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वर्तमान समय में जिसे ‘स्वाधीनता’ कहा जाता है, वह पशुबल पर निर्भर है। कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का विश्वास नहीं करता। कौन कब और किस पर आक्रमण कर बैठेगा, इस भय से प्रत्येक स्वाधीन राष्ट्र को सिर से पैर तक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित रहना पड़ता है। जो सबसे बड़े शक्ति शाली राष्ट्र हैं, उन्हें स्थल सेना, जल सेना, वायु सेना की वृद्धि की प्रतियोगिता में लगा रहना पड़ता है। क्या इसी का नाम स्वाधीनता है? जिस स्वाधीनता की रक्षा के लिये लाखों, करोड़ों व्यक्तियों को अन्नहीन, वस्त्रहीन, गृहहीन रखकर, अस्त्र-शस्त्र, गोला गोली खरीदना पड़ता है, उसे ‘स्वाधीनता’ कहा जाय या ‘पराधीनता’?
-ठाकुर दयानन्द
सन्त तुकाराम का यह घोर तप देखकर विरोधवादियों का आसन हिल गया और उन्होंने सन्त तुकाराम को एक सच्चा महात्मा मानकर अत्याचार करना बन्द कर दिया और गाँव में प्रवेश का प्रतिबन्ध उठा लिया।
भजन के प्रभाव से भगवान की यह अनुकम्पा देखकर उनका ध्यान और भी अधिक परमात्मा की ओर लग गया। इधर ज्यों-ज्यों वे भगवान में तन्मय होते गये त्यों-त्यों हृदय में अहिंसा, सत्य तथा जन-सेवा के भाव बढ़ते चले। जिससे दीन-दुखियों की सक्रिय सेवा करना उनके भगवद् भजन का एक विशेष अंग बन गया। तब उन्होंने अपने परमार्थ चिन्तन को दीन-दुखियों की सेवा करने में क्रियात्मक रूप दे दिया। वे राह चलते बटोहियों के सर का बोझ अपने सर पर ले लेते और उनको उनके गन्तव्य स्थान तक पहुँचा देते। किसानों के खेतों की रखवाली करते, उन्हें खेत जोतने, बोने में मदद करते। किसी के बैलों तथा किसी की गायों के लिए चारा काट लाते और अपने हाथ से बड़े प्रेम से खिलाते। तीर्थ यात्रियों के सूजे हुये पैरों को अपने हाथ से धोते और घण्टों तक उनकी सिकाई करते रहते। वे पैदल दूर दूर की यात्रा करते और जहाँ भी किसी रोगी अपाहिज अथवा अनाथ दीन-दुःखी को देखते, वहीं रम जाते और दिन रात उनकी सेवा-सुश्रूषा करते।
अपने इस प्रकार के सेवा कार्यों से सन्त तुकाराम बड़े ही जन-प्रिय बन गये। अब ग्रामवासी दिनभर का अपना काम करने के बाद उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठ जाते तथा उपदेश सुनते और मिलकर कीर्तन-भजन करते।
सन्त तुकाराम के सामूहिक कीर्तन-भजनों का इतना प्रभाव पड़ा कि ग्राम-ग्राम के अपने आपसी झगड़े खत्म हो गये। लोग मिल-जुल कर एक दूसरे की सहायता करने लगे। सभी जाति तथा वर्णों के लोग उनके पास आते और मातृत्व भाव से भरकर मिल-जुल कर कीर्तन करते। उनमें ऐसा प्रेम उत्पन्न हो गया कि पूरे के पूरे गाँव एक परिवार की तरह दीखने लगे। जहाँ पहले लड़ाई-झगड़े होते रहते थे वहाँ पर प्रेम की गंगा बहने लगी।
संत तुकाराम लोगों को भक्ति का उपदेश देते, त्याग और वैराग्य की प्रेरणा करते। किन्तु उनके त्याग का मार्ग निवृत्त नहीं प्रवृत्ति था। वे कभी किसी को घर-बार त्याग कर सन्त होने के लिए नहीं कहते और न कभी इस बात की प्रेरणा करते कि वह जीवन के आवश्यक कर्तव्य को त्यागकर केवल भजन, कीर्तन में ही लगे रहें। उन्होंने लोगों को परिश्रम और पारस्परिकता का महत्व समझाया और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बनने की प्रेरणा दी।
धीरे-धीरे तुकाराम की कीर्ति पूरे महाराष्ट्र में फैल गई। एक बार छत्रपति शिवाजी उनके दर्शनों के लिये आये और उनका कीर्तन सुनकर सारा राज-काज छोड़कर वैरागी होने को तैयार हो गये। किन्तु सन्त तुकाराम ने उन्हें प्रवृत्ति मार्ग का सच्चा स्वरूप समझाकर अपना कर्तव्य करते रहने की प्रेरणा दी। वे जानते थे कि निवृत्ति एक विशेष प्रकार के संस्कारवान लोगों के लिए ही संभव है। साधारण स्थिति के लोग तो निवृत्ति मार्गी बनकर और भी अधिक भटक जाते हैं।
इस प्रकार तैंतालीस वर्ष की आयु तक महाराष्ट्र में एक नव जीवन का जागरण करके एक दिन स्वयं कीर्तन करते-करते परम धाम चले गये।