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Magazine - Year 1965 - Version 2

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Language: HINDI
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युग-निर्माण आन्दोलन प्रगति

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इन विशिष्ट घड़ियों में हमारा विशिष्ट कर्तव्य

युग परिवर्तन की संधि बेलाएं लम्बे समय के बाद कभी-कभी ही आती है। सामान्य काल में सामान्य परिस्थितियाँ चलती रहती हैं और लोगों का जीवन ढर्रा भी सामान्य रीति से चलता रहता है। पर जब असामान्य परिवर्तन की विशेष संधि-वेला आती है, तब उस समय जन साधारण के, विशेषतया प्रबुद्ध व्यक्तियों के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी कुछ असामान्य हो जाते हैं और उन्हें निबाहने के लिये उस समय की जागृत आत्माओं को अपनी गतिविधियाँ भी असामान्य ही बनानी पड़ती हैं।

बीमारी, दुर्घटना, अग्निकाण्ड, मृत्यु, फौजदारी जैसी कोई विशेष आकस्मिक घटना घर में घटित हो जाय तो परिवार के सदस्यों को अपने सामान्य क्रम में परिवर्तन करना पड़ता है और इस प्रकार व्यवस्था बनानी पड़ती है कि उस आकस्मिक परिस्थिति का हल निकल सके। इसी प्रकार युगों का जब परिवर्तन काल आता है, तब उसमें विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और उनके समाधान के लिये उत्तरदायी लोगों को आगे बढ़कर, अपने सामान्य कार्यक्रमों को छोड़कर उन विशेष कर्तव्यों का पालन करने के लिए तत्पर होना पड़ता है।

जिन लोगों की अन्तरात्मा अविकसित है, उनके लिये अपने शारीरिक, आर्थिक एवं पारिवारिक स्वार्थ इतने प्रबल दिखाई पड़ते हैं कि उनकी पूर्ति भी वे दिन-रात गलते-घुलते रहने पर भी कर नहीं पाते। देश, धर्म, समाज, संस्कृति की चर्चा तो उन्हें मनोविनोद के लिये अच्छी लगती है, पर जब उनके सम्बन्ध में कुछ कर्तव्य पालन करने, कष्ट सहने या त्याग करने का अवसर आता है तब बगलें झाँकने लगते हैं। वस्तुतः उनका अविकसित अन्तःकरण संकीर्ण स्वार्थों के अतिरिक्त और कुछ सोच समझ नहीं पाता। उनके लिए उतना ही दायरा सब कुछ है। मेंढक की सारी दुनिया कुएं में भरे हुये पानी जितनी ही है, पर हंस कुछ अधिक देखते, समझते और सोचते हैं उनके सामने मानसरोवर से लेकर समुद्र तक की विशाल जल राशि का दृश्य प्रस्तुत रहता है और वे उसी दृष्टिकोण से अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते हैं, जबकि कुएं का मेंढक अपने उस छोटे से दायरे तक ही सीमित रहता है।

जागृत आत्माओं का कर्तव्य-

जागृत आत्माओं का, प्रबुद्ध व्यक्तियों का, धर्मात्माओं एवं महापुरुषों का एक ही चिन्ह है कि वे संकीर्ण क्षेत्र में सीमित नहीं रहते। शरीर, घर और धन इतना ही सब कुछ है, ऐसा वे नहीं मानते, और उनके अतिरिक्त और कुछ कर्तव्य उनको नहीं है, ऐसा वे नहीं सोचते। अपने समय की, देश, धर्म, संस्कृति एवं समाज की जिम्मेदारियाँ वे समझते हैं और उनकी सामयिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए वे कुछ करते भी हैं। बकवास से नहीं, कार्यों से ही किसी की महानता परखी जा सकती है।

परीक्षा के समय कभी-कभी आते हैं। वे जब आते हैं, तब यह परखते हैं कि इसने अब तक जो किया है, उसके पीछे उसकी लगन, निष्ठा एवं वास्तविकता कितनी है। वार्षिक परीक्षा छात्रों के परिश्रमी, अध्यवसायी, लगनशील होने न होने की परख कर देती है। बातूनी लड़के अपनी प्रशंसा में लम्बी-चौड़ी डींगें हाँकते रहते हैं, परीक्षा उसकी वास्तविकता-अवास्तविकता का निर्णय कर देती है। इसी प्रकार आदर्शवादी व्यक्तियों के जीवन में भी वे परीक्षा काल आते हैं, जिनकी कसौटी पर यह सिद्ध हो जाता है कि सिद्धान्तों एवं आदर्शों के प्रति उनकी आस्था कितनी वास्तविक-अवास्तविक थी। राजा हरिश्चन्द्र, प्रह्लाद, कर्ण, भीष्म, राम, कृष्ण, दधीचि, शिवि आदि के सामने परीक्षा के अवसर आये थे, उनमें वे खरे उतरे तो उनकी वास्तविकता प्रमाणित हो गई और वे सच्चे आदर्शवादियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो सके।

कसौटी पर खरे उतरें-

कोई आदर्शवादी धर्म एवं अध्यात्म की बात तो बहुत करे, पर परीक्षा का समय आने पर इधर-उधर छिपा रहे तो उसकी आस्था संदिग्ध ही मानी जाएगी। ईश्वर और धर्म की मान्यताएं केवल इसलिये हैं कि इन आस्थाओं को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति , निजी जीवन में सदाचारी और सामाजिक जीवन में परमार्थी बने। यदि यह दोनों प्रयोजन सिद्ध न होते हों, इन दोनों कसौटियों पर वास्तविकता सिद्ध न होती हो तो यही कहना पड़ेगा कि यह तथाकथित ईश्वर भक्ति और धर्मात्मापन दंभ मात्र था। अपने लिये धन-दौलत और बेटे-पोते चाहने की कामना से माला घुमाते रहने का नाम ही भजन नहीं है, वरन् उसका प्रमुख चिन्ह यह है कि जिसे ईश्वर से प्रेम हो, वह उसकी दुनिया को अधिक सुन्दर, अधिक व्यवस्थित, अधिक विकसित बनाने में अधिक से अधिक योगदान करे। इस दिशा में किया हुआ त्याग, बलिदान ही किसी व्यक्ति के प्रबुद्ध, जाग्रत, आदर्शवादी, ईश्वर भक्त एवं धर्मात्मा होने का चिन्ह हो सकता है।

विद्यार्थी साल-भर पढ़ते हैं। उस सामान्य समय में किसी के अध्ययन का ठीक तरह पता नहीं चलता। वार्षिक परीक्षा के दस-बीस दिन ही होते हैं, पर वे दूध पानी का विश्लेषण करके रख जाते हैं। सामान्य काल में किसी बकवादी एवं दंभी को भी ईश्वर भक्त , धर्मात्मा या आदर्शवादी समझा जा सकता है, पर जब परख की असामान्य घड़ी सामने आ उपस्थित हो तो यह पता चल जाता है, कि कौन कितने गहरे पानी में है। चिरकाल के पश्चात् इन दिनों ऐसा समय आया है जिसमें जन-साधारण की भीड़ में छिपे हुये नर रत्नों, महामानवों एवं अध्यात्मवादियों को आगे आने, ऊँचे उठने और चमकने का अवसर मिलेगा। दूध जब गरम किया जाता है, तो उसमें जितने अंश घी के होते हैं वे मलाई के रूप में ऊपर तैर कर आ जाते हैं। जन-समाज में जो महान आत्माएं छिपी रहती हैं, उनके प्रकाश में आने का अवसर ऐसे ही परीक्षा-काल में आता है जैसा कि आजकल है।

पाकिस्तान, चीन के आक्रमणों ने देश के पौरुष और स्वाभिमान को चुनौती दी है। इन आक्रमणकारी परीक्षकों को हमें बातों से नहीं, वरन् अपने शौर्य और पराक्रम से, त्याग और बलिदान से उत्तर देना होगा और यह बताना होगा कि हम वैसे दुर्बल, कायर और स्वार्थी नहीं है, जैसा कि उनने समझा था। आक्रान्ता किसी भी जाति का शौर्य परखने आते हैं। यदि उसमें कमी देखते हैं, तो अपना कुचक्र जारी रखते हैं, अन्यथा इरादे बदल देते हैं। रोगों के कीटाणु उन शरीरों में अड्डा जमाते हैं, जिनका रक्त पहले से ही दूषित हो। यदि रक्त शुद्ध हो तो भयानक छूत के रोग कीटाणु भी अपने आक्रमण में असफल हो जाते हैं। चीन, पाकिस्तान के खूनी पंजे तभी तक खुले रहेंगे, जब तक उन्हें हमारे शौर्य का परिचय न मिल जाय। जब उन्हें यह अनुभव होगा कि उन्हें किसी साहसी, बलिदानी और देशभक्त समाज से जूझना पड़ रहा है, तो वे चट्टान से टकराने की अपेक्षा अपने कदम पीछे की ओर ही लौटाने को विवश होंगे।

नव निर्माण की धर्म-सेना-

युद्ध मोर्चों पर भारतीय सैनिकों ने जो शौर्य, साहस एवं आत्म-त्याग दिखाया है, उससे सारे संसार में राष्ट्र का सम्मान बढ़ा है। शत्रुओं को भी छठी का दूध याद आया है। हमारे रणबाँकुरे आगामी संघर्षों में भी ऐसी ही बहादुरी दिखावेंगे और हर बार की परीक्षा में खरे सोने की तरह अधिक उज्ज्वल होकर चमकेंगे यह आशा करनी चाहिये। पर बात यहीं तक समाप्त नहीं हो जाती। केवल सैनिक ही समस्त राष्ट्र नहीं हैं। राष्ट्र की समर्थता और सशक्तता के लिए हर नागरिक को सैनिकों जैसा शौर्य, साहस एवं त्याग अपने अन्दर विकसित करना चाहिये, तभी राष्ट्र समर्थ बनेगा। अन्यथा सेना मात्र बहादुरी का यश लेकर रह जायगी। राष्ट्रीय समर्थता सैनिकों तक सीमित नहीं है। किसी शूरवीर सेना को भी उससे बड़ी या बड़े आयुधों वाली सेना परास्त कर सकती है, पर जो अपराजित शक्ति है, वह समस्त राष्ट्र की भावनात्मक शक्ति ही है और उसका स्रोत नागरिकों के स्तर पर अवलम्बित है। हमारी सेना ही नहीं, जनता भी उतनी ही उत्कृष्ट स्तर की होनी चाहिये।

शरीर में निकले हुये फोड़े रक्त में विषैलेपन का चिन्ह मात्र होते हैं। रक्त विषैला न हो तो या तो फोड़े निकलते नहीं या जल्दी अच्छे हो जाते हैं। किन्तु रक्त विषैला होने पर फोड़े न भी निकलें, तो भी गठिया, जलन, खुजली, हडफूटन आदि मन्द विकार बने ही रहते हैं। चीन की ठीक नाक के नीचे उसका प्रदेश हाँगकाँग ब्रिटिश आधिपत्य में है। उसी का अंग फारमोसा अमेरिका की गोद में है। दोनों को वह वापिस लेना चाहता है, पर इस दिशा में कुछ भी कर नहीं पाता। इसके विपरीत हिन्दुस्तान की उस भूमि को जो उसकी अपनी नहीं है, हड़पने के लिए आक्रमण करता है। इसका कारण क्या है, समझना ही पड़ेगा। कारण सिर्फ एक है और वह यह कि वह भारतीय जनता को दुर्बल समझता है। जरा-सा पाकिस्तान, अपने से अनेक गुने बड़े भारत पर अकारण चढ़ दौड़ता है, इसके पीछे भी उसकी एक ही मान्यता है कि हिन्दुस्तानी भीतर ही भीतर खोखले हैं। इन्हें आसानी से डराया, धमकाया और लूटा खसोटा जा सकता है। जिस दिन चीन और पाकिस्तान की वर्तमान मान्यताएं बदल जायेंगी, उस दिन युद्ध अनायास ही समाप्त हो जाएगा। और वे लड़ाई की भाषा छोड़कर मित्रता की बोली बोलेंगे।

बलिदान की घड़ी में बगलें न झाँकें-

आक्रमणकारियों को युद्ध मोर्चे पर मुँह तोड़ उत्तर देना जुझारू सैनिकों का काम है, पर आक्रमणकारियों के इरादे बदल देना उन सेना नायकों का काम है, जिनके पास ईश्वरप्रदत्त भावना एवं प्रतिभा के ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जिनके आधार पर वे भारतीय जनता का स्तर उत्कृष्ट एवं समर्थ बना सकें।

इस खेदजनक तथ्य को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि हमारा भावनात्मक स्तर पिछले दो हजार वर्ष से बिगड़ता चला आया, फलस्वरूप मुट्ठी-भर मुसलमान और अँग्रेज आक्रामकों ने एक हजार वर्षों तक हमें पददलित किया। यह स्वीकार करने में भी कोई हर्ज नहीं कि विदेशी दासता के कारण अनेक दुष्प्रवृत्तियों ने हमारे लोक-मानस को अन्धकार से आच्छादित कर रखा है। नैतिक और सामाजिक दृष्टि से हम अभी काफी पिछड़े हुए हैं। यह पिछड़ापन जब तक विद्यमान है, तब तक आक्रमणों की संभावना तो बनी ही रहेगी, साथ ही हम सच्चे अर्थों में सबल एवं समर्थ राष्ट्र के रूप में भी विकसित न हो सकेंगे। हमारी आन्तरिक उलझनें भी न सुलझेंगी और उनमें फँसे रहकर बाह्य आक्रमणों जैसी ही हानि उठाते रहेंगे।

किसान और व्यापारी यदि जमाखोरी न करें और उचित मुनाफे से सन्तुष्ट रहें, उपभोक्ता थोड़ा कम खायें, तो इतनी मात्र देशभक्ति दिखाने से सुरसा जैसी खाद्य समस्या का देखते-देखते हल हो सकता है, न विदेशों से अन्न खरीदना पड़े, न अपमान और दबाव सहना पड़े। इंजीनियर, ठेकेदार और श्रमिक यदि देशभक्ति की भावना से निर्माण करें, तो जो निर्माण अब हो रहा है, उससे आधी लागत में दूना मजबूत काम हो सकता है। कारखाने वाले और व्यापारी देश की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन और वितरण करने की देशभक्ति को प्रधान लक्ष्य रखें, तो देश में किसी भी चीज की कमी न पड़ने पावे। वकील, अदालतें और पुलिस यदि कड़ाई से अपराधों की रोकथाम के लिये कटिबद्ध हो जायें, जनता उनका पूरा सहयोग करे, तो बढ़ते हुये अपराध देखते-देखते समाप्त हो सकते हैं। सरकारी कर्मचारी यदि जन-सेवक के रूप में अपने कर्तव्य ईमानदारी से पालन करें, तो जनता और सरकार के सहयोग से प्रगति और शान्ति का मंगलमय वातावरण विकसित होता दिखाई पड़ेगा।

विवाहोन्माद जैसी कुरीतियाँ यदि न रहें, छोटे सामयिक उत्सवों के रूप में यदि बिना खर्च के विवाह शादी हो जाया करें, तो देश की आर्थिक और सामाजिक समस्या का कैसा सुन्दर हल निकल आवे। स्त्रियों को अशिक्षित और पर्दे में बन्द रखने की मूढ़ता यदि समाप्त हो जाय, तो आधी आबादी को निर्जीव से सजीव स्थिति में पहुँचने का अवसर मिले। सामाजिक समानता की मान्यताएं पनपें तो पिछड़े हुए, उपेक्षित, दीन, दुर्बल और अछूत कहलाने वाले करोड़ों व्यक्ति अन्य सवर्णों की तरह ही सुविकसित होकर राष्ट्र की सशक्तता बढ़ावें। भाग्यवाद, भूत, पलीत एवं धार्मिक अन्ध-विश्वासों के कारण नष्ट होने वाली जन-शक्तियों को बचाकर उपयुक्त मार्ग में लगाया जा सके, तो इसके द्वारा प्रगति की दिशा में चमत्कारी अवसर उत्पन्न हो सकते हैं। अकेली तमाखू पीने पर होने वाले 2 करोड़ रुपये प्रतिदिन, अर्थात् 720 करोड़ वार्षिक अपव्यय रोका जा सके। अन्य नशे भी बहिष्कृत हो सकें, तो देश के स्वास्थ्य, मनोबल एवं धन की बहुत बचत हो सकती है। अध्यापक यदि छात्रों में पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त किसी जीवित समाज के लिये आवश्यक गुणों का भी बीजारोपण करने लगें, तो अगली पीढ़ी अजस्र तेज से भरी-पूरी बन सकती है। 56 लाख पेशेवर और लगभग उतने ही आँशिक रूप से धर्म-जीवी साधु-ब्राह्मण लोक-निर्माण के कार्यों में लग जायें, तो हमारा नैतिक एवं सामाजिक स्तर आश्चर्यजनक रीति से उज्ज्वल बन सकता है। मन्दिरों में लगी हुई और धर्म के नाम पर दान से प्राप्त होने वाली पूँजी का यदि जन-साधारण में आदर्शवादिता की धर्म भावनाएं जगाने में उपयोग किया जा सके, तो राष्ट्र की भावनात्मक शक्ति का पारावार न रहे और वह विश्व के मार्ग-दर्शक, जगद्गुरु की स्थिति में फिर आ पहुँचे। करोड़ों विधर्मी जो हिन्दू धर्म की गोद में बैठने के लिये लालायित हैं, यदि उनके लिये द्वार खुल जाये तो आज हिन्दू-धर्म जो मात्र 34 करोड़ लोगों का धर्म रह गया है, कुल सबसे आगे निकल कर विश्व-धर्म बन सकता है।

नव-निर्माण के लिये अथक श्रम-

विगत एक सौ वर्षों में इंग्लैंड, अमेरिका, फ्राँस, रूस, चीन, जापान आदि देशों ने कितनी आश्चर्यजनक प्रगति की है। सौ वर्ष पूर्व इन देशों की दशा आज की तुलना में बहुत ही गई-गुजरी थी। भारतवर्ष को जो भौतिक एवं आध्यात्मिक साधन उपलब्ध हैं, उनके आधार पर वह 25 वर्षों में उतनी प्रगति कर सकता है, जितनी दूसरों ने सौ वर्षों में की है। पर इसके लिये आवश्यकता उन सेना-नायकों की है, जो भारतीय जनता के अस्त-व्यस्त लोक-मानस को चकमका कर, उलट-पुलट कर रख दें और प्राचीनता के आधार पर उसका नव-निर्माण करने के लिये कटिबद्ध हों। ऐसे लोगों का अभाव नहीं, केवल निरुत्साह ही बाधक है। यदि यह कमी दूर हो सके, जन-जागरण के लिये एक सुगठित सेना की तरह यदि बौद्धिक-क्रान्ति करने वाले आदर्शवादी लोक-सेवक निकल पड़ें, तो देश का कायाकल्प ही हो सकता है। सीमाओं पर आक्रमण करने वाले तो झक मार कर बैठ ही जायेंगे, साथ ही विघटनकारी अन्तर्द्वन्द्वों का भी कहीं पता न चलेगा। भाषा, प्रान्त और जाति, सम्प्रदायों के नाम पर जो विघटनकारी दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं, उनका कहीं पता भी न चलेगा।

उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावनाएं इस बात पर निर्भर हैं कि प्रबुद्ध, जागृत एवं प्रतिभावान् व्यक्ति अपनी संकीर्ण सीमाबद्धताओं में ही उलझे न रहकर युग-निर्माण के लिये, जन-जागरण के लिये कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध हों। प्रचारात्मक और रचनात्मक कार्यों के द्वारा जनता को संगठित, जागृत एवं कर्तव्यरत बनाया जा सकता है। यह कार्य राजनीति से नहीं, धर्म के मंच से ही सम्भव होगा। भारत की 80 फीसदी जनता अशिक्षित है और लगभग इतने ही लोग देहातों में रहते हैं। उन्हें किसी अन्य स्तर पर नहीं, केवल धार्मिक स्तर पर ही आन्दोलित किया जा सकता है। शिक्षित एवं शहरी वर्ग में भी उनकी आदर्शवादिता को उभारने का प्रयोजन केवल धर्म एवं अध्यात्म के आधार पर ही संभव हो सकता है।

अखण्ड-ज्योति परिवार में जो प्रबुद्ध आत्माएं हैं, उन्हें युग पुकारता है। वे संकीर्ण स्वार्थपरता का वैयक्तिक जीवन जीने की अपेक्षा युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की तरह कुछ त्याग-बलिदान करने के लिये तत्पर हों, समय दान करें, जन-संपर्क के लिये अवसर निकालें, और जन-जन के मन मन में नव-जीवन का संचार करने वाली भावनाएं भरें, तब काम चले।

जो लोग अपने को धर्मात्मा, ईश्वर भक्त एवं आदर्शवादी कहते हैं, मानते हैं, उनके लिये आज की अग्नि परीक्षा की घड़ियाँ कुछ करने के लिये कह रही हैं। यदि उसमें से कोई कुछ करना चाहे तो अपनी स्थिति के अनुरूप बहुत कुछ कर सकता है। युग-निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम उसे सादर आमन्त्रित करते हैं। जो केवल पूजा-पाठ की थोड़ी चिन्हपूजा करके ही स्वर्ग, मुक्ति , ईश्वर दर्शन के सपने देखते हैं, उन्हें जानना चाहिये कि उनकी सच्चाई और आस्था आज अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही है। यदि वे कष्ट-साध्य कर्तव्यों से कतराते हैं, तो मुलम्मा चढ़े सोने की तरह उस परख में उनकी आब जनता जनार्दन के सामने उतर ही जायगी।

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