
अनावश्यक सत्य भी क्यों बोलें?
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अज्ञान और अविवेक से तमसाच्छन्न मनोभूमि के रजोगुणी और तमोगुणी प्रकृति के मनुष्य ही आजकल संसार में अधिक मात्रा में देखने में आते हैं। वे सत्यवादी की भलमनसाहत का अनुचित लाभ उठाकर अपनी दुष्टता को और भी तीव्र कर सकते हैं और अपने दुष्ट मनोरथ में और भी अधिक आसानी से, सफल हो सकते हैं। इसलिए व्यावहारिक सत्यवादी को अपनी नीयत शुद्ध रखते हुए भी—सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए भी—यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी सत्यवादिता का कहीं दुरुपयोग न हो। जहाँ ऐसा खतरा होता है वहाँ वह सोचकर समझकर मुँह खोलता है और नपी-तुली उतनी ही बात कहता है जिससे काम भी चल जाय और कुपात्रों को आवश्यक लाभ भी प्राप्त न हो।
व्यावहारिक सत्य भाषण के मूल में परहित की, विश्व-कल्याण की भावना रहनी चाहिए। कई बार ऐसे धर्म संकट सामने आ खड़े होते हैं कि बोलने से दुष्ट लोग उसका अनुचित लाभ उठाते हैं और निर्दोषों को सताने तथा अपनी स्वार्थ साधना का प्रयोजन सिद्ध करते हैं। ऐसे अवसरों पर भाषण को नहीं भावना को—उसके परिणाम को ही सत्य का आधार माना जाएगा।
योग दर्शन में इस गुत्थी को भी सुलझाया गया है। 2। 30 के व्यास भाष्य में कहा गया है कि—
ऐषा सर्वभूतो पकारार्थ प्रवृत्ता न भूतोपद्याताय यदि चैवमय्यमिधीय माना भूतोपद्यातरैव स्यात् न सत्यं भवेत् पाप मेव। तेन पुण्यासेन पुण्य प्रतिरुपकेण कष्टं तमः प्रान्पुयात्, तस्यात् परीक्ष्य सर्वभूत हितं सत्यं ब्रूयात्।
अर्थात्—सत्य का प्रयोग जीवों के हित के लिए करना चाहिए। अहित के लिए नहीं। जिसके बोलने से प्राणियों की हानि होती हो वह सत्य होते हुए भी असत्य एवं पाप ही माना जायगा। ऐसा अविवेक पूर्ण सत्य बोलने में दूसरे निर्दोषों को कष्ट उठाना पड़ता है और वक्ता को पाप लगता है। इसलिए परिस्थिति को भली प्रकार विचार कर विवेक का सहारा लेकर सबके लिए कल्याण कारक हो ऐसी वाणी ही बोलें।
कसाई के हाथ से छूट कर गाय भागी जा रही हो और पीछे ढूंढ़ता हुआ कसाई आ जाय। पूछे कि गाय किधर है? तो सत्य बोलने पर गौ-हत्या होती है और कसाई के पाप भार में और भी अधिक बढ़ोत्तरी होती है। गाय को वध की पीड़ा और भी अधिक नरक कष्ट मिलने का दुष्परिणाम। ऐसा सत्य बोलना किस काम का? इस लिए विवेक और परिणाम का ध्यान रखकर ही ऐसे अवसरों पर सत्य बोलना चाहिए।
उपरोक्त प्रकार का एक धर्म संकट आ पड़ने पर एक दर्शक ने बड़ी चतुरता पूर्वक जवाब दिया। वह सुनने ही लायक है—
या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पश्यति।
अहो व्याध स्जकार्याधिन कि दृच्छसि पुनः पुनः॥
जिसने देखा है वह बोलती नहीं, जो बोलती है उसने देखा नहीं। स्वार्थी वधिक! फिर तू बार-बार क्यों पूछता है।
भागती हुई गाय को आँखों से देखा था सो आँखें तो बोलती नहीं। जीभ बोलती है। पर उसने देखा नहीं। इसलिए गाय किधर गई इसका कौन उत्तर दे? वाक् चातुर्य में असत्य भाषण का दोष बचाते हुए भी अधर्म न होने देना इसे एक बुद्धिमत्ता ही कहा जायगा।
ऐसे धर्म संकटों के अवसर पर शास्त्रकार भी भावना सन्निहित सत्य को ही प्रधानता देते हैं और शब्द सन्निहित सत्य की उपेक्षा करते हैं—
सत्यं न सत्यं बलु यत्र हिंसा,
दयान्वितं चानृत मेव सत्यम्।
हितं नराणाँ भवतीह येन,
तदेव सत्यं न चान्यथैव॥
जिससे हिंसा की वृद्धि होती हो वह सत्य, सत्य नहीं। जिससे दया धर्म का पोषण हो वह असत्य भी सत्य है। जिससे प्राणियों का हित होता हो वही सत्य है जिससे अहित होता हो वह सत्य होते हुए भी असत्य ही है।
नीतिकारों ने स्थान-स्थान पर इसी तथ्य की पुष्टि की है :-
ना पृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्नचन्यायेन पृच्छतः।
बिना पूछे या अनीतिपूर्ण उद्देश्य के लिए पूछने पर सत्य भी न कहना चाहिए।
कोई चोर पूछे कि आपके पास कितना धन है और वह कहाँ रखा है तो सत्य बोलने पर अपना धन चले जाने पर उसे चोर की दुष्टता का पोषण होने का खतरा है, इसी प्रकार सेना के गुप्त भेदों को कोई सैनिक यदि सत्य बोलने नाम पर प्रकट कर दें और उससे लाभ उठाकर शत्रु पक्ष आक्रमण कर दे तो यह सत्य भाषण अपराध एवं पाप की श्रेणी में ही माना जाएगा। इस प्रकार का सत्य बोलने वालों को सैनिक न्यायालय में कठोर दण्ड की व्यवस्था होती है। राजकीय गुप्तचर विभाग के कर्मचारी बड़े-बड़े पापों, अपराधों और षड़यन्त्रों का पत्ता लगाने के लिए छद्मवेश बनाकर , छद्म परिचय देकर भेदों का पता लगाते है। इन भेदों के मालुम होने से न्याय तथा धर्म की रक्षा होती है इसलिए इन्हें प्रशंसनीय ही ठहराया जाता है।
योगी अरविन्द ने लिखा है-
“जिन्हें हमारी प्रवृत्तियों एवं योजनाओं को जानने का कोई प्रयोजन नहीं है, जो उन्हें समझते भी नहीं, जो उस जानकारी को प्राप्त कर अपनी हानि ही करेंगे उन्हें अपनी प्रवृत्तियों एवं योजनाओं को बताने की क्या आवश्यकता? आध्यात्मिक रहस्यों को प्रायः गुप्त रखा जाता है यह उचित भी है। अपने आश्रम के क्रिया-कलापों के बारे में हम बाहरी लोगों को पता नहीं लगाने देते, इसका अर्थ यह नहीं कि कोई झूठ बोलते हैं। बहुधा योगी लोग अपने अपने आध्यात्मिक अनुभवों को- विशेष अधिकार व्यक्तियों के अतिरिक्त और किसी को नहीं बताते। यह गोपनियता आहयात् का एक चिर प्राचीन नियम है। ऐसा कोई धार्मिक या नैतिक नियम नहीं है जो अपनी हर बात को हर किसी के सामने प्रकट कर ही देने का आदेश देता है।”
असत्य नहीं हमें सदा सत्य ही बोलना चाहिए। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि अपनी प्रत्येक बात हर किसी से कह ही देना चाहिए। आवश्यकतानुसार मौन रहकर या उत्तर देने में इन्कार करके आवश्यक तथ्यों को छिपाने की अनुमति है। क्योंकि जिनकी मनोभूमि का समुचित विकास नहीं हुआ वे उस गोपनीय तथ्य का दुरुपयोग कर सकते है उसे विकृत करके हानिकारक बना सकते है।
अणु-बम आदी के रहस्य प्रायः छिपा कर रखे जाते हैं। फौजी जानकारियां तो प्रायः गुप्त ही रखी जाती हैं। राजकीय बजट पैदा होने से पूर्व यदि उसका भेद फूट जाय तो चतुर लोग उस आधार पर व्यापार करके करोड़ों रुपया कमा सकते है, और जिन विचारों को उस प्रकार की पूर्ण सूचना उपलब्ध नहीं हुई हैं वे अकारण भारी हानि उठा सकते है। इसलिए बजट के भेद को समय से पूर्ण प्रकट किया जाना इसी प्रकार का अपराध माना जाता है।
महाभारत में भीष्म का एक कौशल अपराजेय था। पाण्डव उससे बहुत घबराये तब युधिष्ठिर ने किसी प्रकार बातों में चतुरता पूर्वक भीष्म से उनकी युद्ध नीति को पूँछ लिया। उन्होंने बता दिया कि - “मैं शस्त्र-त्यागी घायल होकर पृथ्वी पर बड़े हुए, भागते हुए, शरणार्थी, अंग-भंग, स्त्री तथा नपुँसक पर हथियार नहीं चलाता।” इस जानकारी का पांडवों ने पूरा-पूरा लाभ उठाया शिखण्डी नामक नपुंसक को भीष्म के सामने लड़ने खड़ाकर दिया। भीष्म उस पर शस्त्र चला नहीं रहे थे उधर अर्जुन ने शिखण्डी के पीछे छिपकर भीष्म पर बाण चलाये और उन्हें मार डाला। सत्य का अनावश्यक रूप से प्रकट कर देने पर कई बार सत्यवादी को इस प्रकार की हानि भी उठानी पड़ती है जैसी भीष्म को उठानी पड़ी।
असत्य वचन ही उचित है। सत्य का पालन ही उचित है। व्यावहारिक सत्य का यदा-कदा आवश्यक शब्द कौशल को छोड़कर शेष साधारण जीवन में सही सत्य ही बोलना चाहिए। सत्य में ही निष्ठा रखनी है। सत्य नारायण का रूप है जो सत्य का उपहास है वह प्रकारांतर में सत्यनारायण भगवान की ही आचारोक्त पूजा करता है जो केवल भावात्मक पूजा से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, कहीं अधिक उच्च है।