
पुत्र और कन्या की तुलना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह सृष्टि नर और नारी दोनों के संयोग से चल रही है। दोनों की ही समान आवश्यकता, उपयोगिता एवं महत्ता है। इसलिए श्रेय और सम्मान भी दोनों को समान ही मिलना चाहिए। हमारा निज का अस्तित्व माता के बिना संभव न हुआ होता। पत्नी के बिना हमारा जीवन कम ही अस्त-व्यस्त रहता। उनकी उपयोगिता हमारी दृष्टि से स्पष्ट है। बाहरी क्षेत्र में कोई मित्र कितने ही उपयोगी क्यों न हों व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त निकटवर्ती आत्मीय जैसे समझे जाने वाले संबंधियों में माता और पत्नी ही प्रमुख होती हैं। नारी के बिना नर का न तो अस्तित्व ही संभव है और न विकास ही हो सकता है। ऐसी दशा में पुत्री के जन्म पर शोक मनाया जाना, उसे दुर्भाग्य समझा जाना एक मतिभ्रम ही माना जा सकता है।
पुरुष का तीन चौथाई सौभाग्य-दुर्भाग्य नारी से, उसकी माता से या पत्नी से नापा जा सकता है। मनुष्य जाति का भविष्य नारी की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता से संबंधित है। भारी की स्थिति जितनी ही विकसित होगी उतना ही मानव समाज सुविकसित हो सकेगा। प्रजनन का कठिन उत्तरदायित्व नारी के स्वास्थ्य पर नारी आघात पहुँचाता है इसलिए उनकी मृत्यु संख्या भी पुरुषों की अपेक्षा अधिक रहती है। जिस तरह का प्रतिबंधित जीवन उन्हें बिताना पड़ता है उसमें अकाल मृत्यु एवं अल्पायु का प्रहार भी अधिकतर उन्हीं पर होता है। ऐसी दशा में नर-नारी की संख्या सृष्टि-संतुलन ठीक रखने की दृष्टि से भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का जन्म अधिक संख्या में होना ही वाँछनीय है। यदि लड़के अधिक होने लगे और लड़कियाँ घट जायं तो एक ऐसी विश्वव्यापी विपत्ति सामने आ खड़ी होगी जिसका कोई हल ही न निकल सके।
(1) ‘पुत्र का दिया हुआ पिण्डदान पितरों को मिलता है, पुत्री का नहीं’
(2) ‘पुत्र से नाम चलता है पुत्री से नहीं,’-यह मान्यताएं नितान्त मूर्खतापूर्ण है। तथ्य यह है कि अपना दिया हुआ अन्न दान-पिण्डदान, अपने को मिलता है, दूसरे का दिया हुआ दूसरे को नहीं मिल सकता। यदि पिता दुष्ट दुरात्मा रहा है तो उसे दुर्गति ही प्राप्त होगी। बेटे का किया पुण्य उसके किसी काम न आवेगा, इसी प्रकार यदि मनुष्य सज्जन रहा है तो उसका पुत्र न होने पर भी, पिण्ड न देने पर भी, सद्गति ही प्राप्त होती है। अनेकों व्यक्ति ब्रह्मचारी, अविवाहित या सन्तानहीन मरते हैं। क्या वे इसीलिए नरक में पड़ेंगे कि उनका बेटा पिण्ड-श्राद्ध या तर्पण करने के लिए नहीं है? इन शुभ कर्मों का भी महत्व है। पर उनके करने पर मुख्य लाभ श्राद्ध करने वाले श्रद्धालु पुत्र को ही मिलता है। श्रद्धा की सुगंधि से उन पितरों की आत्मा संतोष एवं तृप्ति लाभ करती है। दिया तो जिसने है फल तो उसी को मिलेगा, कोई किसी के पाप पुण्य में भागीदार नहीं बन सकता। आत्मा अपनी ही सज्जनता-दुर्जनता से सद्गति एवं दुर्गति की भागी बनती है। इस शाश्वत सत्य को समझने वाला इस मान्यता को कैसे स्वीकार करेगा कि बेटे के पिण्ड दान बिना पितरों की सद्गति न होगी।
वंश चलने वाली बात उससे भी परले सिरे की भ्राँति है। अपनी दस पीढ़ी के पूर्वजों के नाम तक हमें याद नहीं होते, उनके स्वरूप और कर्मों का तो स्मरण ही किसे होगा। जब अपने वंशजों को अपने ही पुरखों की जानकारी इतनी जल्दी विस्मरण हो जाती है तो दूसरों की दृष्टि से किसी का वंश चलना न चलना महत्व ही क्या रखता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी प्रायः 25 से भी कम वर्षों में उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो अठारह वर्ष तक के लड़के पिता बनते देखे गये हैं। औसत 25 वर्ष मानें तो दस पीढ़ी 250 वर्षों की होती हैं। नाम और यश तो पाँच पीढ़ी का भी याद नहीं रहता इस हिसाब से 18×5=90 वर्षों में ही लोग बाप दादों को भूल जाते हैं। पर यदि 25 वर्षों में पीढ़ी होने और 10 पीढ़ी में भूलने की बात भी मान ली जाय तो 25×10=250 वर्षों में वंश चलने की बात समाप्त हो जाती है। इतने थोड़े दिन तो कोई कुँआ, बावड़ी, बरगद या खजूर का पेड़ भी नाम चला सकता है।
हम स्वयं अपने बाप-दादों का क्या नाम चलाते हैं? केवल सरकारी कागजों में वल्दियत लिखी जाती है। विवाह के समय शाखोच्चार में तीन पीढ़ी के नामों की चर्चा कर दी जाती है। पितृ पक्ष में कोई श्राद्ध तर्पण करता हो तो भी पूर्वजों का दो-तीन पीढ़ी के पूर्वजों का स्मरण कर लिया जाता है। इन बातों को इतना महत्व नहीं दिया जा सकता है कि इन्हें ‘वंश चलना’ कहा जा सके। सही बात यह है कि मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्म ही किसी के वंश और यश को कायम रखते हैं। बुद्ध, शंकराचार्य, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, शिवि, दधीचि, शिवाजी, प्रताप, गाँधी आदि का यश उनकी संतानों के कारण नहीं उनके स्वयं के सत्कर्मों के कारण ही चल रहा है। ऐसी दशा में बेटे के द्वारा वंश चलने की बात में कितना सार है- इसे कोई भी विचारशील भली प्रकार समझ सकता है। कुतिया, शूकरी और बकरी हर साल कई बार प्रसव करती और कई बार बच्चे देती है। उनमें कितने ही पुत्र भी होते हैं। उन पुत्रों ने अपने माता-पिता का कितना वंश चलाया होता है?
जानकीजी कन्या थी उसने अपने पिता जनक का नाम चलाया और वंश भी। द्रुपद राजा का यश द्रौपदी ने अमर बनाया। सावित्री, मदालसा, सुकन्या, अरुन्धती, अनुसूया, कौशल्या, गार्गी, मैत्रेयी, भारती, शकुन्तला, पद्मिनी, लक्ष्मीबाई, कस्तूरबा आदि को जिन माता-पिता ने जन्म दिया था उन्हें सौ पुत्र उत्पन्न करने से बढ़कर यश मिला। शास्त्र का वचन है- ‘दश पुत्र समा कन्या या स्यात् शीलवती सुता’ यदि कन्या शीलवान हो तो वह दश पुत्रों से बढ़कर है। सच बात तो यह है कि मनस्वी, तेजस्वी और प्रतिभावान कन्या निकम्मे सैंकड़ों पुत्रों से बढ़कर मानी जा सकती है।
कन्या में स्वभावतः सौम्यता, मृदुलता और सात्विकता अधिक होती है। उसकी उपस्थिति से घर का वातावरण बड़ा मृदुल और सौम्य बना रहता है। लड़कों में उद्दण्डता अधिक पाई जाती है इसलिए उनसे माता-पिता बहुधा खीजते रहते हैं। लड़कियों की कौशलता अभिभावकों के हृदय को शीतल और प्रफुल्लित बनाये रहती है। जिस प्रकार कोमल पुष्पों की मृदुलता उद्विग्न मन को भी शीलता प्रदान करती है, उसी तरह कन्याओं की स्वाभाविक सात्विकता अभिभावकों की साँसारिक विक्षोभों की परेशानी का अपनी सरल मुस्कान द्वारा सहज ही शमन कर देती हैं। कन्यायें साक्षात करुणा एवं स्नेह की प्रतिमा होती हैं। उनकी उपस्थिति से घर में सौम्य वातावरण का ही सृजन होता रहता है।
त्याग और दान, अध्यात्म के दो प्रधान आधार हैं। जो जितना उदार है, जिसमें जितनी त्याग वृत्ति है, जो अपने प्रयत्न और परिश्रम से दूसरों को जितना सुखी बना सकता है, जिसमें जितनी निस्वार्थता रहती है वह उतना ही बड़ा अध्यात्मवादी होता है। इन सत्प्रवृत्तियों को जो जितना चरितार्थ कर सके उसकी आध्यात्मिक साधना उतनी ही बढ़ी चढ़ी मानी जायेगी। यह उद्देश्य कन्याओं की उपस्थिति से सहज ही पूरा होता है। लड़कों के द्वारा कमाई या सेवा प्राप्त होने का लाभ रहता है। वे सदा घर में रहेंगे इसलिए उनसे मोह भी बढ़ता है। उद्दण्ड और अवज्ञाकारी होने से उन पर क्रोध भी आता है। पुत्र के द्वारा वे कामनाएं पूरी होंगी जो हम पूरी नहीं कर सके।