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विद्या रुपं धनं शौर्य्य कुलीनत्वमरोगता।
राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च सर्व धर्म्मादवाप्यते॥
विद्या, धन, रूप, शूरता, कुलीनता, आरोग्यता, राज्य, स्वर्ग, मोक्ष आदि सम्पदाएँ धर्म-पालन करने वाले को ही प्राप्त होती हैं और सद्गुण धर्मात्मा में ही पाये जाते हैं।
शक्तिमानष्य शक्तोऽप्तो धनवानपि निर्धनः।
श्रुतवानपि मूर्खश्च यो धर्म विमुखो नरः॥
धर्म से विमुख, रहित मनुष्य शक्तिमान होने पर भी निर्बल, धन, वैभव रहते भी निर्धन और वेद-शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी मूर्ख रहता है।
इस स्थिति को देखकर बालक ऐचिले को बड़ा दुःख हुआ। उसकी माता धर्मात्मा थी और वह इस बालक को भी पादरी बनाना चाहती थी। बेटा भी इससे सहमत था पर पादरियों की यह दुर्गति देखकर उसे क्लेश हुआ। उसकी माता ने समझाया बेटा! सच्चे धर्म प्रसारकों की सदा आवश्यकता थी और आगे रहेगी। जिनकी दुर्दशा हो रही है वे विलासी और नकली साधु हैं। यदि कोई सच्चा धर्मोपदेशक बन सके तो इसमें उसका भी कल्याण है और धर्म तथा जनता की भी सेवा है। माता ने यह भी बताया कि एक सच्चे धर्मोपदेशक में किन गुणों की आवश्यकता है। त्याग, सेवा, निर्लोभता, उपासना, सदाचार आदि विशेषताओं के साथ उसे विद्वान् भी होना चाहिए। समुचित ज्ञान के अभाव में मनुष्य को न तो आत्म-सन्तोष होता है और न वह दूसरों को ज्ञान-दान से सन्तुष्ट कर सकता है।
बालक एचिले को पादरियों के अपमान से बड़ा दुःख हुआ था। उसने सदा पादरी बनने की ठानी ताकि धर्मोपदेशकों के प्रति जनता के मन में उत्पन्न हुए क्षोभ को वह शान्त करके पुनः श्रद्धा की जड़ जमा सके।
इटली के एक छोटे से गाँव डेसियो में ऐचिले जन्मा। उसका बाप जुलाहे का काम करता था। दस बारह घण्टे के कठोर परिश्रम से वह अपने परिवार की गुजर के लायक कमा पाता था। ऐचिले उसका चौथा पुत्र था। वह थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने चाचा के पास जो पादरी था अस्सो नामक गाँव में चला गया। पर्वतों और प्राकृतिक सौंदर्य से घिरे उस उपवन में उसने काम चलाऊ शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वे कई धार्मिक पाठशालाओं में पढ़ते रहे। उन्होंने शिक्षा जारी रखी और तीन विषयों में उन्होंने ‘डॉक्टरेट’ प्राप्त की। इतने विद्वान पादरी उन दिनों इटली में नहीं के बराबर थे।
उन्होंने धर्मप्रचार तथा जनसेवा का कार्य आरम्भ किया साथ ही आजीविका के लिए नौकरी कर ली। वे दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। फिर वे विशाल अब्रोशियन पुस्तकालय के प्रधान संचालक नियुक्त हुए। वहाँ उन्होंने बहुत पढ़ा और बहुत ग्रन्थ लिखे।
उन्होंने जन-सेवा के लिए बहुत कार्य किया। अनाथ बच्चों को पढ़ाया और उनकी आर्थिक सहायता की। अनेकों शिक्षा संस्था चलाई, पीड़ितों की विविध प्रकार से सेवा की और कुमार्ग पर चलते हुओं को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग पर चलाया। मजदूरों, स्त्रियों और बच्चों के सुधार के लिए अनेकों महत्वपूर्ण कार्य किये।
इटली की आवश्यकता देखकर उनने राजनीति में भी प्रवेश किया। पोलेण्ड में उन्हें अपोस्टालिक विजिटेटर बना कर भेजा गया। तीन साल बाद वहाँ से लौटे तो उन्हें आर्क बिशय बनाया गया। अन्त में वे प्रधान पोप चुने गये। सरकार ने उन्हें ‘नाइट आफ काँस’ की उपाधि से सम्मानित किया।
सन् 1870 में जब इटली की सेना ने रोम पर से पोप का अंधकार समाप्त किया तब से पादरियों का कोई सम्मान देश में न रह गया था। पर ऐचिल की योग्यता और सेवा-भावना से जनता भली प्रकार परिचित थी, उसकी अश्रद्धा श्रद्धा मैं बदल गई। अब ऐचिले का नाम था पोप पायस। जब वे धर्म-मंच पर भाषण देने आये तो विशाल जन समूह उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए घुटने टेक कर बैठा था, सेना ने उन्हें अपने शस्त्र भेंट किये। ऐसा विशाल सम्मान पिछले पचास वर्षों में किसी पोप का न हुआ था।
पोप पायस केवल धर्म गुरु मात्र हो न रहे उन्होंने संसार में सद्-भावनाएं बढ़ाने के लिए भी भारी प्रयत्न किया। उन्होंने इटली और रोम का पुराना झगड़ा सुलझाया। फ्राँस में कपड़े के कारखानों में हड़ताल हुई तो उन्होंने मजदूरों का पक्ष लिया और बहुत-सी सुविधाएँ दिलाई। साम्यवादी नास्तिकता की निन्दा की किन्तु पूँजीवाद के साथ कोई रिआयत नहीं की। उनने कहा-यह और भी अधिक मूर्खतापूर्ण एवं निंदनीय है। मुसोलिनी ने जब तक धार्मिक युवक संस्था का दमन किया तब भी उनने आवाज उठाई। यहूदियों के प्रति घृणा फैलाने वालों को उन्होंने लताड़ा और कहा-यह बात ईसाई आदर्शों के विपरीत है। उन्होंने आधुनिक विचार धाराओं और वैज्ञानिक प्रगति का स्वागत किया। मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े उनने क्रिसमस पर एक संदेश प्रसारित करते हुए कहा-विश्व-शान्ति के लिये मानव मात्र को प्रयत्न करना चाहिए। उन्होंने जीवन भर शान्ति के लिए घोर संघर्ष किया।
धर्म के प्रति और धर्मोपदेशकों के प्रति जनता में जो अश्रद्धा है उसका कारण धर्म व्यवसाइयों की अकर्मण्यता, विलासिता एवं जनता को ठगने की वृत्ति ही है। इसी कारण लोगों की निष्ठा उन पर से उठती आ रही है। यदि ऐचिले-पोप पायस से-जैसे आदर्शों को धर्म गुरु लोग अपनावें, अपना चरित्र ऊँचा रखें, और जन-सेवा में उत्साहपूर्वक संलग्न रहें तो उनको व्यक्तिगत सम्मान भी मिले और धर्म रुचि भी बढ़े। पोप पायस ने आगे बढ़कर संसार के समस्त धर्म जीवियों का प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन किया है।