
मानवता-हमारी बहुमूल्य विरासत
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मनुष्य जीवन का जितना सूक्ष्मतम और सुन्दर प्रयोग ऋषियों ने किया उतना किसी देश, जाति या संस्कृति ने नहीं किया। मनुष्य की सूक्ष्म प्रकृति का अध्ययन करना कोई आसान बात न थी। इसके लिये भारतवर्ष ने सुखोपभोग का त्याग कर शोध की, गहन साधना की और जो निष्कर्ष निकले, उन्हें दृष्टि में रखते हुए पितामहों ने एक सर्वथा पृथक आचार-संहिता तैयार की और उसके अनुरूप जीवन ढालने की शिक्षा दी। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का रूप-रंग बिल्कुल ही नया तैयार किया गया- ऐसा जैसा किसी देश में व्यवहृत नहीं हुआ। इतनी विलक्षण, इतनी सर्वांगपूर्ण जिस पर थोड़ा चिन्तन करने से भी ऋषियों के प्रति श्रद्धा से हृदय गदगद हो जाता है।
“मैं लूँगा और आपको न दूँगा” की नीति पर जब संसार चल रहा था, तब यहाँ विचार किया गया कि इस बात में मनुष्य की विशेषता ही क्या रही? भोग तो सभी भोगने के इच्छुक रहते हैं, पैसे के लिए हर कोई नाजायज काम करने के लिए तैयार रहता है, आलस्य में समय काटने की अधोगामी आदत से तो समाज ही ग्रस्त है, अच्छा से अच्छा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा किसे नहीं होती? यह सब सामान्य व्यक्ति के लक्षण हैं। इनमें से कई प्रवृत्तियाँ तो पशुओं में भी पाई जाती हैं, फिर मनुष्य भी उन्हीं में चक्कर काटता रहे तो उसकी विशेषता ही क्या रही? ज्ञान, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग कहाँ हुआ? मनुष्य को जो असाधारण शक्ति और सामर्थ्य मिली है, उसके रहते हुए भी यदि वह निकृष्ट श्रेणी का जीवन जिये, तो उसमें मनुष्य जीवन की सार्थकता कहाँ रही? श्रेष्ठ उपलब्धि का प्रयोग तो किसी श्रेष्ठ कार्य में ही होना चाहिए इस बात को केवल हम भारतीयों ने जाना है, इसीलिए संसार में हमारी ज्येष्ठता और श्रेष्ठता विद्यमान है।
रोजी और रोटी की समस्या मनुष्य के लिए उतनी जटिल नहीं जितनी अपना जीवन लक्ष्य समझने की आवश्यकता महत्त्वपूर्ण हो सकती है। कोई भी व्यक्ति जो ईश्वर, पुनर्जन्म आदि पर विश्वास न करता हो तो उसे भी मानना ही पड़ेगा कि मनुष्य जीवन जैसा अलभ्य अवसर बार-बार मिलने वाला नहीं। इस बहुमूल्य वस्तु को यों ही निरर्थक, सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों की तरह बिता देना कोई समझदारी की बात नहीं होगी। मनुष्य जीवन का उद्देश्य सामान्य जीवन क्रम से उलटा चलकर ही किया जा सकता है। जिस ढर्रे में दूसरे लोग चल रहे हैं, उसके परिणाम तो सबके सामने हैं, क्या हर्ज है यदि उससे विपरीत चलकर कुछ नये तथ्यों की खोज की जाय?
इस विचारधारा के साथ ही भारतवर्ष में एक नये दर्शन का आविर्भाव होता है। साधना का जन्म इसी प्रेरणा से हुआ और इससे जो सिद्धि मिली वह अलौकिक थी, महान् थी, जिसका एक कण बिखर जाने से भी संसार में स्वर्गीय सुख का वातावरण छा जाता है। नाम है उसका-मानवता अर्थात् “मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिये”। मेरा कुछ नहीं सब परमात्मा का है। परम पिता की वस्तु का उपभोग मिल बाँट कर ही करना चाहिये, यह निष्कर्ष मनीषियों ने गहन साधना और अनुभवों के आधार पर निकाला। इसी नीति पर चल कर ही संसार की रक्षा और सुखों का विकास हो सकता है। इससे विलग मनुष्य की शान्ति का दूसरा उपाय नहीं। जिसे न्याय और अन्याय का ज्ञान है, जो सब प्राणियों में एक आत्म-तत्व समाया हुआ देखता है, जो ग्रहण करने योग्य और अग्रहणीय का भेद समझता है, संसार के वैभव अपने आप चक्कर काटते हुए उसके पास जा पहुँचते हैं। त्याग का सुख मनुष्य को अनायास ही मिल जाता है और न मिले न सही, पर मानवता से पूरित अन्तःकरण में इतनी शक्ति व सामर्थ्य भरी होती है, जिसे पाकर मनुष्य को संसार के भोग तुच्छ से लगते हैं। आत्मा की महत्ता के आगे क्षण-भंगुर भोगों की कीमत भी भला क्या हो सकती है।
महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, दधीचि, कण्व, अंगिरा, जमदग्नि, भारद्वाज आदि ऋषियों, ब्रह्मर्षियों ने जो सिद्धियाँ प्राप्त की थीं, उनका आज के मनुष्य की बुद्धि ठीक प्रकार से अनुमान भी नहीं लगा सकती। उनकी ऋद्धि सिद्धियों के आगे संसार झुकता था, दिशायें काँपती थीं, आकाश और पाताल को बाँध देने वाले होते थे उनके संकल्प। चाहते तो सारे संसार के असंख्य सुख बटोर कर बहुत काल तक उनका सुखोपभोग करते पर उन्होंने सुखों की आकाँक्षा की कब? मनुष्यता के आगे संसार के सारे सुख उन्होंने धूलि समान समझे। वे सदैव मानवता की सेवा के लिए तत्पर रहे। दधीचि को जो सुख अनन्त सिद्धियों के स्वामी होने से नहीं मिला, वह उन्होंने मानवता के लिए आत्म बलिदान करने में पाया। सिद्धियों का विकास केवल इसीलिए किया जाता है, कि मनुष्य इस निर्विष्ट लक्ष्य को पा जाय। मनुष्य का जन्म मानवता की सेवा के लिए हुआ है इस मर्म को समझ जाय।
एक युग था जब मनुष्य की सारी गति-विधियों का केन्द्र “हम किसके काम आ जायें?” “हमारे द्वारा किसी भलाई हो जाय?” यह भावना हुआ करती थी और श्रेष्ठता का इसे ही मापदंड समझा जाता था। धन, वैभव, आदि की लोगों को उतनी भूख न रहती थी, जितना समाज के हित में, विश्व के हित में अपने आपको उत्सर्ग कर देने की इच्छा दृढ़ और बलवती रहा करती थी। आदर्शों के लिए प्राण त्याग करने में लोग गौरव समझा करते थे और जिसे वह संयोग मिल जाता था, वह अपने ऊपर परमात्मा की बहुत बड़ी कृपा अनुभव किया करते थे।
राज-सिंहासन की रक्षा के लिए अपने पुत्र को कटा देने वाली स्वामि-भक्ति नी पन्नादाई का इतिहास कोई भूल सकता है? बूढ़े च्यवन ऋषि की आँख फोड़ने के अपराध में सुकन्या द्वारा उनका पत्नीत्व स्वीकार कर लिया जाना किसी आदर्श से कम है क्या? गान्धारी अन्धे पति के कष्ट को स्वयं न देख सकीं और आजीवन आँखों में पट्टी बाँधे रहीं, ऐसा गौरव प्रदर्शित करने की क्षमता विश्व के इतिहास में केवल हिन्दू-जाति को मिली। इसी के कारण उसका यश आज भी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्र की भाँति प्रकाशित है।
मानवता के विकास में उद्दात्त धार्मिक मान्यताओं, अपने गुरुजनों, परिजनों, राष्ट्र और समाज की मर्यादाओं आदि में सच्ची निष्ठा और श्रद्धा प्रदर्शन करने वाली हिन्दू जाति की वह मूल धारणा अभी भी बिल्कुल मिट नहीं गई- मन्द जरूर पड़ गई है। मध्य-कालीन परिस्थितियों के कारण बुद्धि-शून्य श्रद्धा, अन्ध श्रद्धा, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता के भाव अब हिन्दुओं में जड़ पकड़ने लगे हैं। विश्व का मार्गदर्शन करने वाली सत्ता की ऐसी जड़ता पर किसे दुःख न होगा। विशेषकर जिन्होंने अपने ऋषियों के आदर्शों पर श्रद्धा और विश्वास पाया हो, उनके किए तो इस तरह का आन्तरिक पतन बड़े ही दुःख का कारण हो सकता है। अपनी सन्तान से कोई ऐसी आशा कर भी नहीं सकता कि वे अपने पुरुषों की विरासत को धूल में ही मिला देंगे, अपने आत्म-गौरव को यों ही नष्ट हो जाने देंगे।
आज युग की चेतना ने फिर से अंगड़ाई ली है। भारतवर्ष की आत्मा फिर से जाग रही है। आज तो सर्वत्र दानवता की विशाल सेना मानवता के एक-एक आदर्श को धूलिसात् करने को तुली हुई है उसे नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए ऋषियों के संकल्प पुनः भारतीय भूमि पर उतर आने के लिए उतावले हो रहे हैं। उन संकल्पों का स्वागत करना हमारा सबका पुनीत कर्त्तव्य है, प्रत्येक भारतीय मानवता की रक्षा के लिए जिया करता है। अपनी इस आदर्श विरासत को अब फिर से पुनर्जागृत करने के लिए यदि हम कटिबद्ध हों, तो इसमें हमारी अपनी शान ही है।
मनुष्य जीवन का सही मूल्याँकन करने वाले ऋषियों ने हमें उपदेश किया था-
“मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।”
‘ओ मनुष्य! तू सच्चे अर्थों में मानव बन।’ तेरा लक्ष्य आत्म-विकास ही न हो, तुम केवल मनुष्य बनकर सन्तोष न करना, वरन् अपने जीवन द्वारा दिव्यता का,मानवता का विकास करना। अपने आदर्शों के लिए उत्सर्ग होने के लिए सदैव तत्पर रहना ताकि मानवता का प्रवाह रुकने न पावे, सूखने न पावे।
मनुष्य जीवन का रहस्य इस एक मन्त्र में छिपा हुआ है, उसे जागृत करने की आज बड़ी जरूरत है। यह मानवता हमारे पूर्व-पुरुषों की देन, हमारी विरासत है। इसकी रक्षा का उत्तरदायित्व भी हम पर ही है। हम इसके लिए कितना सावधान हैं, आने वाला युग इस बात को बड़ी उत्सुकता के साथ जाँच रहा है।