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Magazine - Year 1964 - Version 2

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जातीय संगठनों का उद्देश्य-मानवता की रक्षा

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भारतीय धर्म को दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम धर्म कहा जा सकता है। चारों वर्ण, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यदि अपना-अपना कर्त्तव्य पूर्ण तत्परता, श्रद्धा और ईमानदारी से पालन करें तो समाज का ढाँचा अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप में खड़ा रह सकता है। इसी प्रकार यदि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की क्रम व्यवस्था यथोचित में रीति से चलती रहे तो प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी जीवन में सुविकसित एवं सुसमृद्ध हो सकेगा। व्यक्तिगत जीवन की सफलता के लिये, चारों, आश्रम, और सामाजिक सुव्यवस्था के लिये चारों वर्णों की आर्ष प्रणाली यथोचित रीति से चलती रहनी चाहिये।

नव युग-निर्माण की पुण्य बेला में वर्णाश्रम धर्म को पुनर्जीवित किया जाना नितान्त आवश्यक है। अस्त-व्यस्त व्यवस्था को पुनः सुगठित न किया जायेगा तो वर्तमान अव्यवस्था का निराकरण और सुख शाँति का सूर्योदय न हो सकेगा।आश्रम वर्ग का पुनःनिर्माण करने के लिये ब्रह्मचारियों की चार वर्ष की, गृहस्थी की एक मास की, वानप्रस्थों की एक वर्ष की शिक्षा आरंभ की जा रही है। इसके बाद संन्यास आश्रम का नम्बर आता है। तीन आश्रमों का ठीक तरह पालन कर लेने वाला पके फल की तरह ज्ञान पक्व होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आदर्श अपना और निरन्तर लोक सेवा एवं लोक शिक्षण में लगा रहता है। इसके शिक्षण की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

वर्ण धर्म का नव-निर्माण करने के लिये जातीय संगठनों की सुव्यवस्थित योजना आरंभ की जा रही है। नष्ट-भ्रष्ट ही सही पर वर्णों के ध्वंसावशेष बने हुए हैं उन्हीं के आधार पर अभिनव रचना का कार्य सुगम पड़ेगा। जातीय संगठनों की रूपरेखा गत अंक में बताई जा चुकी है। विवरण और परिचय फार्म के आधार पर जो सूचनाएं प्राप्त हुई हैं उनके अनुसार अखण्ड ज्योति परिवार के सभी सदस्यों को चार वर्णों में विभाजित करके उनके स्वतंत्र संगठन बना इनका प्रबंध कर रहा है। इन संगठनों का कार्य अपने-अपने वर्णों में कर्त्तव्य भावना उत्पन्न करके सर्वांगीण श्रेष्ठता उत्पन्न करना होगा। यह संगठन स्वतंत्र रूप में विकसित होंगे और अपने वर्ण के धर्म कर्त्तव्यों को हृदयंगम कराने एवं व्यवहार में प्रचलित करने के लिये पूरी तत्परता के साथ प्रयत्न करेंगे।

आज जातिवाद का जो विकृत रूप है वह इतना प्रतिगामी हो गया है कि समझदार लोग उससे घृणा करते हैं और जाति-पाति की बात करने वालों को संकीर्ण, प्रतिगामी, प्रगति विरोधी, फूट फैलाने वाले, एवं अखण्ड मानवता को खण्डित करने वाले मानते हैं। इसलिये जातिवाद को सम्प्रदायवाद का ही एक रूप मान कर उसकी निन्दा करते हैं। यह निन्दा निश्चय ही उचित है। वर्तमान प्रकार की संकीर्णता भरी जाति-पाति पद्धति जब तक जीवित रहेगी हिन्दू धर्म में आदर्शों में रोड़ा ही अटकाती रहेगी और मानवीय प्रगति को अवरुद्ध किये ही बैठी रहेगी। कर्त्तव्यों का सर्वथा परित्याग किये बैठे लोग भी जब केवल वंश के आधार पर अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित करते है और साथ ही उनका अहंकार भी करते हैं तो उस मूर्खता पर कोई भी समझदार व्यक्ति घृणा किये बिना नहीं रह सकता। एक जाति दूसरी को ऊंच-नीच माने सो बात ही नहीं है वरन् एक ही वर्ण-जाति के लोग परस्पर नींच ऊंच का मापदण्ड बीधों विश्वों में गिनते हैं तो उसे मूढ़ता की पराकाष्ठा ही कहना चाहिए। चुनाव आदि में लोग अपनी जाति के लोगों से अपनी ही जाति के उम्मीदवारों को वोट देने के लिए कहते हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर जाति-पाति के नाम पर पार्टी बन्दी बनाते और नीति-अनीति को ध्यान में रखकर इसी आधार पर पक्षपातपूर्ण संघर्ष खड़े कर लेते हैं। ऐसी ही अन्य अनेक बुराइयाँ हैं जिनके कारण जातिवाद को एक संकीर्णता मान कर उससे घृणा की जाती है।

उपरोक्त बुराइयों का कैसे सुधारा जाय और प्राचीन काल की वर्ण व्यवस्था का लाभ किस प्रकार समाज को पहुँचाया जाय? इस प्रश्न पर विचार करते हुए यह उपाय भावावेश मात्र मालूम पड़ता है कि जाति पाति से दूर रहा जाय, उसे मिटा दिया जाय। आज की परिस्थितियों में यह कहना सरल है, करना कठिन है। विवाह शादियों का क्षेत्र जातीय आधार पर कठिन हो चला है। जो परिपाटी को तोड़ता है उसके सामने अपने बच्चों की विवाह, शादी का प्रश्न आ उपस्थित होता है। जनमानस पूरी तरह न बदल जाय तब तक इस प्रकार का उत्साह दिखाने वाला यदि बहुत ऊंची स्थिति का व्यक्ति नहीं है तो उलटा कठिनाई में फंस जाता है। जन-मानस बदलना एक दिन का काम नहीं, उसमें समय लगता है। इसलिए दूसरा उपाय अधिक उपयुक्त है कि वर्ण-धर्म की श्रेष्ठताओं को प्रचलित किया जाय और उस में घुसी हुई बुराइयों को हटाकर शुद्ध समृद्ध समाज की रचना की जाय।

यों जातिवाद से घृणा करने वाले भी प्रकारांतर से उसका महत्व स्वीकार करते हैं और अपने नाम के साथ उसकी भी घोषणा गर्वपूर्वक करते हैं। महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू महामना मालवीय, राजर्षि टंडन, पं-पन्त आदि काँग्रेसी ही नहीं उग्रवादी निम्ब्रूद्रीपाद, डाँगे, भूपेश गुप्त आदि कम्युनिस्ट भी अपने नाम के साथ अपने जातीय परिचय का गर्व पूर्वक प्रयोग करते रहते हैं। यों यह लोग जातिवाद की भरपेट भर्त्सना करने में भी नहीं चूकते। इसके कारणों पर विचार करने से यही स्पष्ट होता है कि वंश परम्परा का स्मरण रखना कोई बुराई नहीं है। बुराई उन विकृतियों में है जो जाति-पाति की आड़ लेकर हमारे समाज को जर्जर बनाने के लिए छद्म रूप से घूस पड़ी है और ऐसी लगती है मानो वे बुराइयाँ भी उन जातियों की अंग ही हों। यदि इस दोष को दूर किया जा सके तो निस्संदेह वर्ण व्यवस्था प्राचीनकाल की तरह आज भी हमारे सामाजिक विनाश की रीढ़ बन सकती है और उसका नव-निर्माण एक तरह से समाज निर्माण की भूमिका ही बन सकता है। हम जातीय संगठनों के द्वारा यही सब कुछ करने जा रहे हैं।

हिन्दू समाज की कुप्रथाओं में सबसे बड़ी, सबसे घातक, सबसे घृणित दहेज एवं विवाह, शादियों में उन्मुक्त होकर पैसे की होली फूँकने की कुप्रथा है। इससे हर हिन्दू को अपनी आमदनी का आधे से अधिक भाग विवश होकर बर्बाद करना पड़ता है। मध्यम श्रेणी के लोग जिनके भाई, बच्चे बच्ची विवाह योग्य हैं, इसी समस्या का हल ढूंढ़ने में किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं। बच्चों को अविवाहित रखा नहीं जा सकता, विवाह के लिये धन चाहिए ईमानदारी से सीमित धन मिलता है ऐसी दशा में इसके अतिरिक्त और कोई माँग नहीं की अनीति एवं अधर्म से भी जितना अधिक कमाया जा सकता हो कमाया जाय और अपनी पारिवारिक आवश्यकता को पूरा किया जाय। यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं कि हमारे आधे पाप और अपराध इन विवाहों में अन्धाधुँध खर्च कराने वाली कुप्रथा के कारण ही होते हैं। जब तक यह पिशाचिनी परम्परा जारी रहेगी हम रामायण गीता पढ़ने, भजन, पूजन करने गंगा-जमुना नहाने पर भी पाप कर्मों से विरत न हो सकेंगे और हमारी आध्यात्मिक और सामाजिक प्रगति का अवरोध ज्यों का त्यों अड़ा ही बैठा रहेगा।

जातीय संगठनों की जो रूप रेखा बनाई गई है, उसकी तात्कालिक आवश्यकता इसलिए भी पड़ गई कि विवाहों के अपव्यय को, जेवर और दहेज की प्रथा को जल्दी समाप्त करना, उसके विरुद्ध घनघोर आन्दोलन करना और आदर्श विवाहों के असंख्यों उदाहरण प्रस्तुत करते हुए घातक कुरीति पर करारी चोट करना निताँत आवश्यक हो चला है। बुराई तेजी से बढ़ रही है इसे दूसरे रूप से बढ़ने दिया गया तो समाज की बर्बादी सुनिश्चित है। चीन और पाकिस्तान के खतरे से भी आन्तरिक दुर्बलता का यह पहलू अधिक आक्रामक है। इस मोर्चे पर भी सुरक्षा का प्रबंध किया जाना अनिवार्य हो गया है। इसमें देरी की गुँजाइश नहीं। यह कैसे किया जाय? इसका उपाय सोचने पर एक ही कारीगर उपाय दृष्टिगोचर हुआ कि यह कार्य जातीय संगठनों के बिना वर्तमान परिस्थितियों में और किसी प्रकार संभव नहीं हो सकता। वर-कन्या जब तक जाति के अंतर्गत ही ढूंढ़ें जाते हैं तब तक जातीय सुधार के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। और यह स्पष्ट है कि कोई भी व्यापक सुधार सामूहिक संगठित प्रयत्नों के बिना संभव नहीं हो सकता।

विवाहों में कन्या पक्ष दहेज के लिए तनिक भी दबाया न जाये वर पक्ष को वधू को चढ़ाने के लिए कीमती जेवर, कपड़े बनवाने के विवश न होना पड़े, बारातों की भीड़ ले जाने में अनेक लोगों के समय की बर्बादी और उनको रखने में बेकार का खर्च उठाने की जिम्मेदारी किसी पर भी न पड़े। आतिशबाजी, गाजे-बाजे और धूमधाम में गाढ़ी कमाई का पैसा नष्ट न हो। एक धार्मिक संस्कार मात्र सीधे-सादे ढंग से जैसे होना चाहिए वैसे ही सादगी और सात्विकता के वातावरण में विवाह, शादी हो जाया करें। यह हममें से हर एक चाहता है पर सामाजिक कुप्रथाएं शक्ति से बाहर धन बर्बाद करने के लिए विवश करती हैं। इस विवशता को जातीय संगठनों के आधार पर आसानी से नष्ट किया जाय सकेगा और अनुकरणीय आदर्श विवाहों का भारी संख्या में प्रचलन करके जनता की भीरुता को सरलतापूर्वक नष्ट किया जा सकेगा। यदि यह सुधार हो सका तो समझना चाहिए कि हिन्दू समाज की बर्बादी की भयंकर अड़चनों को जीत लिया गया। हमें यही करना है। इसलिए अगले ही महीने प्रत्येक जाति का एक स्वतंत्र संगठन खड़ा कर रहे हैं।

दहेज एवं विवाहों में अपव्यय को हटाना तो एक सामाजिक संघर्षात्मक पहलू है। ऐसी अनेक सामाजिक एवं नैतिक बुराइयाँ हमारे भीतर घुस पड़ी है उनको एक-एक करके हटाते जाने के लिए प्रयत्न चलता रहेगा और यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक अपना समाज पूर्ण पवित्र मानव समाज के रूप में विकसित नहीं हो जाता। सामाजिक क्रान्ति की चिंगारी, दहेज उन्मूलन आन्दोलन के रूप में आदर्श, विवाहों के रूप में आरंभ की जा रही है, यह दावानल के रूप में जब प्रज्ज्वलित होगी तो उन सभी कषाय कल्मषों को भस्मसात करेगी जिसने हमारे देव समाज को आज ऐसी लुञ्ज-पुञ्ज स्थित में ला पटका है। हमें आध्यात्मिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए कुसंस्कारों से मुक्ति पानी ही पड़ेगी। जातीय संगठनों की रचना विभिन्न मोर्चों पर की हुई एक मोर्चेबन्दी ही कही जा सकती है जिसका उद्देश्य समान आसुरी प्रवृत्तियों का उन्मूलन करते हुए ऋषि परम्परा के अनुसार दैव समाज का नव-निर्माण करना ही होगा।

वर्ण-धर्म वस्तुतः मानवता का ही धर्म है। रुचि और स्थिति के अनुरूप, अज्ञान, अशान्ति और अभाव को दूर करने के लिए लोक हित की दृष्टि से कर्त्तव्य करते रहना ही वास्तविक वर्ण-धर्म है। कार्य विभाजन होते हुए भी लक्ष मानव मात्र का एक है। प्रत्येक वर्ण के कार्य भले ही बंटे हों पर उनके पीछे एक को एक ही उद्देश्य के लिए आत्म कल्याण और सामाजिक उत्कर्ष के लिए ही प्रयत्न करना होता है। यह जातीय संगठन ऋषि धर्म की प्रत्येक श्रेष्ठ परम्परा को अपने कार्य क्षेत्र में प्रसारित करते हुए महान मानवता की सेवा करने की ही भूमिका प्रस्तुत करेंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ अगले महीने से जातीय संगठनों की योजना को हम कार्यान्वित करने जा रहे हैं।

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