
जीवन में शिष्टाचार की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शिष्टाचार जीवन का दर्पण है जिसमें हमारे व्यक्तित्व का स्वरूप दिखाई देता है। शिष्टाचार के माध्यम से ही मनुष्य का प्रथम परिचय समाज से होता है। अच्छा या बुरा, दूसरों पर कैसा प्रभाव पड़ता है यह हमारे उस व्यवहार पर निर्भर करता है जो हम दूसरों से करते हैं। शिष्ट व्यवहार का दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, दूसरों को सद्भावना आत्मीयता और सहयोग की प्राप्ति होती है। साथ ही समाज में लोकप्रियता बढ़ती है। इसके विपरीत अशिष्ट व्यवहार दूसरों में घृणा, द्वेष, पैदा कर देता है। अशिष्ट व्यक्ति को शायद ही कोई आत्मीय सहयोगी मिलता है। अशिष्टता से अपने भी पराये बन जाते हैं। सहयोगी भी पीछा छुड़ा लेते हैं यहाँ तक कि दूसरे लोग मिलना भी पसन्द नहीं करते। ऐसा है अशिष्टता का अभिशाप जो हमारे व्यक्तित्व के विकास को अवरुद्ध कर देता है साथ ही हमें समाज में अकेला छोड़ देता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य में कोई विशेषतायें या आकर्षण न हों फिर भी शिष्ट व्यवहार से सहज ही दूसरों की सद्भावनायें अर्जित की जा सकती हैं जो जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए बड़ी उपयोगी और आवश्यक हैं। शिष्टाचार और सद्व्यवहार के विरोधियों को भी अपना बनाया जा सकता है। यह वह अमृत है जिससे कटुता, विरोध और शत्रुता पिघल जाते हैं।
शिष्टाचार व्यवहार की वह रीति-नीति है जिसमें व्यक्ति और समाज की आन्तरिक सभ्यता और संस्कृति के दर्शन होते हैं। परस्पर बात-चीत, सम्बोधन से लेकर दूसरों की सेवा, त्याग, आदर भावनायें तक शिष्टाचार के अंतर्गत आ जाते हैं। शिष्टाचार हमारे आचरण और व्यवहार का एक नैतिक मापदण्ड है, जिस पर सभ्यता और संस्कृति का भवन निर्माण होता है। एक दूसरे के प्रति सद्भावना, सहानुभूति, सहयोग आदि शिष्टाचार के मूलाधार है। इन मूल भावनाओं से प्रेरित होकर दूसरों के प्रति नम्र, विनय-शील, संयम, आदरपूर्ण उदार आचरण ही शिष्टाचार है।
शिष्टाचार का क्षेत्र उतना ही व्यापक है जितना हमारे जीवन-व्यवहार का। समाज में जहाँ-जहाँ भी हमारा दूसरे व्यक्ति से संपर्क होता है, वहीं शिष्टाचार की आवश्यकता पड़ती है। घर में परिवार के छोटे से लेकर बड़े सदस्यों के साथ, सभी जगह तो हमें शिष्टाचार की आवश्यकता पड़ती है, जहाँ तक एक से अधिक व्यक्तियों का संपर्क हो वहीं शिष्टाचार की अपेक्षा रहती है। हमारा सम्पूर्ण जीवन, कार्य व्यापार, मिलना-जुलना, सभी में शिष्ट व्यवहार की आवश्यकता पड़ती है।
सद्व्यवहार, सदाचार आदि शिष्टाचार के ही अंग है। शिष्टाचारी मन वचन कर्म से किसी को हानि नहीं पहुँचाता। वह दुर्वचन कभी नहीं बोलता। न मन से किसी का बुरा चाहता है। जिससे किसी का दिल दुखे ऐसा कार्य भी वह नहीं करता। विनय और मधुरतायुक्त व्यवहार ही उसके जीवन का अंग होता है। किसी भी तरह के अभिमान की शिष्टाचार में गुँजाइश नहीं रहती। नम्रता, विनय, शील, आदि सद्गुण शिष्टाचार के आधार हैं। इतना ही नहीं शिष्टाचारी की सम्पदा, समृद्धि बढ़ने के साथ ही उसकी निरभिमानता, और नम्रता, विनयशीलता बढ़ती जाती है। जिस तरह फलों के बोझ से वृक्ष नीचे झुक जाते हैं, उसी तरह ऐसे व्यक्तियों की लौकिक सम्पदायें ऐश्वर्य के बढ़ने पर भी नम्रता और विनयशीलता बढ़ जाती है।
शिष्टाचार एक ऐसा सद्गुण है जिसे अभ्यास और आचरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए किन्हीं विशेष परिस्थितियों या उच्च खानदान में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं। किसी भी स्थिति का व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक शिष्टाचार का अभ्यास जीवन में ढाल सकता है। इसके लिए संवेदन-शीलता, हृदय की कोमलता अत्यावश्यक है। ऐसे व्यक्ति का अपने व्यवहार और जीवन क्रम में छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान रहता है जिससे दूसरों को कोई दुःख महसूस न हो। किसी का दिल न दुखे। शिष्टाचार में दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखना आवश्यक है।
स्मरण रहे शिष्टाचार का सम्बन्ध मनुष्य के हृदय से है। वह आत्म-रंजन का माध्यम है। इसका आधार आत्मिक सौजन्य है। कृत्रिमता का शिष्टाचार में तनिक भी स्थान नहीं है। बनावटीपन से एक दूसरे का आत्म-रंजन नहीं होता और यह एक मशीनवत् रूखी प्रक्रिया मात्र बनकर रह जाता है। इस तरह का कृत्रिम शिष्टाचार सीधे, भोले-भाले व्यक्तियों को प्रभावित कर उनसे अपना उल्लू सीधा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। आजकल के तथाकथित सभ्य और पढ़े लिखे समाज में इसी तरह का कृत्रिम शिष्टाचार बढ़ता जा रहा है जिसमें एक दूसरे के हृदय पर मिलन ही नहीं हो पाता और यह एक निर्जीव प्रक्रिया मात्र बनकर रह जाता है। शिष्टाचार आत्मा की अभिव्यक्ति है। जिस शिष्टाचार में हमारा हृदय नहीं उमड़ता, जिसमें आत्मा दूसरों से ऐक्य प्राप्त करने के लिए मचल नहीं उठती, जिससे एक दूसरे में प्रसन्नता, आनन्द, सुख की लहरें नहीं उठती वह शिष्टाचार व्यर्थ है एक दूसरे के लिए धोखा है और तथाकथित चालाकी, कूट नीति या छल का ही एक अंग है। इसे छोड़कर हमें जीवन में सच्चे, आत्म प्रेरित शिष्टाचार को स्थान देना चाहिए।