
ईश्वर है या नहीं?
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कई व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करते हैं और कहते हैं-इस सृष्टि को बनाने एवं चलाने वाली कोई चेतन सत्ता नहीं है। प्रकृति के परमाणु अपने आप अपना काम करते रहते हैं और उसी से जीवों का जन्म-मरण होता रहता है। वे आत्मा की सत्ता को भी नहीं मानते और कहते हैं कि पेड़-पौधों की तरह मनुष्य भी एक बोलने वाला पौधा मात्र है। वह रज-वीर्य के संयोग से जन्मता और रोग एवं बुढ़ापे की क्रिया से मर जाता है।
यह नास्तिकवादी विचारधारा दिन-दिन अधिक तेजी से बढ़ रही है। विज्ञानवेत्ताओं को अपनी प्रयोगशालाओं में ईश्वर के अस्तित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण किन्हीं यन्त्रों दुर्बीनों या खुर्दबीनों में नहीं मिल सका है। इसलिए वे यही कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रमाणों के अभाव में हम ईश्वर के अस्तित्व का समर्थन नहीं कर सकते। विज्ञान की वर्तमान मान्यताओं को ही सब कुछ मानने वाले लोगों को इससे और भी अधिक प्रोत्साहन मिला है।
ईश्वर की मान्यता से नीति धर्म और सदाचार के बन्धनों में रहने के लिए मनुष्य को विवश होना पड़ता। उच्छृंखलतावादी ईश्वर की मान्यता रखने पर भी धर्म-कर्म के बन्धनों को तोड़ते रहते थे। अब उन्हें कम्युनिज्म और विकास का समर्थन मिल जाने से और भी अधिक छूट मिलती है। इस प्रकार उच्छृंखलता और अनैतिकता का मार्ग और भी अधिक प्रशस्त हो जाता है। यह मान्यताएं यदि इसी प्रकार बढ़ती और पनपती रहीं तो नैतिकता, श्रम और सदाचार के लिए एक विश्व-व्यापी संकट खड़ा होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि अनीश्वरवादी विचारधारा के तर्कों का परीक्षण किया जाय और यह देखा जाय कि उनके कथन में कुछ सार भी है या नहीं?
अनीश्वरवादियों का कथन है कि-प्रकृति के जड़ परमाणु अपने आप अपनी धुरी पर घूमते हैं, बदलते और हलचल करते हैं, उसी से सृष्टि का क्रम चलता है तथा प्राणियों की उत्पत्ति होती है। ईश्वर की इसमें कुछ भी आवश्यकता नहीं है।
इस कथन पर विचार करते हुए हमें देखना होगा कि क्या चेतन की प्रेरणा बिना जड़ पदार्थों में एक क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित गति-विधि निरन्तर चलते रहना सम्भव हो सकता है? देखते हैं कि कोई रेल, मोटर, जहाज, मशीन, अस्त्र आदि कितना ही महत्वपूर्ण एवं शक्ति शाली क्यों न हो, उसे चलाने के लिए चालक की बुद्धि ही काम करती है। राकेट से लेकर उपग्रह तक स्वचालित यन्त्र तभी अपनी सक्रियता जारी रख पाते हैं, जब रेडियो सक्रियता के माध्यम से मनुष्य उन्हें किसी दिशा विशेष में चलाते हैं। चालक के अभाव में अपनी इच्छा और शक्ति से यदि वस्तुएँ अपने आप ही चलने और काम करने लगें तो फिर उन्हें जड़ ही क्यों कहा जाय?
मशीन से सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सभी चालक की अपेक्षा रखती हैं। सञ्चालन करने एवं प्रयोग करने वाला न हो तो वे महत्वपूर्ण होते हुए भी किसी के कुछ काम नहीं आतीं। इससे प्रकट होता है कि जड़ पदार्थ किसी सञ्चालक की प्रेरणा से ही सक्रियता धारण करते हैं। विशाल सृष्टि के कार्यक्रम में जो सक्रियता, नियमितता और व्यवस्था दीख पड़ती है, उसके पीछे भी चेतन सत्ता का हाथ होना आवश्यक है। इतना बड़ा सृष्टि-साम्राज्य अपने आप इतने विवेकपूर्ण ढंग से नहीं चल सकता। हवा को बहाने वाली, ऋतुओं को बदलने वाली, पौधों को उगाने और सुखाने वाली, कोई शक्ति मौजूद है- यह मानना पड़ेगा। इसे प्रकृति कहें या परमेश्वर, इस नाम-भेद से कुछ बनता बिगड़ता नहीं।
पदार्थों में क्षमता मौजूद भले ही हो, पर उसे गतिशील बनाने वाली एक प्रेरक शक्ति का भी पृथक से अस्तित्व मौजूद है। अणु अपनी धुरी पर अपने आप नहीं घूमते, उन्हें घुमाने वाली भी कोई प्रेरक शक्ति होनी ही चाहिए। इतने नियमबद्ध, इतने विशाल विश्व ब्रह्माण्ड का ठीक प्रकार सञ्चालन होते रहना किसी चैतन्य-सत्ता के द्वारा ही सम्भव है। बुद्धिहीन जड़ पदार्थ अपने आप अपना कार्य नियमपूर्वक करते रहेंगे,यह कैसे सम्भव हो सकता है? सूर्य-चन्द्रमा ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी धुरी तथा कक्षा में निर्धारित गति से घूमते हैं। यदि इसमें तनिक भी अन्तर आ जाय तो एक ग्रह दूसरे ग्रह से टकरा कर टूटने लगे और इसकी प्रतिक्रिया से अन्य ग्रह नक्षत्रों की भी गति-व्यवस्था बिगड़ जाय। पर होता ऐसा नहीं, क्योंकि इन सबका सञ्चालन एक सावधान सत्ता द्वारा हो रहा है।
जो भी वस्तुएं हमारे उपयोग में आती हैं वह किसी न किसी के द्वारा बनाई हुई होती हैं। रोटी, कपड़ा, दवा, मकान,चारपाई, बर्तन, लालटेन, पुस्तक, घड़ी आदि हमारे उपयोग की सभी चीजें किसी के द्वारा बनाई गई हैं। इनके मूल पदार्थ- अन्न, धातु, कपास आदि को तथा उनके भी मूल पञ्च-तत्वों को बनाने वाला भी कोई होना चाहिए। इसी निर्मात्री और सञ्चालन शक्ति का नाम ईश्वर है।
विश्व का सञ्चालन और नियन्त्रण करने वाली कोई विचारशील सत्ता है। उसका अनुमान उसकी कृतियों को ध्यानपूर्वक देखने से सहज ही लग जाता है। जिस प्राणी को जिस परिस्थिति में उत्पन्न किया है उसके अनुकूल ही उसे साधन भी दिये हैं। माँसाहारी जीवों के दाँत और नाखून ऐसे बनाये है कि वे शिकार को पकड़ और फाड़ कर खा सकें। इसी प्रकार शाकाहारी जीवों को उसी व्यवस्था के अनुरूप खाने और पचाने के यन्त्र मिले हैं। ठण्डे बर्फीले प्रदेशों में रहने वाले जानवरों के शरीर पर बड़े-बड़े बाल और गर्म भूमि पर रहने वालों के शरीर उष्णता सहन करने की क्षमता-सम्पन्न होते हैं।
प्राणियों के शरीर में खाद्य पदार्थों को रक्त माँस के रूप में परिणत करते रहने वाली पाचन-प्रणाली ऐसी आश्चर्यजनक है कि उसकी रासायनिक क्षमता देखते ही बनती है। रोगों की निरोधक शक्ति स्वयं ही बीमारियों से लड़ती और रोग-मुक्ति का साधन बनती है। चिकित्सकों से उपचारों द्वारा उसे थोड़ी सहायता ही मिलती है। इस प्रक्रिया की आश्चर्यजनक शक्ति को देखते हुए वैज्ञानिकों को दांतों तले उँगली दबाकर रह जाना पड़ता है। शरीर में लगा हुआ एक- एक कल पुर्जा इतना संवेदनशील और अद्भुत कारीगरी से भरा हुआ है कि उसे अपने आप बना हुआ, अपने आप काम करने वाला नहीं माना जा सकता।
प्राणियों की उत्पत्ति एवं विनाश की प्रक्रिया में सन्तुलन रहना एक ऐसा तथ्य है, जिसे किसी विचारवान् सत्ता का ही कार्य कहा जा सकता है। विभिन्न प्राणी अपनी सन्तानोत्पत्ति बड़ी तेजी से करते हैं। मनुष्य चार-छः बच्चे तो साधारणतः पैदा कर ही लेता है। सुअर और कुत्ते तो अपने जीवन काल में सौ-पचास बच्चे पैदा करते हैं। मक्खी,मच्छर, मछली, चींटी, दीमक आदि तो कई-कई सौ अण्डे देती है। मुर्गी को ही देखिए वह अपने जीवन में कई-सौ अण्डे देती होगी। यह उत्पादन-क्रम विश्व के लिए एक संकट सिद्ध हो सकता है। यदि एक भी प्राणी की यह वंश-वृत्ति निर्बाध गति से चले तो उसके बच्चे ही इस सारी धरती पर कुछ ही वर्षों में छा जावें और अन्य प्राणियों को खड़े रहने के लिए भी जगह न बचे। पर कोई सूक्ष्म सत्ता इस वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए रोग, युद्ध, दुर्भिक्ष, अभाव आदि पैदा करती रहती है और वे सीमित संख्या में उतने ही बने रहते हैं, जितने के लिए धरती पर गुंजाइश है। यदि ऐसा न होता तो करोड़ों वर्षों से चले आ रहे जीवधारी अब तक इतने हो गये होते कि उन्हें अन्य लोक में भेजने के अतिरिक्त और कोई मार्ग न रहता।
जिस ऋतु में जो रोग होता है, उसको शमन करने वाली जड़ी-बूटियाँ भी उसी ऋतु में होती हैं। फल, शाक और अन्नों के बारे में भी यही बात है। ऋतु की आवश्यकता के अनुसार ही पृथ्वी में से वनस्पति और फल-फूल पैदा होते हैं। जहाँ के निवासियों को वहीं की जलवायु और अन्न, शाक, औषधि अनुकूल पड़ती है। यह कार्य किसी विचारवान शक्ति का ही हो सकता है।
नियन्त्रण और सन्तुलन की यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया अपने आप होती रहे, ऐसा संभव नहीं। इसके पीछे कोई विचारशील चेतन सत्ता ही काम करती है। उस ज्ञानवान् चित्त-शक्ति को ईश्वर नाम दिया जाता है। उसके अस्तित्व से इन्कार करना, दिन रहते सूरज को न मानने जैसा दुराग्रह ही कहा जायेगा।