
धर्म ही रक्षा करेगा, और कोई नहीं!
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यह जीवन इस तरह विनिर्मित हुआ है कि इसमें संघर्ष, परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, दैन्यता, कुटिलता आदि के अप्रत्याशित आक्रमण सभी को सहन करने पड़ते हैं। परेशानियों, कष्ट और मुसीबतों की आँधी आती है तो मनुष्य को झकझोर कर रख देती है, उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। बुद्धि ठीक तरह काम नहीं करती, निराशा आ घेरती है। ऐसे समय एक चाह उत्पन्न होती है- कौन हमारी रक्षा करे, कौन हमारा उद्धार करे, सही पथ का ज्ञान कौन कराये?
शास्त्रकार समुद्यत हुआ, उसने बताया :-
यो धर्मा जगदाधारः स्वाचरणे तमानय।
मा विडम्बय तं स ते ह्येकामार्गे सहायकः॥
अर्थात् -हे मनुष्यों! जो धर्म सारे संसार का आधार है, तुम उसी का आचरण करो। धर्म से विमुख मत बनो। तुम्हारा एक मात्र सहायक धर्म ही है।”
यह सच है कि संसार के सम्पूर्ण क्रिया, व्यवसाय, धर्म के कारण ही टिके हैं। सुख और शान्ति की परिस्थितियों का जन्म-दाता धर्म है। लोक-जीवन में वह आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस दिन धर्म का पूर्णतया लोप हो जायगा, उस दिन संसार को सर्वनाश से कोई बचा न सकेगा।
इस युग में जो अधर्माचरण बढ़ रहा है, उससे मनुष्य की नैतिक अवस्था, सुख और शान्ति में बड़ा व्याघात उत्पन्न हो रहा है। किसी के मन में सन्तोष नहीं हैं। मात्र स्वार्थ, भोग और शोषण का जाल फैला है। इस जंजाल में ग्रसित मनुष्य बुरी तरह छटपटा रहा है, पर त्राण का कोई रास्ता उसे सूझ नहीं रहा है।
राह एक ही है-धर्म। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्म शास्त्रों में इसी तत्व का निरूपण हुआ है। जिस युग में धर्म की प्रधानता रही, वह युग-’सतयुग‘ कहलाया। सतयुग में सुख और संपन्नता का आधार धर्म होता है। इसकी विकृति और विडम्बना ही कलियुग में दुःख, क्षोभ और अशान्ति का कारण बनती है।
कि सी भी अवस्था में मनुष्य की रक्षा धर्म ही करता है। भगवान् राम बन जाने के लिए तैयार हुए तो जीवन रक्षा की कामना से उन्होंने माता से आशीर्वाद माँगा। विदुषी कौशल्या ने कहा :-
यं पालयसि धर्मं त्वं प्रीत्या च नियमेन च।
स वै राघवशार्दूल धर्मस्तवामभिरक्षतु॥
अर्थात्-हे राम! तुमने जिस धर्म की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम वन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।’
धर्म शब्द “ध्वै” धातु से बना है, जिसका अर्थ है- धारण करना। अर्थात् जो मनुष्य को धारण करे, शुद्ध और पवित्र बना कर उसकी रक्षा करे, वही धर्म है। धार्मिक कर्मकाण्ड, दान-पुण्य, पूजा-पाठ, अर्घ्य-अंजलि आदि धर्म के साधन और बाह्य प्रतीक मात्र हैं, यथार्थ धर्म तो-परोपकार, दूसरों की सेवा, सचाई, संयम और कर्तव्य-पालन को कहते हैं। धर्म पर चलने का अर्थ है, इन बातों का पालन करना। इन्हें अपने व्यवहार और आचरण में आश्रय देना।
यह नियम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, इनसे मनुष्य जीवन में एक प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है। धर्म मनुष्य जीवन की अग्नि शिखा है, जो प्रकाश भी उत्पन्न करती है और उसकी क्रियाशीलता भी जागृत रखती है। धर्मशील पुरुष के अन्तःकरण में वह बल होता है, जो हजारों, विघ्नों, कोटियों प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त कर देता है। भगवान् राम वन में अकेले थे, विपदायें आईं, विरोध उत्पन्न हुए, किन्तु उनकी मर्यादा पर कोई आँच नहीं आई। सत्य हरिश्चन्द्र ने धर्म की रक्षा के लिए स्त्री-पुत्र, राज्य आदि सर्वस्व परित्याग कर दिया, पर अन्त में महर्षि विश्वामित्र को उनके समक्ष घुटने टेकने ही पड़े। “यतोधर्मस्ततो कृष्णः” इस वचन का समर्थन स्वयं भगवान कृष्ण ने किया है :-
मम प्रतिज्ञाँ च निबोध सत्याँ,
वृणे धमंममृताज्जीविताच्च।
राज्य च पुत्राश्च यशो धनं च,
सर्बं न सत्यस्य कलामुपैति॥
अर्थात्—मेरी प्रतिज्ञा अटल है। मैं जीवन और मोक्ष से धर्म को श्रेष्ठ मानता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन ये सब सत्य अर्थात् धर्म की एक कला के भी बराबर नहीं हैं।
किन्तु देखते हैं-इस युग में पाप और अधर्म ही अधिक बढ़ रहा है। धर्म के नाम पर जो अधर्माचरण का इन्द्रजाल फैला हुआ है, उससे धर्म का सही रूप ही विलुप्त हो चला है। इसे लोगों ने ठगी का मार्ग बना लिया है, पर इससे कुछ लाभ नहीं होता। धर्म का फल पाना है, तो इसे अपने जीवन में घुला डालो। आपके प्रत्येक रोम-रोम में, विचार और कर्म में सर्वत्र ही धर्म समाविष्ट हो तो आप एक अलौकिक आनन्द से प्रत्येक क्षण भरे-पूरे रहेंगे।
धर्म अनादि तत्व है। यह एक प्रकार का दैवी सन्देश है। जिस समय लोगों में भाषा, साहित्य और विचार-प्रदर्शन की क्षमता नहीं थी, उस समय मनुष्य के समक्ष धर्म-अधर्म का प्रश्न उपस्थित हुआ। तब लोग अपने अन्तःकरण की आध्यात्मिक प्रेरणा को प्रमाण मानते थे और उसी के अनुसार आचरण करते थे। इससे यह प्रकट होता है कि धर्म, मानव समाज के नियम या प्रतिबन्ध नहीं हैं, वरन् यह वह दृढ़तम विचार है, जो सम्पूर्ण संसार की भलाई को ध्यान में
रखकर परमात्मा द्वारा प्रस्फुटित किया गया है।
इसलिए उन नियमों को, जिनमें—सार्वभौमिकता की उदार-भावना सन्निहित हो, पालन करना ही धर्म माना जाता है। स्वार्थ और भय के कारण इन नियमों का उल्लंघन करना ही अधर्म है। परपीड़न, द्वेष, निन्दा, छल, कपट, झूठ, बेईमानी आदि बुराइयाँ मनुष्य की स्वार्थपूर्ण संकीर्णताओं के कारण होती हैं। इनसे “सर्वजन हिताय” की सामूहिक भावना का अतिक्रमण होता है। जिससे दूसरों को दुःख मिले या औरों के हितों पर आघात पहुँचे, वह धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म का श्रेष्ठ स्वरूप वह है, जिसमें मनुष्य सबके कल्याण के लिए अपने को घुलाता है। दूसरों को सुखी देखने के लिए अपने थोड़े-से सुखों का भी परित्याग कर देता है। सबकी रक्षा के लिए जो अपने प्राण हवन कर देता है, वह सच्चा धर्मनिष्ठ कहलाने का अधिकारी है।
धर्म परस्पर भेदभाव करना नहीं सिखाता। वह तो मनुष्य में प्रेम और प्रतीति उत्पन्न करता है। सबको भाई मानना और सबके साथ समानता का व्यवहार करना ही उसे प्रिय है। वह जाति-पाँति के, जीव-जीव के शारीरिक भेद को नहीं मानता। आत्मा सर्वत्र