कितना ही कंटकाकीर्ण और अन्धकारमय क्यों न हो, पर हमें चाहिए कि हम अपने आत्म-विश्वास को —मानसिक धैर्य को तिलाँजलि न दें। हमारी शंकायें और भय दूसरों के विश्वास को अधिक नष्ट करते हैं, वैसा नष्ट और कोई बात नहीं करती। यदि तुम अपने आपको पतित समझोगे—यदि तुम समझोगे कि हम सामर्थ्यहीन मनुष्य हैं— हमारा कोई महत्व नहीं, तो दुनिया भी तुमको वैसा ही समझेगी। वह तुम्हारी बात की—तुम्हारी आवाज की कुछ भी कीमत न मानेगी। ऐसा कोई आदमी नहीं मिल सकता, जिसने अपने आपको तुच्छ, हीन और बेकाम समझते हुए कोई महान कार्य किया हो। जितनी योग्यता का हम अपने आपको समझेंगे, उतना ही महत्वपूर्ण कार्य भी कर सकेंगे।

-दिव्य-जीवन

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